धर्म-जाति की राजनीति खारिज हो–नीलम महाजन सिंह.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हिंदुत्व को न ही धर्म के रूप में देखा जा सकता है और न ही इस्लामिक कट्टरता के रूप में,लेकिन चुनावों में हिंदुत्व का प्रयोग करना राजनीतिक दलों द्वारा आम आदमी से संबंधित प्रमुख मुद्दों से विचलन है। वोट के लिए धर्म व जाति का प्रयोग करने वाले दल व नेता को जनता को नकार देना चाहिए। चूंकि सभी वर्गों को संविधान का संरक्षण है, इसलिए प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए राष्ट्र पहले महत्वपूर्ण होना चाहिए, जनता के लिए रोजी रोटी का इंतजाम एजेंडे में होना चाहिए।

नागरिकों को भी धर्म व जाति की दीवार बाहर निकल कर खुद को एक भारतीय मानते हुए राष्ट्र निर्माण के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए। नीलम महाजन सिंह अब समय आ गया है कि किसी भी राजनीतिक दल के विभाजनकारी बयान को खारिज कर दिया जाए। धर्म व जाति को राजनीति में घसीटे जाने की प्रवृति पर रोक लगा दी जाए। धार्मिक और सामाजिक जाति-व्यवस्था संरचना हमेशा से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा रही है। हर देश का एक धार्मिक इतिहास होता है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।

भारत का भी है। भारत पर करीब 600 वर्षों तक बाहर से आए मुस्लिम शासकों का राज रहा तो करीब 200 वर्षों तक अंग्रेजों का शासन रहा। दोनों ने भारत को धार्मिक रूप से प्रभावित किया। यह हमारा अतीत है। 1947 के बाद से पहले से अलग भारत है। वह स्वतंत्र है, उसका अपना संविधान है, वह धर्मनिरपेक्ष है, सभी नागरिक समान हैं। पिछले 75 सालों से एक संप्रभु भारत है। यह हमारा वर्तमान है, लेकिन आज आजाद भारत में भी कुलीनतंत्र या ओलिगारकी का स्याह साया चिंता पैदा करता है। आम तौर पर एक राज्य जो एक विशेष धर्म पर चलता है, उसे ओलिगारकी के रूप में जाना जाता है।

क्या भारत की मौजूदा राजनीति इसी राह पर नहीं है? हिंदुत्व बनाम हिंदू या हमारा बनाम उसका हिंदुत्व पर बहस का क्या मतलब है? जब भारत अपने संविधान से संचालित है, जिसमें धर्म व जाति के कोई मायने नहीं हैं, तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह कुलीनतंत्र स्टाइल की राजनीति देखने को मिल रही है, वह प्रदेश के विकास, शासन-प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस व्यवस्स्था आदि एजेंडे से भटकाव नहीं है?

आज रुद्राक्ष धारण करना, भगवा वस्त्र, चंदन का तिलक, गंगा स्नान आदि का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है। ये ओलिगारकी के उदाहरण हैं। कांग्रेस कहती है; ‘राहुल गांधी जनेऊधारी हिन्दू हैं।’ कमाल है! राहुल का कैलाश मंदिर, पद्मनाभस्वामी मंदिर, सभी हिंदू वोटों को आकर्षित करने के लिए आख्यान हैं। यहां तक ​​कि इंदिरा गांधी ने भी प्रसिद्ध रुद्राक्ष की माला पहनी थी। रोमन कैथोलिक सोनिया गांधी भी हिंदू होने का दावा करती हैं। प्रियंका गांधी वाड्रा हरिद्वार जाकर गंगा में डुबकी लगाती हैं और आश्वस्त करना चाहती हैं कि हम भी हिंदू हैं।

इस कोशिश में कांग्रेस भाजपा से एक कदम आगे बढ़ जाना चाहती है। शायद इसलिए राहुल गांधी हिंदुत्व की परिभाषा अपने हिसाब से करते लगते हैं। वे अपने हिंदुत्व को भाजपा व आरएसएस के हिंदुत्व से अलग मानते हैं। इस्लामिक देश, जो कुरान के कानूनों द्वारा शासित माना जाता है, वे भी ओलिगारकी हैं। पाकिस्तान, अरब आदि उदाहरण हैं। एक तरफ पाकिस्तान लोकतंत्र के बारे में दावा करता है और दूसरी तरफ इस्लामी कानूनों का पालन करता है।

असदुद्दीन ओवैसी का एआईएमआईएम भी धर्म आधारित है तथा मुसलामनों पर ध्यान केंद्रित करता है। बसपा, सपा को भी जाति विशेष का समर्थन है। हाल ही में राजनीति में धर्म के मिश्रण के बारे में बहुत सारी बातें हुई हैं। हिंदू धर्म और हिंदुत्व को राजनेताओं द्वारा पारिभाषित किया जा रहा है। हिंदुत्व विचारधारा का राजनीतिक अर्थ है, जबकि हिंदू धर्म का धार्मिक अर्थ है। दोनों के बीच की सूक्ष्म रेखा है।

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक विट्रियोलिक बयान दिया, ‘भारत में अल्पसंख्यक धर्मों-इस्लाम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि पर हिंदुत्व के एजेंडे का उपयोग भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करते हैं।’ यदि हम प्राचीन भारत के इतिहास को लेते हैं, तो वैदिक प्रणालियों का पालन किया गया था। अगर हम द्वापर युग और त्रेता युग की बात करें, तो ज़ाहिर है वे सभी हिंदू राज्य थे! प्राचीन भारत के विघटन और दिल्ली सल्तनत के गठन के बाद, भारत में मुगलों के आगमन के साथ, इस्लाम ने प्रमुखता ली।

पूरे भारत में मस्जिदों और मदरसों का निर्माण किया गया। मुस्लिम शासकों ने क्षेत्रीय आबादी को सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था में समायोजित करने का प्रयास किया। अंग्रेजों ने भारत में ईसाई मिशनरी को बढ़ावा दिया। ऐसे तो सभी शासक धर्म व जाति का प्रयोग अपनी राजनीति के लिए करते रहे हैं। अकेला भाजपा पर हमला क्यों और फिर ऐसा क्यों है कि धर्म और व्यक्तिगत आस्था के मुद्दे चुनाव से ठीक पहले सभी राजनेताओं द्वारा प्रमुखता उठाए जाते हैं? क्या हिंदुत्व एक धर्म, विचारधारा या वोट आकर्षित करने का माध्यम है? क्या हिंदुत्व हिंदू राष्ट्रवाद का प्रमुख रूप है?

एक विचार के रूप में, हिंदुत्व शब्द को विनायक दामोदर सावरकर ने 1923 में व्यक्त किया था। अब इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा समर्थित किया जा रहा है। एक हिंदुत्व विचार की पार्टी शिवसेना से कांग्रेस का महाराष्ट्र में गठबंधन है। आज के राजनेताओं ने हिंदुत्व के मुस्लिम विरोधी पहलुओं को कम करने का प्रयास किया है व भारतीय पहचान की समावेशिता पर ज़ोर दिया जा रहा है। हिंदुत्व को समस्त भारतीयों से जोड़कर देखा जा रहा है, भारत की सांस्कृतिक पहचान से।

हिंदुत्व के समर्थकों ने हिंदुओं की धार्मिक और व्यापक सांस्कृतिक विरासत के साथ राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देने की मांग की है। हिंदुत्व की परिभाषा और उपयोग का संबंध कई अदालती मामलों का हिस्सा रहा है। 1966 में, मुख्य न्यायाधीश गजेंद्र गडकर ने यज्ञपुरुषदास (एआईआर 1966 एससी 1127) में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के लिए लिखा था कि हिंदू धर्म को पारिभाषित करना असंभव है।

अदालत ने राधाकृष्णन की इस दलील को अपनाया कि हिंदू धर्म जटिल है और आस्तिक और नास्तिक, संशयवादी और अज्ञेयवादी, सभी हिंदू हो सकते हैं। यदि वे संस्कृति और जीवन की हिंदू प्रणाली को स्वीकार करते हैं। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि हिंदू धर्म का ऐतिहासिक रूप से एक समावेशी स्वभाव रहा है और इसे व्यापक रूप से जीवन के एकरूप में वर्णित किया जा सकता है। हिंदुत्व शब्द का प्रयोग 1890 के दशक के अंत तक चंद्रनाथ बसु द्वारा किया जा रहा था, जिन्होंने बाद में बाल गंगाधर तिलक द्वारा और बाद में सावरकर की हिंदुत्व विचारधारा 1925 में नागपुर (महाराष्ट्र) में केशव बलिराम हेडगेवार तक पहुंच गई।

जवाहरलाल नेहरू कैबिनेट में शामिल रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी मानते थे कि हिंदुत्व विचाधारा हिंदू मूल्यों को बनाए रखने के लिए है न कि अन्य धार्मिक समुदायों के बहिष्कार के लिए। उन्होंने हिंदू धर्म व हिंदुत्व को एक समुदाय के बजाय एक राष्ट्रीयता के रूप में समझा। ऐसे में हिंदुत्व को न ही धर्म के रूप में देखा जा सकता है और न ही इस्लामिक कट्टरता के रूप में,लेकिन चुनावों में हिंदुत्व का प्रयोग करना राजनीतिक दलों द्वारा आम आदमी से संबंधित प्रमुख मुद्दों से विचलन है।

वोट के लिए धर्म व जाति का प्रयोग करने वाले दल व नेता को जनता को नकार देना चाहिए। चूंकि सभी वर्गों को संविधान का संरक्षण है, इसलिए प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए राष्ट्र पहले महत्वपूर्ण होना चाहिए, जनता के लिए रोजी रोटी का इंतजाम एजेंडे में होना चाहिए। नागरिकों को भी धर्म व जाति की दीवार बाहर निकल कर खुद को एक भारतीय मानते हुए राष्ट्र निर्माण के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए।

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