सन्मार्ग पर चलने की राह दिखाता है सत्संग

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ज्ञान नहीं हो सकता।यह बातें उवधी में चल रहे मारुति नंदन महायज्ञ के पांचवे दिन आचार्य अरविंद त्रिपाठी उर्फ धनजी बाबा ने कही ।उन्होंने कहा कि रावण परम ज्ञानी होते हुए भी विवेक शून्य था इसलिए उसका बंधु-बांधवों के साथ वंश नष्ट हो गया। सत्संग में शामिल होने से व्यक्ति के भीतरी विकार नष्ट होते हैं। दुरात्मा भी ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को समय निकालकर श्रेष्ठ जनों की संगत में बैठकर धर्म, संस्कार, ईश भक्ति व मनुष्यता के गुणों पर चर्चा करते रहना चाहिए।

जब श्रीराम ने दशरथ नंदन के रूप में कौशिल्या की कोख से जन्म लिया तो अयोध्या के जन-जन में नित नूतन उत्साह छा गया। अयोध्यापुरी में नित नूतन महोत्सव होने लगे। अथाह अतिथियों का सैलाब अयोध्या की ओर उमड़ पड़ा। श्रीरामलला के दर्शन के लिए भोले भंडारी सहित विभिन्न देवता अवध में आए।उन्होंने कहा कि ब्रह्मा आदि देवता तो भगवान का दर्शन, स्तुति कर वापस लौट गए, किंतु शंकर जी का मन अपने आराध्य श्रीराम की शिशु क्रीड़ा की झांकी में ऐसा उलझा कि वे अवध की गलियों में विविध वेष बनाकर घूमने लगे।

कभी वे राजा दशरथ के राजद्वार पर प्रभु-गुन गाने वाले गायक के रूप में, तो कभी भिक्षा मांगने वाले साधु के रूप में उपस्थित हो जाते थे। कभी भगवान के अवतारों की कथा सुनाने के बहाने प्रकांड विद्वान बनकर राजमहल में पहुंच जाते। वे कागभुशुंडि के साथ बहुत समय तक अयोध्या की गलियों में घूम-घूमकर आनंद उठाते रहे। एक दिन शंकर जी कागभुशुंडि को बालक बनाकर और स्वयं त्रिकालदर्शी वृद्ध ज्योतिषी का वेष धारणकर शिशुओं का फलादेश बताने के बहाने अयोध्या के निवास में प्रवेश कर गए।

माता कौशल्या ने जैसे ही शिशु श्रीराम को ज्योतिषी की गोद में बिठाया तो शंकरजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। वे बालक का हाथ देखने के बहाने कभी उनके कोमल कर कमलों को सहलाते तो कभी अपनी जटाओं से उनके रक्ताभ तलवों को थपथपाते और देवताओं के लिए भी दुर्लभ उन चरण कमलों का दर्शन कर परमानंद में निमग्न हो जाते।

जब भी धरती पर भक्तों को असहाय पीड़ा और दुख होता है और भक्त ईश्वर से करुण पुकार करते हुए उसे पुकारता है तब स्वयं भगवान को भी धरती पर आना पड़ता है। उनके जीवन से आज के युवाओं प्रतिभागियों और लोगों को सीखने की जरूरत है।

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