फ़िल्म – शकुंतलम
निर्माता-दिल राजू
निर्देशक – गुनाशेखर
कलाकार – सामंथा, देव मोहन, मोहन बाबू,अल्लू अरहा, गौतमी, मधु और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग – डेढ़
सामंथा रूथ प्रभु साउथ इंडस्ट्री की लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक हैं. पैन इंडिया में उन्होने अपनी पहचान पहले पुष्पा के सुपरहिट गीत ऊं अंटावा गर्ल के रूप में बनायी, फिर वेब सीरीज फैमिली मैन 2 में अपने अभिनय से सभी को अपना मुरीद ही बना लिया. फ़िल्म यशोदा में भी वह सराही गयी. आज रिलीज हुई फिल्म शकुंतलम से सामंथा की मौजूदगी पैन इंडिया में और पुख्ता होगी, ऐसी चर्चा थी, क्योंकि यह सामंथा की पहली कॉस्टयूम ड्रामा फ़िल्म थी,लेकिन यह एक बेहद कमज़ोर फ़िल्म साबित हुई है. यह फ़िल्म कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य अभिज्ञान शकुंतलम पर आधारित है, लेकिन कमज़ोर नरेटिव ने इस कहानी में ना तो नया कुछ जोड़ पायी है और ना ही पुरानी कहानी के साथ ही न्याय कर पायी है. इसके अलावा औसत अभिनय, कमज़ोर वीएफक्स और संवाद ने इस फ़िल्म को पूरी तरह से निराशाजनक अनुभव बना दिया है.
कहानी में मौलिकता का है अभाव
फ़िल्म की कहानी की बात करें यह हमारे लोक कथाओं का हिस्सा है. इस कहानी को टीवी पर कई बार दिखाया भी जा चुका है. यहां भी उसी कहानी को दोहराया गया है. राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम कहानी, जिसे दुर्वासा ऋषि के श्राप की वजह से बिछड़ जाना पड़ा. स्क्रीनप्ले पूरी तरह से प्रेडिक्टेबल है. कहानी में मौलिकता का अभाव है, जिससे यह आपको बांधे नहीं रख पाती है. फ़िल्म का स्क्रीनप्ले इतना कमज़ोर है कि वह किरदारों को भी कमजोर बना गया है. फ़िल्म का शीर्षक शकुंतला है, लेकिन शकुंतला परदे पर वह प्रभावी किरदार नहीं बन पाया है. अपने बेटे भारत को पालने के लिए वह किन मुश्किलों से जूझी इस पर मेकर्स को फोकस करना चाहिए था, ना कि कई बार दिखायी और बतायी जा चुकी कहानी पर. उस पहलू को फिल्म में बस एक दृश्य के माध्यम से बयां कर दिया गया है कि कैसे शकुंतला अपने बच्चे को जन्म देती है और उसे चार सालों तक अकेले पालती है. यह फ़िल्म मूल रूप से प्रेम कहानी है, लेकिन स्क्रीनप्ले ने प्रेम कहानी के साथ भी न्याय नहीं किया है.
अभिनय में अल्लू अरहा रह जाती हैं याद
अभिनय की बात करें तो इस फ़िल्म का चेहरा सामंथा हैं, वे एक उम्दा अभिनेत्री हैं. बेहद कमज़ोर नरेटिव वाली इस फिल्म में वह बेहद खूबसूरत लगी हैं. इमोशनल दृश्यों में उन्होने अपनी छाप छोड़ी है, लेकिन संवाद अदाएगी ने उनके किरदार को कमज़ोर कर दिया है. इस ऐतिहासिक कहानी को अपनी कमज़ोर हिंदी के साथ डब करने का रिस्क सामंथा को नहीं लेना चाहिए था. देव मोहन ने राजा दुष्यंत की भूमिका को ऐसे निभाया है, मानों जैसे हम फ़िल्म नहीं कोई नाटक देख रहे हैं. उनके बॉडी लैंग्वेज से लेकर से लेकर संवाद सभी कुछ कमज़ोर है. फिल्म में सचिन खेड़ेकर, कबीर बेदी, मधु, गौतमी, जीशु सेनगुप्ता जैसे परिचित चेहरे भी हैं,लेकिन फिल्म में उनके करने को कुछ खास नहीं था. अल्लू अरहा जरूर अपनी छोटी सी भूमिका में भी याद रह जाती हैं.
तकनीकी पक्ष में भी डिब्बा गुल
यह एक ऐतिहासिक फ़िल्म है. ऐसे में उम्मीद थी कि तकनीकी पक्ष में शानदार काम देखने को मिलेगा, लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगती है. फ़िल्म की शूटिंग पूरी तरह से क्रोमा में हुई है, लेकिन परदे पर वह विजुअल को रियलिस्टिक तरीके से सामने नहीं ला पायी है. उदाहरण के तौर फिल्म के एक गाने में पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर शकुंतला और दुष्यंत को दिखाया गया है. वह दृश्य अजीबोगरीब सा परदे पर दिखता है. ऐसे ही फिल्म के क्लाइमेक्स में बर्फ गिरते दिखाया गया है, लेकिन कलाकारों पर बर्फ नहीं पड़ रही है. महल के दृश्य भी बाहुबली की ही कॉपी बनकर ही रह गए हैं. फ़िल्म का वीएफएक्स कमज़ोर रह गया है. वीएफएक्स के साथ -साथ संवाद भी कमज़ोर कर गए हैं. जब आप एक फिल्म को पैन इंडिया रिलीज करते हैं, तो यह मेकर्स की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि भाषा पर सबसे अधिक ध्यान दें, लेकिन इस फिल्म में इसकी जमकर अनदेखी हुई है. फ़िल्म के गीत -संगीत की बात करें, तो गाने के शब्द भी यहां असरदार नहीं बन पाए हैं.
देखें या ना देखें
यह एक कमज़ोर फिल्म है, जो उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती है कुलमिलाकर सामंथा जैसी समर्थ कलाकार के साथ यह फिल्म न्याय नहीं कर पायी है.