राहुल सांकृत्यायन को यात्रा साहित्य के जनक के रूप में जाना जाता है
जयंती पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
अनवरत यात्री कहें या अहर्निश यायावर, तथ्य व तत्व के अन्वेषी, दार्शनिक व इतिहासविद, बौद्ध धर्म के अप्रतिम मर्मज्ञ, अभ्यासक व व्याख्याता, बहुभाषाविद, परिवर्तनकामी साहित्य सर्जक, साम्यवादी चिंतक, सामाजिक क्रांति के सार्वदेशिक दृष्टि संपन्न अग्रदूत और मनीषी. वर्ष 1893 में नौ अप्रैल को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गांव में जन्मे राहुल सांकृत्यायन की बहुज्ञता ने उनके इस संसार में रहते ही उनके ऐसे अनेक परिचय सृजित कर दिये थे.
दूसरी ओर, उनके विविध जीवन प्रवाहों ने उनका नाम भी एक नहीं रहने दिया था. उनकी माता कुलवंती व पिता गोवर्धन पांडेय का दिया नाम केदारनाथ पांडेय तब पीछे छूट गया था, जब वैराग्य से प्रभावित होकर वे उसकी शरण में गये और ‘दामोदर स्वामी’ कहकर पुकारे जाने लगे. बौद्ध हुए तो उनका नाम ‘राहुल’ हो गया, जिसमें अपने पितृ कुल का सांकृत्य गोत्र जोड़कर वे राहुल सांकृत्यायन बन गये और इसी नाम से प्रतिष्ठित हुए.
धर्म, संस्कृति, दर्शन, साहित्य, इतिहास, शोध और संघर्ष समेत अनेक आयाम हैं, जिन्हें उनके व्यक्तित्व की विराटता कहा जाता है. उनका एक परिचय उनकी ‘महापंडित’ की उपाधि भी देती है. यायावरी को (जिसे वे घुमक्कड़ी कहना ज्यादा पसंद करते थे), उन्होंने उम्रभर अपने जीवन की सबसे बड़ी और पहली प्राथमिकता बनाये रखा. यहां तक कि ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ लिखकर उसे शास्त्र का दर्जा भी दे गये.
उस समय घुमक्कड़ी का अर्थ नाना प्रकार की दुश्वारियों से गुजरते हुए ऊबड़-खाबड़, कंकरीली-पथरीली और कांटों भरी राहों पर चलना हुआ करता था. बौद्ध दर्शन पर उनके जिस युगांतरकारी शोध को आज भी मील का पत्थर सरीखा माना जाता है, उसके सिलसिले में तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक की घुमक्कड़ी के दौरान प्रभूत मात्रा में हासिल हुए साहित्य को उन्हें दुर्गम रास्तों से खच्चरों पर लादकर लाना पड़ा था.
इसके बावजूद उन्होंने घुमक्कड़ी को जीवन की गतिशीलता का पर्याय माना. उसे ऐसे सार्वदेशिक विश्वव्यापी धर्म की संज्ञा दी और उसका ऐसा शास्त्र बनाया, जिसमें किसी भी व्यक्ति के आने की मनाही नहीं है. अपने ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ में उन्होंने लिखा है कि किसी भी जाति का भविष्य घुमक्कड़ों पर निर्भर करता है, इसलिए हर तरुण और तरुणी को इस विश्वास के साथ घुमक्कड़ व्रत ग्रहण करना चाहिए कि महानदी के वेग की तरह घुमक्कड़ की गति को रोकने वाला दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ और बड़े-बड़े कठोर पहरे वाली राज्य सीमाओं को घुमक्कड़ों ने आंख में धूल झोंककर पार कर लिया.
यह सब लिखते हुए वे अपने को ‘पर उपदेश कुशल’ नहीं सिद्ध कर रहे थे. क्योंकि उन्होंने स्वयं भी किशोरावस्था में ही अपना घर छोड़ दिया और वर्षों तक हिमालय में घुमक्कड़ी करते रहे थे. अनंतर, उन्होंने वाराणसी में संस्कृत का अध्ययन, तो आगरा में अन्य विषयों की पढ़ाई की थी. फिर लाहौर में मिशनरी का काम किया और आजादी की लड़ाई में जेल यात्रा से भी परहेज नहीं किया था. उनको जो घुमक्कड़ी अभीष्ट थी और उन्होंने जिसका शास्त्र रचा,
वह निरुद्देश्य न होकर लैंगिक भेदभाव से परे मनुष्य की बेहतरी के वृहत्तर उद्देश्य को समर्पित है और इस कारण बड़ी हिम्मत व हौसले की मांग करती है. उनके अनुसार, इसकी सम्यक दीक्षा वही ले सकता है, जिसमें भारी मात्रा में हर तरह की रूढ़ियों व बंधनों के पार जाने का साहस और देश व दुनिया को जानने-समझने की भरपूर जिज्ञासा हो. ऐसे ही पुरुषों व स्त्रियों को आश्वस्त करते हुए वे उनसे कहते थे, ‘कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ों! संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है.’
घुमक्कड़ों के लिए उनकी सामूहिक सीख थी और है कि शुरुआत में वे भले ही छोटे या बड़े समूहों में घुमक्कड़ी करें, बाद में ‘एको चरे खग्ग-विसाण-कप्पो’ की राह अपना लें. यानी गेंडे के सींग की तरह अकेले विचरें. उन्होंने घुमक्कड़ों को इस सीख को अपना ध्येय वाक्य बना लेने को भी कहा है ताकि वे घुमक्कड़ी से वह सब प्राप्त कर सकें, जो उनको बेहतर मनुष्य बनाने में सहायक हो.
उनका मानना था कि घुमक्कड़ी मानव मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है. उनकी घुमक्कड़ी की पहली प्रेरणा उनके नाना पं रामशरण पाठक थे. युवावस्था में सैनिक के रूप में देश के विभिन्न प्रदेशों में जाने और रहने के अवसर पा चुके नाना उनको उन सभी प्रदेशों की प्रकृति, उनकी नदियों व झरनों की सुरम्यता और जन-जीवन की सहूलियतों व कठिनाइयों की बाबत तो बताते ही थे, अजंता-एलोरा जैसी किवदंतियों समेत अनेक किस्से-कहानियां भी सुनाते थे. इस सबका राहुल के बालमन पर गहरा असर हुआ, जिससे उनके आगामी जीवन में घुमक्कड़ी की ऐसी भूमिका तैयार हुई कि वही उनका जीवन हो गयी.
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