भारतीय मुस्लिमों में बहुविवाह पर पूर्ण पाबंदी लगाने पर गंभीरता से हो विचार.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट ने ‘समान नागरिक संहिता’ लागू करने की दिशा में कदम उठाने की बात कही। कोर्ट ने इसे वक्त की मांग बताया। कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद इस मुद्दे का चर्चा में आना तय था। दरअसल, जस्टिस प्रतिभा एम सिंह की पीठ राजस्थान की मीणा जनजाति की महिला और उसके हिंदू पति की तलाक की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
मामला था कि 2012 में इस जोड़े की शादी हुई और 2015 में पति ने फैमिली कोर्ट में तलाक की याचिका दायर की। महिला का पति हिंदू विवाह कानून-1955 के मुताबिक तलाक चाहता था। लेकिन महिला का कहना था कि वह मीणा समुदाय से ताल्लुक रखती है, इसलिए उस पर हिंदू विवाह कानून लागू नहीं होता। महिला की इस दलील को मानते हुए फैमिली कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। लिहाजा, महिला के पति ने इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी। इस पर टिप्पणी करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि आधुनिक भारतीय समाज में धीरे-धीरे जाति, मत और समुदाय का भेद मिट रहा है। इस बदलाव के कारण देश के युवाओं को शादी, तलाक और उत्तराधिकार आदि के मामलों में परेशानियों से बचाने के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है।
वैसे, यह पहली बार नहीं है जब देश में समान नागरिक संहिता की वकालत कोर्ट द्वारा की गई है। वर्ष 1985 में शाह बानो मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस संहिता की जरूरत बताने के बाद देश कई बार इस चर्चा का गवाह बन चुका है। लेकिन यह शायद पहला मौका है जब इस चर्चा की वजह मुस्लिम समुदाय का कोई मामला नहीं है, अन्यथा मुस्लिमों में तीन तलाक और बहुविवाह पर हिंदुओं से अलग नियम के चलते बार-बार इस मुद्दे पर बहस हो चुकी है। हालांकि मुस्लिमों में तीन तलाक की प्रथा को 2017 में ही सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक करार दे चुका है और अब इस पर कानून भी बन चुका है। लिहाजा तीन तलाक अब कोई मुद्दा नहीं रहा। लेकिन मुस्लिमों में बहुविवाह अब भी एक मुद्दा बना हुआ है।
वैसे देश में करीब सभी समुदायों में बहुविवाह का प्रचलन रहा है। आंकड़े बताते हैं कि आजाद भारत में भी यह प्रथा विभिन्न समुदायों में रही है। वर्ष 1974 में भारत सरकार के एक सर्वे के मुताबिक तब मुस्लिमों में बहुविवाह का प्रतिशत 5.6 था और हिंदुओं में 5.8 था। लेकिन 2006 आते-आते इसमें बड़ी गिरावट देखी गई। तब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने बताया कि हिंदुओं में यह घटकर यह 1.7 फीसद रह गई। लेकिन मुस्लिमों में यह 2.5 फीसद थी।
जहां तक मुस्लिमों में बहुविवाह का सवाल है, तो इसे अक्सर धर्म से जोड़ कर देखा जाता रहा है और इस पर काफी विवाद भी हो चुका है। मुस्लिम समुदाय इस प्रथा का बचाव यह कह कर करते हैं कि मजहब ने उन्हें यह हक दिया है। लेकिन सवाल है कि क्या मजहब ने यह सहुलियत बिना शर्त के दी है? जवाब है नहीं। कुरान की एक आयत में इसका उल्लेख भी किया गया है। उसमें यह जिक्र किया गया है कि यदि कोई पुरुष एक से ज्यादा शादी करता है, तो उसे अपनी सभी पत्नियों के साथ न्याय करना होगा। लेकिन मौजूदा वक्त में देखा जाता है कि लोग धर्म की आड़ में इस सहुलियत का गलत फायदा उठाते हैं। अपनी पहली पत्नी की खुशी का ख्याल किए बिना, लोग इस व्यवस्था का दुरुपयोग करते हैं।
दूसरी ओर हमें यह भी देखना होगा कि कुरान ने ऐसी व्यवस्था क्यों दी और किन परिस्थितियों में दी? दरअसल, कुरान की यह संबंधित आयत तब अवतरित हुई, जब युद्ध में बड़ी संख्या में पुरुष मारे जा रहे थे। इसके चलते बेवा (विधवा) औरतों की तादाद तेजी से बढ़ रही थी। ऐसे में देखा गया कि विधवा औरतों के सामने अपनी बाकी जिंदगी बिताने और बच्चों के पालन-पोषण का बड़ा संकट खड़ा हो रहा था। ऐसे में अंदेशा इस बात का था कि मजबूरी में कुछ औरतें गलत कार्यो की ओर कदम बढ़ा सकती हैं। इसलिए मर्दो को एक से ज्यादा शादी की अनुमति दी गई, ताकि विधवा विवाह का रास्ता खुला रहे और विधवा औरतें नई जिंदगी शुरू कर सकें। लेकिन मौजूदा वक्त में वैसी कोई स्थिति नहीं है।
कुरान की संबंधित आयत से यह भी पता चलता है कि किसी गरीब और बेबस लड़की को सहारा देने के लिए उससे शादी कर लेनी चाहिए ताकि उसकी जिंदगी बेहतर हो सके। लेकिन आज ऐसे कितने लोग हैं जो इस नेक काम को करने की कोशिश करते हैं? किसी का सहारा बनने की नीयत से शादी करते हैं? यानी बहुविवाह उस दौर में ही प्रासंगिक था और अब इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि दुनियाभर में मुस्लिम आबादी निवास करती है। मुस्लिम देशों की संख्या 50 से भी अधिक है, लेकिन कई देशों में इस पर पाबंदी है। तुर्की और ट्यूनीशिया जैसे कई इस्लामिक देशों में बहुविवाह प्रतिबंधित है और दर्जनभर देशों में यह मुद्दा वहां की अदालतों में विचाराधीन है। कुछ देशों में इसकी इजाजत अगर है भी, तो इसके लिए पति को पत्नी से इजाजत लेना अनिवार्य किया गया है। यानी हर हालत में महिला के जीवन की सुरक्षा और उन्हें समानता का अधिकार मिलना जरूरी है। ऐसे में भारतीय मुस्लिमों में भी बहुविवाह पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए।
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