सार्वजनिक-निजी भागीदारी से सामाजिक गतिशीलता को मिलेगी तेजी,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सामाजिक बुनियादी ढांचे का महत्व शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास सुविधाएं आदि सामाजिक परिवर्तन के मूल तत्व हैं जो किसी अर्थव्यवस्था के सामाजिक विकास की प्रक्रिया के लिए आधार के रूप में काम करते हैं। उच्च आय मानव पूंजी के उच्च स्तर का निर्माण करती है जिससे आय में निरंतर वृद्धि होती है। इसके लिए सरकार की प्रतिबद्धता और सामाजिक बुनियादी ढांचे को अधिकतम सक्षम बनाया जा रहा है। साथ ही केंद्र सरकार द्वारा बीते वर्षो लागू की गई अनेक संबंधित योजनाओं के दीर्घकालिक लाभों को महसूस किया जा रहा है जिसे समग्र विकास की चुनौतियों को प्रभावी ढंग से हल करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ने के प्रतीक के रूप में समझा जा सकता है।

यह भी सही है कि तमाम सामाजिक योजनाएं दीर्घकाल में लोगों के जीवन में व्यापक बदलाव लाने में सक्षम होंगी। सामाजिक बुनियादी ढांचे में निवेश इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि बहुत से नीति निर्माता इस बात की सराहना नहीं करते हैं कि सामाजिक क्षेत्र में निवेश जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, कौशल विकास, रोजगार के अवसर प्रदान करना, आवास, स्वच्छता आदि सामाजिक गतिशीलता का आधार है। इन क्षेत्रों में किए जाने वाले निवेशों की प्राप्ति का मूल्यांकन अल्पावधि के आधार पर नहीं किया जा सकता है। इनका मूल्यांकन दीर्घावधि में अनेक रूपों में हमें दिखाई देगा।

स्वास्थ्य और शिक्षा में सार्वजनिक निजी निवेश : सार्वजनिक-निजी निवेश माडल का हमारा ट्रैक रिकार्ड काफी हद तक असफल रहा है। हालांकि सड़कों और बुनियादी ढांचों के निर्माण में यह माडल काफी हद तक सफल रहा है, जिसे स्वास्थ्य और शिक्षा में भी लागू किया जाना चाहिए। हमारे देश की खस्ताहाल चिकित्सा सेवाओं को देखते हुए वर्तमान में देश को कम से कम 800 मेडिकल कालेज, लगभग 100 स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थानों, 50 आइआइएम सरीखे प्रबंधन संस्थानों और आइआइटी की तरह कम से कम 50 अन्य संस्थानों की जरूरत है।

भारत को आर्थिक विकास में मानव पूंजी के महत्व को पहचानना चाहिए। यदि हम कौशल विकास और स्वास्थ्य में निवेश कर सकते हैं तो हमारी बड़ी आबादी ही अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक संपत्ति और सामाजिक गतिशीलता का चालक बन सकती है। भारत सरकार ने इस संबंध में कई सार्थक कदम उठाए हैं जिस कारण हमारा देश एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। संबंधित तमाम प्रयासों के कारण देश के 40 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में कामयाबी मिली है। इसी तरह, कई दूसरे सामाजिक आर्थिक मानकों में अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी रही हैं। हालांकि कई मानकों के अनुसार असमानता बढ़ रही है और सामाजिक गतिशीलता भी कम हो रही है जो वाकई चिंता का विषय है।

हमारे नीति निर्माता हमेशा वैश्वीकरण, स्वचालन और यहां तक कि इतिहास, भूगोल व अन्य तमाम चीजों को कम सामाजिक गतिशीलता के लिए दोषी ठहराते रहे हैं। वैसे इस संदर्भ में किए गए एक आकलन से पता चलता है कि केवल नीति निर्धारण की खामियों के कारण ही इस मामले में गरीबों की दशा को सुधारने में देरी हो रही है। लगभग 250 नीति निर्माताओं और पेशेवरों पर किया गया एक अध्ययन यह बताता है कि अधिकांश कल्याणकारी पहल शासन केंद्रित, अनियमित और अस्थायी होते हैं। जबकि योग्यता आधारित, सुसंगत, अच्छी तरह से लक्षित और प्रभावी तरीके से क्रियान्वित कार्यक्रम बेहतर परिणाम देते हैं और सामाजिक मल्टीप्लायर का काम करते हैं यानी उससे चरणबद्ध रूप से कई लोगों को फायदा होता है।

यह भी सच है कि भारत में करीब एक तिहाई लोग गरीब हैं और उससे भी अधिक लोग अनेक प्रकार के सामाजिक-आर्थिक लाभों से वंचित हैं। वे अभाव में जीने के लिए मजबूर हैं और ज्यादातर मामलों में लंबे समय से या फिर पीढ़ियों से गरीबी से ग्रस्त हैं। एक हालिया अध्ययन से यह सामने आया है कि सामाजिक गतिशीलता रूपी सीढ़ी पर चढ़ने के लिए हमें अभी कितने कदम उठाने पड़ेंगे। साथ ही अध्ययन में इस बात का भी जिक्र है कि हमें ये कदम किस प्रकार से उठाने होंगे।

बड़ों को फायदा और छोटे को नुकसान : इस संबंध में किए गए एक तुलनात्मक अध्ययन में असमानता के विविध स्तरों को दर्शाया गया है। विडंबना यह है कि जहां दो प्रतिशत लोगों के स्वामित्व में सबकुछ है, वहीं 15 प्रतिशत उपभोक्ता वर्ग बिक्री पर हर विवेकाधीन वस्तु का खर्च उठाने में सक्षम है। इनमें से अधिकांश ऐसा करते भी हैं। जबकि करीब 40 प्रतिशत लोग ‘जीने के लिए काम’ करते हैं। इस श्रेणी के लोग अपनी बचत को अस्पताल बिल और आपदा जैसी स्थिति में खर्च करने को मजबूर होते हैं। इनके अलावा 40 प्रतिशत से अधिक लोग केवल मेहनत करते हैं। इस मामले में एक विचारणीय पहलू यह है कि मेहनतकश वर्ग के केवल 20 प्रतिशत लोग ही अपने माता-पिता से बेहतर जीवन बिता रहे हैं।

एक संबंधित रिपोर्ट के अनुसार बिहार के सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोग सामाजिक गतिशीलता के लिहाज से सर्वाधिक पिछड़े हैं। देश के अन्य उत्तरी राज्यों की स्थिति भी इससे बेहतर नहीं है। महाराष्ट्र में तीन पीढ़ियों को इस स्थिति का सामना करना होगा। यहां तक कि दक्षिण के विकसित राज्यों में भी दो पीढ़ियों को सामाजिक गतिशीलता के लाभों की पूर्ण प्राप्ति नहीं हो रही है। जबकि चीन के करीब 80 प्रतिशत नागरिक और बांग्लादेश के लगभग 50 प्रतिशत नागरिक अपने माता-पिता से बेहतर करेंगे।

हमारे नीति निर्माता गरीबी को संकीर्ण ‘आर्थिक’ नजरिये से देखते हैं और उसी प्रकार से उनकी समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं। आर्थिक नीतियों के निर्माण के समय इस बात का ध्यान कम ही रखा जाता है कि असमानता आर्थिक विकास का एक ‘अनिवार्य’ हिस्सा है। वे इस विचार पर भले ही विश्वास करते और मानते हैं कि आय असमानता अनिवार्य तो है, लेकिन उच्च विकास अर्थव्यवस्था का ‘अस्थायी’ परिणाम भी है। हमने इसका कोई साक्ष्य नहीं देखा है, जबकि वास्तवकिता इसके विपरीत है। यह इस रूप में स्पष्टता से दिख भी रहा है कि असमानता लगातार बढ़ रही है।

सरकार की लंबे समय से चली आ रही और अपर्याप्त नीतिगत रूपरेखा कैसे काफी हद तक मूल्यों को कम करने वाली रही है। देश के अनेक जिलों में गरीब परिवारों की स्थिति और वहां पर कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च की जाने वाली राशि इस मामले में अनुचित आवंटन की एक बड़ी सीमा को दर्शाती है। बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के ऐसे जिलों, जहां देश के सर्वाधिक 60 प्रतिशत गरीब रहते हैं, उनको अपेक्षाकृत कम संसाधन आवंटित किए गए हैं, क्योंकि उनके पास प्रशासनिक क्षमता और खर्च करने (क्रियान्वयन) की क्षमता का अभाव है। विडंबना यह है कि कम प्रशासनिक क्षमता के कारण ‘पात्र’ गरीबों को उनके हक से वंचित कर दिया जाता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि इन जिलों के लिए आवंटन की सीमा बढ़ाई जानी चाहिए।

आर्थिक असमानता और सामाजिक गतिशीलता बेहद जटिल मामले हैं। इनमें सुधार करने के लिए भारत के पास न तो कोई ठोस रोडमैप है और न ही समग्र परिणाम आधारित रूपरेखा है। उल्लेखनीय है कि सामान्य नीति के जरिये समाधानों का दायरा सीमित होता है। ऐसे में अर्थव्यवस्था केंद्रित वृहत दृष्टिकोण विकास को निश्चित तौर पर प्रोत्साहित कर सकता है, लेकिन सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। विभिन्न सरकारों द्वारा शुरू की गई लगभग एक हजार कल्याणकारी योजनाएं अव्यवस्थित हैं, जबकि उनसे उम्मीद थी कि वे कुछ हद तक मरहम का काम करेंगी।

कोरोना महामारी पर पूर्णतया नियंत्रण होने के बाद शायद भारत को कहीं बड़ी आपदा का सामना करना पड़ सकता है। डिजिटल तकनीक के कारण तमाम क्षेत्रों में सामने आए व्यापक बदलाव नुकसान को और बढ़ा सकते हैं। वृहद स्तर पर तकनीक कई निम्न-मध्यम वेतन वाली नौकरियों को विस्थापित कर सकती है, जिससे भारत में 50 प्रतिशत से अधिक कर्मचारियों को नुकसान की आशंका है।

इस बीच महामारी जनित लाकडाउन के कारण अधिकांश लोगों की बचत प्रभावित हुई है। एक आशंका इस बात की भी है कि कोरोना महामारी सामाजिक गतिशीलता को भी कम करेगी। यहां तक कि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि भी विकास का वास्तविक संकेतक नहीं है। जीवन की गुणवत्ता ही वास्तविक विकास है। इस कारण से हमारा पांच लाख करोड़ डालर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना साकार होने में वर्षो लग सकते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस विचार की सराहना करते हुए हमें स्वीकार करना चाहिए कि कम सामाजिक गतिशीलता व्यक्तियों को प्रभावित करती है, लेकिन इसका समाज और अर्थव्यवस्था दोनों पर असर पड़ता है। यह सामाजिक सद्भाव को कम करता है जो सामाजिक रूप से नुकसानदायक होने के साथ ही राजनीतिक रूप से भी आत्मघाती है। असमानता संघर्ष और अस्थिरता को बढ़ावा देती है, जिससे सामाजिक तनाव पैदा होता है।

हमारे नीति निर्माताओं को यह याद रखना चाहिए कि इस लिहाज से पैमाना और गति इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि एक साल की निष्क्रियता और विलंबित प्रयास परिणाम को पांच वर्षो तक प्रभावित करते हैं। ऐसे में भारत को कई क्षेत्रों में मजबूत और समग्र सुधारों की जरूरत होगी। नीति निर्माताओं को एक मिशनरी उत्साह, उन्नतिशील, यहां तक कि समर्पित नीतिगत ढांचा बनाना चाहिए। भारत को एक विशेष वर्ग व एक मजबूत टूलकिट के साथ कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की जरूरत होगी।

निर्धनतम व्यक्ति जीवन में सफलता के अवसरों में समानता पाने के पात्र हैं। मिशनरी उत्साह वंचितों को अनुचित आर्थिक विषमताओं से मुक्त कर सकता है। साथ ही सबसे गरीब लोगों को अवसर प्रदान कर सकता है और निम्न-मध्यम आय वालों को सम्मानपूर्ण जीवन उपलब्ध करा सकता है।

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