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बहुभाषाविद् एवं असाधारण घुमक्कड़ थे राहुल सांकृत्यायन. - श्रीनारद मीडिया

बहुभाषाविद् एवं असाधारण घुमक्कड़ थे राहुल सांकृत्यायन.

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राहुल सांकृत्यायन की जयंती पर विशेष.

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में राहुल सांकृत्यायन की अहम भूमिका रही है। वह बहुभाषाविद और असाधारण घुमक्कड़ थे। देश-विदेश में भ्रमण करते हुए उन्होंने कई दुर्लभ ग्रंथों का अध्ययन और खोज की। बौद्ध साहित्य के प्रकांड विद्वान होने के साथ-साथ वह कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और जन नेता भी थे। हिंदी साहित्य यात्रा में वह सदैव ही हिंदी को शिखर पर ले जाने के हिमायती रहे।

राहुल सांकृत्यायन के प्रत्येक साहित्य में इतिहास की झलक है तो उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण पुरातत्व का भाव मिलता है। इसका कारण सुल्तानगंज की गंगा पुरातत्वांक पत्रिका के लिए अनेक लेख लिखे जाना है, जिनमें महायान की उत्पत्ति और चौरासी सिद्धि लेख का जिक्र राहुल ने स्वयं अपनी जीवनी मेरी जीवन यात्रा में किया है।

राहुल घुमक्कड़ तो थे ही साथ ही उनमें बंधकर न रहने की खूबी भी थी। इसी कारण से जयतु जयतु घुमक्कड़ पंथा उनका उद्घोष और चरति भिक्कवे! उनके जीवन का मूलमंत्र बना।

उन्होंने निरंतर सत्य की खोज में अपना जीवन बिताया। हजारों मील भ्रमण करने के बाद अनेक ग्रंथों को राहुल अपने साथ भारत लाते और अपने रोमांचकारी लेखों से साहित्य को समृद्ध करते। काशी के विद्वानों ने उन्हें महापंडित की उपाधि से विभूषित किया था। राहुल सांकृत्यायन हिंदी साहित्य में युगांतकारी साहित्यकार कहे जाते हैं। युगांतकारी इसलिए क्योंकि उनमें बौद्ध धर्म पर उनका शोध अनोखा था। अपने शोध के लिए वे भिक्षु बने और तिब्बत के दुर्गम मठों से लेकर श्रीलंका के बौद्ध मठों तक में उन्होंने लंबा समय बिताया और अपने लेखन से यात्रावृत्तांत साहित्य को नई दिशा प्रदान की।

राहुल सांकृत्यायन का जन्म नौ अप्रैल 1893 को आजमगढ़ के पन्दहा गांव में हुआ, किंतु पालन-पोषण नाना के घर पर हुआ। बचपन से ही यायावरी स्वभाव के कारण राहुल घर में टिक नहीं पाए। बाल्यकाल में उनका नाम केदारनाथ पांडेय था और बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के पश्चात उन्हें राहुल नाम मिला। वह बचपन से ही पढऩे के शौकीन थे। घर से निकलने के पश्चात राहुल के जीवन के कई रंग बदले।

वाराणसी में अध्ययन, आगरा में आगे की शिक्षा और उसके बाद कोलकाता एवं देश-विदेश भ्रमण के साथ ही शोध और अध्ययन का सिलसिला जीवन के अंत तक चलता रहा। एक समय में राहुल गृहस्थ जीवन में होते हैं तो फिर वह बौद्ध, आर्यसमाजी और सनातन भी। राजनीति में राहुल का दखल काफी समय तक रहा। कांग्रेस से जुड़ाव और किसान आंदोलन में उनकी सक्रियता के साथ ही कम्युनिस्ट विचारधारा को भी उन्होंने अपनाया। एक ऐसा समय भी आया जब हिंदी-हिंदुस्तानी के विवाद में हिंदी के लिए राहुल सांकृत्यायन ने कम्युनिस्ट पार्टी भी छोड़ दी।

राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं में उपन्यास-कहानी-अनूदित साहित्य-कोश-जीवनी-दर्शन-यात्रा वृत्तांत-साहित्य-इतिहास-पुरातत्व सभी कुछ समाहित है। ‘जीने के लिए’, ‘शैतान की आंख’, ‘अदीना’, ‘शादी’, ‘सिंह सेनापति’, ‘शासन शब्द कोश’, ‘राष्ट्रभाषा कोश’ ‘मेरी जीवन यात्रा’, ‘सरदार पृथ्वीसिंह’, ‘स्तालिन’, ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’, ‘सोवियत भूमि’, ‘किन्नर देश’, ‘नेपाल’, ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘लंका’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘जापान’, ‘ईरान’ और ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ आदि आदि कुछ प्रमुख प्रकाशित रचनाएं हैं।

राहुल ने भोजपुरी नाटक भी लिखे। राहुल सांकृत्यायन कई बार शोध-संकलन और शिक्षण व्याख्यान के लिए विदेश गए। हर बार जब वह लौटे तो एक नए रूप में यात्रावृत्तांत उनके लेखन का केंद्र रहा। राहुल सन् 1927 से विदेश भ्रमण पर निकले। उनकी यात्रा का पहला पड़ाव लंका देश था।

कोई 19 माह लंका में बिताने के बाद वह नेपाल, तिब्बत गए। इन जगहों से बहुत सा विपुल साहित्य लेकर वे भारत लौटे। इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत और ईरान का उनका भ्रमण सन् 1944 तक अनवरत जारी रहा। राहुल का आखिरी विदेश दौरा तत्कालीन सोवियत देश ईरान का रहा।

सन् 1931 में वह किसान-मजदूरों के आंदोलन का हिस्सा भी बने। सन् 1931 में सत्याग्रह आंदोलन चला रहा था। उस वक्त सरकार का दमनचक्र बड़े जोरों से चल रहा था। गांधी-इर्विन समझौते के बाद राहुल ने 13 जुलाई 1931 को बिहार सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की और उसके मंत्री हुए।

आंदोलन के दौरान ही वह दो बार जेल गए। राहुल राजनीतिक क्रांति के साथ ही सामाजिक क्रांति की आवश्यकता को भी महसूस करते रहे और बौद्ध संप्रदाय से दीक्षा के बाद तो उनका विश्वास इस दिशा में और भी प्रबल हो गया।

 

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