वेब रथों पर सवार होकर अब वैश्विक भाषा बन चुकी है हिंदी-प्रो. संजय द्विवेदी

वेब रथों पर सवार होकर अब वैश्विक भाषा बन चुकी है हिंदी-प्रो. संजय द्विवेदी

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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साहित्य और मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जनअपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी शब्दों की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है। तकनीक की क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है। वेब माध्यमों, सोशल मीडिया और स्मार्ट होते मोबाइल ने इस पूरे परिदृश्य को बदल दिया है। हिंदी अब इन्हीं वेब रथों पर की सवारी कर वैश्विक भाषा बन चुकी है।

साहित्य की बात करते ही उसकी हमारी चेतना में कई नाम गूंजते हैं जो हिंदी के नायकों में थे, यह खड़ी बोली हिंदी के खड़े होने और संभलने के दिन थे। वे जो नायक थे वे भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, प्रेमचंद हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों, माखनलाल चतुर्वेदी या माधवराव सप्रे, ये सिर्फ साहित्य के नायक नहीं थे, हिंदी समाज के भी नायक थे। इस दौर की हिंदी सिर्फ पत्रकारिता या साहित्य की हिंदी न होकर आंदोलन की भी हिंदी थी। शायद इसीलिए इस दौर के रचनाकार एक तरफ अपने साहित्य के माध्यम से एक श्रेष्ठ सृजन भी कर रहे थे तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना को जगाने का काम भी कर रहे थे।

इसी तरह इस दौर के साहित्यकार समाज सुधार और देशसेवा या भारत मुक्ति के आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। तीन मोर्चों पर एक साथ जूझती यह पीढ़ी अगर अपने समय की सब तरह की चुनौतियों से जूझकर भी अपनी एक जगह बना पाई तो इसका कारण मात्र यही था कि हिंदी तब तक सरकारी भाषा नहीं हो सकी थी। वह जन-मन और आंदोलन की भाषा थी इसलिए उसमें रचा गया साहित्य किसी तरह की खास मनःस्थिति में लिखा गया साहित्य नहीं था। वह समय हिंदी के विकास का था और उसमें रचा गया साहित्य लोगों को प्रेरित करने का काम कर रहा था। उस समय के बेहद साधारण अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया।

जबकि आज के अखबार ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह पत्रकारिता के सामने भी एक बड़ा सवाल है। क्या बात है कि जहां पहले पाठक को अपने ‘खास’ अखबार की आदत लग जाती थी। वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है। मास मीडिया के इस भटकाव का प्रभाव साहित्य पर भी देखा जा रहा है। साहित्य में भी लोकप्रिय लेखन की चर्चा शुरू हो गयी है।

हिंदी साहित्य पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि उसने आजादी के बाद अपनी धार खो दी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है। हिंदी का साहित्यिक जगत का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया, जो उसकी मूल पूंजी थे। आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी का साहित्य सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करता था।

बात अगर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी की करें तो उसने हिंदी की ताकत और ऊर्जा का विस्तार ही किया है। हिंदी साहित्य को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने और एक वैश्विक हिंदी समाज को खड़ा करने का काम नयी प्रौद्योगिकी कर रही है। इंटरनेट के अविष्कार ने इसे एक ऐसी शक्ति दी जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। वेबसाइट्स के निर्माण से ई-बुक्स का प्रचलन भी बढ़ा है और नयी पीढ़ी एक बार फिर पठनीयता की ओर लौटी है। मोबाइल इस दौर में शक्ति बनकर उभरा है। एक क्लिक से हमें दुनिया जहान की तमाम जानकारियां और साहित्य का खजाना मिल जाता है।

यह सही है उनमें चैटिंग और पोर्न साइट्स देखने वालों की भी एक बड़ी संख्या है किंतु यह मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि नई पीढ़ी आज भी ज्यादातर पाठ्य सामग्री की तलाश में इन साइट्स पर विचरण करती है। साहित्य जगत की असल चुनौती इस पीढ़ी को केंद्र में रखकर कुछ रचने और काम करने की है। तकनीक कभी भी किसी विधा की दुश्मन नहीं होती, वह उसके प्रयोगकर्ता पर निर्भर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है। नई तकनीक ने साहित्य का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति हमारी पहुंच का विस्तार भी किया है।

दुनिया की तमाम भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य और साहित्यकारों से अब हमारा रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। भारत जैसे महादेश में आज भी श्रेष्ठ साहित्य सिर्फ महानगरों तक ही रह जाता है। छोटे शहरों तक तो साहित्य की लोकप्रिय पत्रिकाओं की भी पहुंच नहीं है। ऐसे में एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात तकनीक को लेकर हो हिचक को लेकर है। यह तकनीक सही मायने निर्बल का बल है। इस तकनीक के इस्तेमाल ने एक अनजाने से लेखक को भी ताकत दी है जो अपना ब्लॉग मुफ्त में ही बनाकर, सोशल मीडिया मंचों से अपनी रचनाशीलता से दूर बैठे अपने दोस्तों को भी उससे जोड़ सकता है। भारत जैसे देश में जहां साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम है वहीं वेब पर पत्रिका का प्रकाशन सिर्फ आपकी तकनीकी दक्षता और कुछ आर्थिक संसाधनों के इंतजाम से जीवित रह सकता है।

यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पत्रिका का टिका रहना, विपणन रणनीति पर नहीं, उसकी सामग्री की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। वेबसाइट्स पर चलने वाली पत्रिकाएं अपनी गुणवत्ता से जीवित रहती हैं, जबकि प्रिंट पर छपने वाली पत्रिकाएं अपनी विपणन रणनीति और अर्थ प्रबंधन की कुशलता से ही दीर्घजीवी हो पाती हैं। सो साहित्य के अनुरागी जनों के लिए ब्लॉग जहां एक मुफ्त की जगह उपलब्ध कराता है वहीं इस माध्यम पर नियमित पत्रिका या विचार के फोरम मुफ्त चलाए जा सकते हैं। इसमें गति भी है और गुणवत्ता भी। सोशल मीडिया के तमाम मंच अभिव्यक्ति के सार्थक मंच बन गए हैं। न्यू मीडिया ने पत्राचार की संस्कृति को ई-मेल, वाट्सअप, सोशल मीडिया के जरिए लगभग खत्म तो कर दिया है पर गति बढ़ा दी है, इसे सस्ता भी कर दिया है।

सही मायने में हिंदी समाज को ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरत है जिससे वह इस माध्यम का ज्यादा से ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सके। यह प्रौद्योगिकी शायद इसीलिए निर्बल का बल भी कही जा सकती है। यह प्रौद्योगिकी उन शब्दों को मंच दे रही है जिन्हें बड़े नामों के मोह में फंसे संपादक ठुकरा रहे हैं। यह आपकी रचनाशीलता को एक आकार और वैश्विक विस्तार भी दे रही है।

सही मायने में यह प्रौद्योगिकी साहित्य के लिए चुनौती नहीं बल्कि सहयोगी की भूमिका में है। इसका सही और रचनात्मक इस्तेमाल साहित्य के वैश्विक विस्तार और संबंधों की सघनता के लिए किया जा सकता है। रचनाकार को उसके अनुभव समृद्ध बनाते हैं। हिंदी का यह बन रहा विश्व समाज किसी भी भाषा के लिए सहयोगी साबित हो सकता है। हिंदी की अपनी ताकत पूरी दुनिया में महसूसी जा रही है। हिंदी फिल्मों का वैश्विक बाजार इसका उदाहरण है। एक भाषा के तौर हिंदी का विस्तार संतोषजनक ही कहा जाएगा किंतु चिंता में डालने वाली बात यही है कि वह तेजी से बाजार की भाषा बन रही है। वह वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा तो बनी है किंतु साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वह पिछड़ रही है। इसे संभालने की जरूरत है।

साहित्य के साथ आम हिंदी भाषी समाज का बहुत रिश्ता बचा नहीं है। ऐसे में तकनीक, बाजार या जिंदगी की जद्दोजहद में सिकुड़ आए समय को दोष देना ठीक नहीं होगा। नयी तकनीक ने हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को ताकतवर ही बनाया है क्योंकि तकनीक भाषा, भेद और राज्य की सीमाओं से परे है। हमें नए मीडिया के द्वारा खोले गए अवसरों के उपयोग करने वाली पीढ़ी तैयार करना होगा।

हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य न्यू मीडिया में अपनी जगह बना सके इसके सचेतन प्रयास करने होंगे। हिंदी हर नए माध्यम के साथ चलने वाली भाषा है। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की यह ताकत ही है कि देश के सर्वाधिक बिकने वाले दस अखबारों में अंग्रेजी का कोई अखबार नहीं है। ज्यादातर टीवी चैनल हिंदी या मिली जुली हिंदी जिसे हिंग्लिश कहा जा रहा है, में अपनी बात कहने को कहने को मजबूर हैं। मेहनतकश लोगों की इस भाषा की इसी ताकत को महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद ने पहचान लिया था पर कुछ लोग जानकर भी इसे नजरंदाज करते हैं।

हिंदी में आज एक बड़ा बाजार उपलब्ध है वह साबुन, शैंपो का है, तो साहित्य का भी है। इन सारी चुनौतियों के बीच भी हिंदी साहित्य को एक नया पाठक वर्ग नसीब हुआ है, जो पढ़ने के लिए आतुर है और प्रतिक्रिया भी कर रहा है। वेब आधारित मीडिया ने इस तरह के विर्मशों के लिए मंच भी दिया है और स्पेस भी। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

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