हिंदी का सरलीकरण या हिंदी का अंग्रेजीकरण?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतवर्ष ढेर सारी भाषाओं का देश है। आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस बड़ी भाषाओं के अतिरिक्त अन्य कितनी ही बड़ी-छोटी भाषाएँ यहाँ प्रचलित हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसे लोग जो 10,000 से ज्यादा एक भाषा को बोलते हैं ऐसी 121 भाषाएँ भारत में बोली और समझी जाती हैं। पूर्वोत्तर भाषा की दृष्टि से सर्वाधिक संख्या वाला प्रदेश है। यहाँ तीन सौ से अधिक भाषाएँ हैं, हालाँकि यह आबादी की दृष्टि से देश की जनसंख्या का केवल पाँच प्रतिशत ठहरता है।

इतनी सारी भाषाओं के प्रदेश में कभी यह मांग नहीं उठी कि बंगला भाषा सरल की जाए, असमिया सरल की जाए, मिजो सरल की जाए। या फिर, दक्षिण भारत में तमिल को या तेलुगु को या मलयालम को, कन्नड़ को आसान किया जाए। मराठी, गुजराती, पंजाबी वगैरह के लिए भी यह मांग कभी नहीं उठी। तो फिर अकेली हिंदी के साथ सरलता की मांग क्यों है?

दरअसल इसकी वजह हिंदी को राजभाषा का दायित्व प्रदान करना है। राजभाषा यानी राजकाज की भाषा, सरकार के काम करने की भाषा। हिंदी भारतीय संघ की राजभाषा होगी, ऐसा संविधान में संकल्प लिया गया है। प्रजातंत्र में चूँकि जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की बनी हुई सरकार होती है इसलिए जनता की सरकार को जनता की भाषा में काम भी करना चाहिए। जब हिंदी राजभाषा बनी तो इसके प्रयोग का एक नया क्षेत्र खुला।

चूँकि हमने आजादी के बाद अंग्रेजों की शासन-व्यवस्था को विरासत में ग्रहण किया था इसलिए हमारे पास अंग्रेजी की शब्दावली, अंग्रेजी के अर्थ, अंग्रेजी की अवधारणाएँ, अंग्रेजी का ढाँचा और तौर-तरीके विरासत में मिले थे। इसलिए हिंदी में काम करने के लिए ऐसे शब्दों की जरूरत पड़ी जो हिंदी में दिखें तो सही लेकिन अंग्रेजी का ही अर्थ दें। फलस्वरूप हिंदी को राजभाषा के रूप में व्यवहार करने के लिए अंग्रेजी के समान अर्थ वाले शब्द बनाने पड़े। इन नए गढ़े गए शब्दों से, पूर्वप्रचलित शब्दों के भी अंग्रेजी के अर्थ में प्रयोग से और अंग्रेजी की तर्ज पर बनी वाक्य-रचना से भाषा में कृत्रिमता आनी स्वाभाविक थी।

ऐसे में हिंदी पर कठिन होने और हिंदी जैसी नहीं दिखने का आरोप लगने लगे। उसे ‘महाराजभाषा’, ‘फीलपाँवी हिंदी’ आदि कहकर ताने दिये जाने लगे। इसलिए हिंदी के सरलीकरण की मांग का एक संदर्भ है – यह उस हिंदी से अभिप्रेत है जिसका प्रयोग सरकार में किया जाता है। अन्यथा जनसामान्य की भाषा के रूप में हिंदी वैसे ही प्रचलित और व्यवहृत है जैसे कि कोई भी भाषा होती है। उस हिंदी को सरलीकृत करने का कोई खयाल भी किसी के मन में नहीं आता।

भाषा में कठिनता दो तरह से आती है – अगर अर्थ ऐसा हो जो अमूर्त, गंभीर एवं जटिल हो। धर्म, दर्शन, कानून आदि में ऐसे अमूर्त अवधारणापरक गंभीर अर्थ वाले शब्दों की भरमार होती है। इसलिए ये विषय भी कठिन समझे जाते हैं। दूसरी तरह से जटिलता आती है जब अर्थ तो कठिन या अमूर्त नहीं होता लेकिन उस अर्थ का वाहक शब्द ही अपरिचित या अल्पपरिचित होता है। शब्द अगर जाने हुए हों तो उनका अर्थ-बोध तुरंत होता है।

जिन शब्दों को हम बार बार देखते हैं, बार बार सुनते हैं, उनसे परिचय गहरा हो जाता है और वे आसान हो जाते हैं। राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग के लगभग छह दशकों में ऐसे कितने ही शब्द हैं जो प्रचलन में आ गए हैं और स्वाभाविक लगने लगे हैं। इनके बारे में याद करना पड़ता है कि ये तो गढ़े हुए कृत्रिम शब्द हैं। जैसे, कार्यालय, परिपत्र, ज्ञापन, आवेदन, अधिकारी, प्रबंधक, सचिव, सहायक, निरीक्षक, विभागाध्यक्ष आदि।

इन शब्दों के इनके कठिन होने की शिकायत शायद ही कोई करेगा। लेकिन जो शब्द अप्रचलित हैं या जिन्हें हमने कम व्यवहार किया है उनके बारे में मांग आ जाती है कि उनकी जगह अंग्रेजी शब्दों को ही क्यों न उठा लिया जाए।

 

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