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न्यायपालिका में जनता का विश्वास होना लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति,कैसे ? - श्रीनारद मीडिया

न्यायपालिका में जनता का विश्वास होना लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति,कैसे ?

न्यायपालिका में जनता का विश्वास होना लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति,कैसे ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना समय समय पर देश की न्याय प्रणाली और उसके सुधार की आवश्यकता पर अपने महत्वपूर्ण सुझाव देते रहते हैं। पूर्व में उन्होंने न्यायपालिका, न्यायप्रणाली और कानूनों के सुधार, सरलीकरण व भारतीयकरण और न्याय प्रक्रिया को सुगम बनाने समेत आम आदमी तक न्याय पहुंचाने के लिए अनेक व्यावहारिक सुझाव दिए हैं। इसी क्रम में हाल ही में उन्होंने कहा है कि न्याय तक पहुंच के लिए अदालतों में उत्तम आधारभूत संरचना आवश्यक है।

मुख्य न्यायाधीश के अनुसार देश में उत्तम न्यायिक संरचना कभी भी प्राथमिकता में नहीं रही और अदालतों के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर पहले विशेष ध्यान नहीं दिया गया। अनेक कोर्ट जर्जर भवनों में चल रहे हैं जहां अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के बैठने के लिए पर्याप्त कमरे नहीं हैं जिससे न्यायिक कार्य बाधित होता है। जस्टिस रमना ने कहा कि देश में 20 प्रतिशत न्यायिक अधिकारियों के बैठने के लिए कमरे नहीं हैं, जो एक शोचनीय विषय है।

देश में 24,280 न्यायिक अधिकारी हैं जिनके सापेक्ष 20,143 कमरे उपलब्ध हैं। इसके अलावा भी उन्होंने तमाम समस्याओं को इंगित किया। न्यायपालिका के लिए पूर्ण वित्तीय स्वायत्तता की मांग करते हुए उन्होंने अदालतों की व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए सरकार को नेशनल ज्यूडीशियल इन्फ्रास्ट्रक्चर अथारिटी (एनजेआइए) के गठन का प्रस्ताव भेजा है।

मुख्य न्यायाधीश द्वारा उजागर किए गए सभी तथ्य निश्चित ही न्यायपालिका से संबंधित गंभीर समस्याओं को दर्शाते हैं। आज जनता अपने अधिकारों को लेकर जागरूक है और उन्हें मनवाने के लिए लोग अक्सर न्यायालय की शरण में जाते हैं। जागरूक जनता न्यायालयों की तुलना अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त निजी क्षेत्रों से करती है और उनके अभाव में उनके हितों पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव से निराश, कुंठित व ठगा हुआ महसूस करती है। लंबे समय तक इस निराशा से जूझते रहने के कारण जनता का न्यायपालिका से विश्वास उठ जाता है जो लोकतंत्र के लिए सही नहीं है।

उत्तम न्यायिक संरचना जनता की न्याय तक पहुंच बनाने के लिए जरूरी है। दुर्भाग्यवश देश के अधिकांश हिस्सों में आज भी अदालतें पुरातन र्ढे पर चल रही हैं और अदालतों में आवश्यक व बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।

अधिकांश अदालतों में प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी है। अनेक अदालतों में कंप्यूटर और ¨पट्रर तक की समुचित व्यवस्था नहीं है जिसके अभाव में न्यायाधीशों को आज भी हाथ से ही आदेश लिखने पड़ते हैं। देश की अधिकांश अदालतों में सुरक्षा व चिकित्सा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। उपरोक्त कमियों के रहते न्यायिक अधिकारी और उनके स्टाफ की कार्यकुशलता पर विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

इसके इतर न्यायालयों में जबरदस्त कार्य भार है और स्टाफ की कमी के चलते अधिकांश मुकदमों के निस्तारण में देरी होती है। सामान्यत: एक कोर्ट में पांच-छह कर्मचारी होते हैं जिनमें पक्षकारों को मुकदमे में तारीख देने व न्यायाधीश को संबंधित फाइल देने के लिए रीडर, डिक्टेशन टाइप करने के लिए स्टेनो, फाइल ले जाने और उन्हें तैयार करने और डेट लगाने व फाइल को रीडर को देने के लिए अहलमद व सहायक अहलमद तथा मुकदमे के पक्षकारों को आवाज लगाने के लिए अर्दली होते हैं। इनमें से किसी भी कर्मचारी के किसी दिन अनुपस्थित रहने से कोर्ट का कार्य प्रभावित होता है।

आमतौर पर जजों की भर्ती की बात तो होती रहती है, परंतु इस बिंदु पर ज्यादा विचार नहीं किया जाता कि जजों की भर्ती के साथ कोर्ट के स्टाफ की भर्ती भी जरूरी है। कई बार नया कोर्ट बनने पर पहले से अन्यत्र कार्यरत स्टाफ को हटाकर नए कोर्ट में लगाना पड़ता है जिससे पहले कोर्ट का कार्य बाधित होता है। हालांकि दिल्ली की अदालतों में बेहतर सुविधाएं विकसित की गई हैं, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में ऐसा नहीं है।

लोकतंत्र में राज्य के अन्य अंगों पर भी जनता को न्याय सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी है, परंतु इस लक्ष्य की प्राप्ति में न्यायपालिका की भूमिका प्रमुख है और अन्य अंगों की अपेक्षा न्यायपालिका पर ही न्याय के परम निष्पादन की सर्वाधिक जिम्मेदारी है। दुर्भाग्यवश देश में आज भी न्यायपालिका के समक्ष अनेक मुद्दे विद्यमान हैं और न्याय के सुगम व सरल प्रशासन व वितरण के लिए इन समस्याओं का त्वरित निवारण किया जाना बेहद आवश्यक है।

कोर्ट में असंख्य लंबित वाद, निर्णयों में देरी, जटिल न्यायिक प्रक्रिया, वकीलों की महंगी फीस, कानून की जानकारी का अभाव, अदालती कार्यवाही व निर्णयों का अंग्रेजी भाषा में होना बड़ी बाधा हैं। भारत में सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित एक मूलभूत सिद्धांत है और इन सभी मामलों में राज्य द्वारा कोई भी उल्लंघन या अन्याय होने पर जनता को न्याय दिलाना न्यायपालिका की जिम्मेदारी है।

भारत में पूर्व में जहां राज्य के अन्य अंग अनेक कारणों से न्याय वितरण में असमर्थ दिखाई दिए हैं, वहीं न्यायपालिका ने न्याय वितरण में सदैव सक्रिय व अहम भूमिका निभाई है।

अब जब यह स्पष्ट है कि देश की जनता राज्य के अन्य अंगों की अपेक्षा न्यायपालिका में अधिक विश्वास रखती है तब इसे और अधिक मजबूत व सुदृढ़ बनाए जाने के प्रयास किए जाने आवश्यक हैं। ऐसे में सरकारों की जिम्मेदारी बनती है कि वो न्यायपालिका की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए वे सभी प्रयास करें जिनसे न्यायपालिका न्याय वितरण के कार्य को आसानी, सुगमता व ईमानदारी से कर पाए।

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