सारण के राहुल सांकृत्यायन थे प्रोफेसर राजगृह – कवि केदारनाथ सिंह
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
कॉलेज से रिटायर होने के बाद मामा ने खूब यात्रा की। दक्षिण से लेकर उत्तर तक। बड़े-बड़े संतों व सिद्ध पुरुषों से मिले। उनका खुद का जीवन भी बहुत सादा, संयमित व संतो जैसा था।
नाना मामा के बचपन में ही गुजर गए थे। नानी ने सातवीं के बाद पढ़ाई का खर्चा देने से मना कर दिया था। मामा माने नहीं। घर की सारी जिम्मेदारी उठाते हुए पोस्ट ग्रेजुएशन किया ( एम. ए. हिंदी ) और टॉप किया। क्षेत्र के लोग इनका उदाहरण देने लगे।
ताउम्र संघर्ष का पर्याय बने रहे मामा। चार बहनों और एक छोटे भाई की शादी की। खुद की शादी की। नाना के जाने के बाद सारी जिम्मेदारी तो इन्हीं पर थी। छोटका मामा राजनाथ सिंह राकेश, कवि जी तो बहुत छोटे थे। मानिए कि मामा इन्हें बेटे जैसा ही पाले। इसके बाद अपनी छह बेटियों की शादी की।
लेकिन आश्चर्य की बात कि इतनी सारी जिम्मेदारियों के बाद भी मामा सदैव समाज के रहे। एकमा-माझी-छपरा के अधिकांश स्कूल-कॉलेज मामा की प्रेरणा से बने। लड़कियों की शिक्षा पर बहुत जोरों देते थे मामा। शायद ही कोई साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन हो इलाके की, जो मामा के बिना सम्पन्न हुआ हो। खूब सक्रिय थे। पैदल खूब चलते थे। गाँव-गाँव में जाकर लोगों को जागरूक करते थे। बहुत सारी दहेज रहित शादियां भी करवाईं। सामाजिक कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। एकमा राहुल नगर में मामा का निवास साहित्यिक-सांस्कृतिक अड्डा था। कवि केदारनाथ सिंह, पांडेय कपिल, रमाशंकर श्रीवास्तव, मैनेजर पांडेय समेत बड़े-बड़े दिग्गज साहित्यकार यहाँ रुकते-ठहरते थे।
राहुल सांकृत्यायन से मामा बहुत प्रभावित थे। 1993 में राहुल जी की पत्नी भी परसागढ़ से मामा के घर आयीं थीं। कालांतर में क्षेत्र में राहुल जी की प्रतिमा भी मामा के प्रयास व प्रेरणा से लगी।
1999 में आचार्य राममूर्ति जी के साथ जुड़कर अंतरराष्ट्रीय महिला शांति सेना का गठन किया जिसका वैशाली व दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में दलाईलामा व प्रधानमंत्री वीपी सिंह जैसी शख्सियतों ने शिरकत किया था। राममूर्ति जी के साथ ही सारण जिला नागरिक मंच का गठन किया, जिसके तहत 2 अक्टूबर गांधी जयंती से 11 अक्टूबर जय प्रकाश जयंती तक महेंद्र नाथ से ढोढ स्थान तक पद यात्रा किया।
सारण जिला में भ्रष्टाचार विरोधी मंच का गठन कर गाँव-गाँव पर्चे बाँटे। लोकपाल बिल के लिए अन्ना आंदोलन का छपरा से नेतृत्व किया।
पूर्व वित्त मंत्री डॉ. प्रभुनाथ सिंह ने ताउम्र जो भी आयोजन किया, मामा साथ रहे। मामा के मेधावी शिष्यों-छात्रों की लंबी फेहरिस्त है। उनके गाँव टेघड़ा के जेपी सिंह जो वर्तमान में आईजी पुलिस शिमला हैं, उन्हें अपना गुरु व आदर्श मानते हैं। प्रख्यात शायर तंग इनायतपुरी के सभी भाइयों के गुरु रहे हैं राजगृह बाबू।
मुबारपुर के कवि शिव यत्न सिंह के आईपीएस पुत्र मनोज कुमार सिंह जो मध्य प्रदेश में एसपी हैं, बताते हैं कि, ”
बाबू जी के साथ जब जब राज गृही चाचा की बैठक होती थी तब तब साहित्य मुस्कुराता नज़र आता था , ग्रामीण अंचल की आबोहवा के बीच जब परिवेश हिन्दी व अंग्रेज़ी साहित्य की विभिन्न विधाओं के वार्तालाप का होता था तब माहौल पाठशाला सा बन जाता था , उसी बीच परमेश्वर बाबू (जैतपुर )का आना ,
फिर क्या , तीनों का दोस्ताना अंदाज में बतियाना आज ज़ेहन की गहराइयों मे उतर रहा क्योंकि आज राज गृही चाचा जी की विदाई हुई है , ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुलाया है , उनके कैवल्य प्राप्ति ने बाबूजी की यादें भी ताज़ा कर गई क्योंकि दोनों का तासीर पाठशाला व शिक्षक की रही है। राजगृही चाचा से सीख लेकर हम लोगों ने अपने जीवन को सजाने संवारने का प्रयास किया है।”
छपरा रिबेल कोचिंग के निदेशक विक्की आनंद तो राजगृह बाबू को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं। ऐसे अनगिनत नाम है, जिन पर मामा का प्रभाव है। मामा ने जीवन भर मान-सम्मान कमाया। क्षेत्र में कहीं भी घूम आइये, बड़े अदब व आदर से नाम लेते हैं लोग राजगृह बाबू का।
इनके सामाजिक कामों का प्रभाव यह था कि कवि केदार नाथ सिंह इन्हें सारण का राहुल सांकृत्यायन कहते थे। मामा के मित्र व भोजपुरी साहित्यकार व्यास मिश्र इन्हें सारण के गांधी कहते थे। कोई संत तो कोई कर्मयोगी कहता था लेकिन इन सबसे मामा की सादगी व स्वभाव पर कोई असर नहीं पड़ा।
2007 में मामा पर पैरालिसिस का अटैक हुआ और उनकी आवाज़ चली गई। अपनी आवाज़ के लिए जाने जाते थे मामा। कॉलेज और बाहर के तमाम समारोहों में इन्हें सुनने के लिए भीड़ इकट्ठी होती थी। दवा-दारू के बाद आवाज वापस आई तो लड़खड़ाती हुई।
मेरी बातचीत इसी लड़खड़ाती हुई आवाज में मामा से हुई है। उसके पहले तो मामा पकड़ में आते नहीं थे। हम बच्चे उनसे डरते भी तो बहुत थे। वह गंभीर रहते थे। भेंटाते भी नहीं थे। पटना से जब भी एकमा आता तो मामा गायब। …रे मामा रे ? …आ त गइल बाड़े ..हो आयोजन में त हो नेवता में त हो आंदोलन में …
खैर, 2007 में मैं लंदन से वापस आ गया था। मेरी किताब तस्वीर जिंदगी के छप गई थी। मामा ने उसकी समीक्षा भी लिखी थी जो दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका भैरवी में प्रकाशित हुई थी।
मामा के पीछे पड़-पड़कर, बोल-बोलकर मैंने उनकी भी दो किताबें छपवा दी थीं – कवितांजलि व कथांजलि। अपनी भूमिका में मामा ने मेरे पीछे पड़ने का जिक्र भी किया है।
बाद में मामा मेरे दोस्त बन गए। उम्र का फासला मिट गया। वह मेरे सामने खुल के हँसते व खुल के छलकते भी थे। अपनी जिंदगी की किताब खोल देते थे मेरे सामने। मैं अपनी सामर्थ्य भर पढ़ता भी था। उनकी कहानी एक प्रेरक किताब की तरह होती थी मेरे सामने। मामा माँ की बहुत तारीफ करते। माँ मामा से छोटी व पीठ पर की बहन है। मामा कहते, ” आपके घर को घर बनाने में और रामदेव बाबू को रामदेव बाबू बनाने में मेरी सुनैना का बहुत बड़ा योगदान है।”
मामा जब हिंदी बोलते तो मुझे भी आप कहते। वह तुम किसी को बोलते ही नहीं थे।
इधर छः महीने से बीमार चल रहे थे मामा। नवम्बर 22 में मैं मिलने गया था मामा से। मेरे साथ मेरी दुर्गेश दीदी व बिरेंदर भइया भी थे। इस बार धधा के नहीं मिले मामा। बतियाये भी नहीं। ठीक से आँख भी नहीं खोले। मेरी आँख भर आयी थी। बिरेंदर भइया फफक के रोने लगे थे। मुझसे वहाँ रुका नहीं गया था।
नवम्बर से अभी तक मेरा भी एम्स का चक्कर चल रहा था। कभी अपने लिए, कभी भाई के लिए।
और 14 नवम्बर की सुबह जब मैं अपने बाबूजी की पुण्यतिथि मना रहा था, तभी मामा की छोटी बेटी चीची ( पल्लवी) ने यह मनहूस खबर दी कि मामा चले गए।
धक्क से लगा। अब ऐसा अनुभवी दोस्त कहाँ मिलेगा। ऐसा ही लगा था मेरे गुरु आचार्य पांडेय कपिल के जाने के बाद। वह भी मेरे दोस्त बन गए थे।
इधर एक सप्ताह से बुखार में हूँ। पूरा परिवार बुखार से पीड़ित है। इसलिए बाबूजी की पुण्यतिथि में रेनुकूट नहीं जा सके। तब तक मामा भी …
14 अप्रैल राहुल सांकृत्यायन की पुण्यतिथि है। राहुल जी से इतने प्रभावित थे मामा कि वह भी इसी दिन …
एक अपराधबोध मन में है। मामा के बिखरे पड़े सैकड़ो दुर्लभ लेखों का एक संग्रह निकालना था। मामा को सरप्राइज देना था। हम और चीची योजना बना चुके थे। चीची ने सामग्री इकठ्ठा कर लिया था …
लेकिन मामा इंतज़ार नहीं कर सके या हम ही सुस्त पड़ गए।
ये सरप्राइज आपको नहीं दे पाए मामा। माफ कीजियेगा।
हम क्या, इस देश ने भी तो आपको वह मान-सम्मान नहीं दिया जिसके आप वाकई हकदार थे।
लेकिन आप जैसे संत को इससे क्या फर्क पड़ता है। आप क्षेत्र की जनता के दिलों में हैं, मेरे दिल में हैं।
जिंदाबाद मामा।!
अलविदा मामा !
आभार- लेखक मनोज भावुक प्रोफेसर राजगृह सिंह के भांजे व सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं।
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