राम हमारे संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक हैं।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
विजयादशमी पर विशेष
राम एक ऐसे नायक हैं, जो धर्म, जाति और संकीर्णता के दायरे मुक्त हैं। वे सिर्फ और सिर्फ मानवीय आदर्श के मानवीकृत रूप हैं। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर मध्यकालीन कवि तुलसी तक ने उन्हें विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। लेकिन एक आदर्श नायक के सारे स्वरूप उनमें निहित हैं। हर कवि ने राम को अपनी नज़र से देखा और उनके अलौकिक गुणों की व्याख्या अपनी संवेदना से की। मूल आधार वाल्मीकि रामायण है, लेकिन क्षेपक अलग-अलग हैं।
जैसे तमिल के महान कवि कंबन ने अपने अंदाज़ में कहा है तो कृतिवास की बाँग्ला रामायण और असम के शंकर देव का अंदाज़ अलग है। कहीं राम स्वर्ण-मृग की खोज में नहीं जाते हैं तो कहीं वे सीता की अग्नि परीक्षा और सीता वनवास से विरत रहते हैं। जितने कवि उतने ही अंदाज़, किन्तु राम कथा एक। यह विविधता ही राम कथा को और मनोहारी तथा राम के चरित्र को और उदात्त बनाती है। एक प्रसंग का वर्णन कंबन की तमिल राम कथा के सहारे और तुलसी का आधार लेकर सुप्रसिद्ध साहित्यकार रांगेय राघव ने किया है। वानर राज बालि के वध का प्रसंग तो अद्भुत है.
राम ने अपनी बुद्घि चातुर्य का अद्भुत प्रदर्शन किया। उन्होंने बड़ी सफाई से एक क्षण में ही बालि के संपूर्ण आचरण को संदेहास्पद बना दिया। अब बालि अपराध बोध से ग्रसित था और उसकी प्रजा के पास इसका कोई जवाब नहीं था कि वह बालि के आचरण को सही कैसे ठहराए। यह सच था कि वानर राज बालि ने अपने छोटे भाई को लात मारकर महल से निकाल दिया था और उसकी पत्नी को अपने महल में दाखिल करवा लिया था।
भले यह किष्किंधा राज्य वानरों का था पर दूसरे वह भी छोटे भाई की पत्नी को छीन लेना उचित कहाँ से था। राम ने एक मर्यादा रखी कि छोटे भाई की पत्नी, बहन और पुत्रवधू अपनी स्वयं की कन्या के समान है। और इन चारों पर बुरी नजर रखने वाले को मौत के घाट उतारना गलत नहीं है।
राम इसीलिए तो पूज्य हैं, आराध्य हैं और समाज की मर्यादा को स्थापित करने वाले हैं। वे किष्किंधा का राज्य सुग्रीव को सौंपते हैं और लंका नरेश रावण का युद्घ में वध करने के बाद वहाँ का राज्य रावण के छोटे भाई विभीषण को। राम को राज्य का लोभ नहीं है। वे तो स्वयं अपना ही राज्य अपनी सौतेली माँ के आदेश पर यूँ त्याग देते हैं
जैसे कोई थका-माँदा पथिक किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ता है- ‘राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राजु बटाउ की नाईं’। राम आदर्श हैं और वे हर समय समाज के समक्ष एक मर्यादा उपस्थित करते हैं। राम एक पत्नीव्रती हैं पर पत्नी से उनका प्रेम अशरीरी अधिक है बजाय प्रेम के स्थूल स्वरूप के। वे पत्नी को प्रेम भी करते हैं मगर समाज जब उनसे जवाब मांगता है तो वे पत्नी का त्याग भी करते हैं।
राम हमारे संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक हैं। वे वैष्णव हैं, साक्षात विष्णु के अवतार हैं। वे उस समय की पाबंदी तोड़ते हुए खुद शिव की आराधना करते हैं और रामेश्वरम लिंगम की पूजा के लिए उस समय के सबसे बड़े शैव विद्वान दशानन रावण को आमंत्रित करते हैं। उन्हें पता है कि उनकी शिव अर्चना बिना दशानन रावण को पुरोहित बनाए पूरी नहीं होगी इसलिए राम रावण को बुलाते हैं।
रावण आता है और राम को लंका युद्घ जीतने का आशीर्वाद देता है। राम द्वेष नहीं चाहते। वे सबके प्रति उदार हैं यहाँ तक कि उस सौतेली माँ के प्रति भी जो उनके राज्याभिषेक की पूर्व संध्या पर ही उन्हें 14 साल के वनवास पर भेज देती है और अयोध्या की गद्दी अपने पुत्र भरत के लिए आरक्षित कर लेती है। लेकिन राम अपनी इस माँ कैकेयी के प्रति जरा भी निष्ठुर नहीं होते और खुद भरत को कहते हैं कि भरत माता कैकेयी को कड़वी बात न कहना। राम के विविध चरित्र हैं और वे सारे चरित्र कहीं न कहीं मर्यादा को स्थापित करने वाले हैं। संस्कृतियों के बीच समरसता लाने वाले हैं और विविधता में एकता लाने वाले हैं।
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