पैदल चलकर तमिलनाडु से काशी आए छह पीढ़ी पहले के पूर्वज

पैदल चलकर तमिलनाडु से काशी आए छह पीढ़ी पहले के पूर्वज

शैक्षणिक संवाद से होगा ज्ञान और विचारों का आदान-प्रदान

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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तमिलवासियों के मन में काशी के प्रति अपार प्रेम और सांस्कृतिक धार्मिक संबंधों का इतिहास लगभग दो हजार वर्ष पुराना है। उन दिनों जब आज की तरह आवागमन के संसाधन नहीं थे, आस्था से भरपूर हृदय लिए दक्षिण भारत के लोग पैदल ही काशी और पूरे भारत के तीर्थों की यात्रा पर निकल पड़ते थे।

आज भी तमिलवाासियों के मन में यह भाव अत्यंत प्रबल है कि काशी की यात्रा और बाबा विश्वनाथ के दर्शन बिना हर तीर्थ निष्फल है। प्रत्येक दक्षिण भारतीय अपने जीवन काल में एक बार काशी का तीर्थ कर लेना अपना सौभाग्य समझता है। इसी प्रबल आस्था के भाव के चलते लघु भारत काशी में दक्षिण भारतीय परिवारों की पर्याप्त संख्या है।

केवल तमिलनाडु की बात करें तो आज भी हनुमान घाट से केदार घाट तक दर्जनों परिवार है, जो पीढ़ियों से यहां निवास करते हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कुलसचिव के सचिव रहे काशीनाथ शास्त्री का परिवार यहां के सबसे प्राचीन तमिल परिवारों में से एक है। हनुमानघाट के पास परिवार की आठवीं पीढ़ी की किलकारियां गुंजायमान हैं।

काशीनाथ शास्त्री के प्रपितामह के पितामह पं. लक्ष्मीनारायण शास्त्री तमिलनाडु के तिरुनेवेल्ली जिले के ताम्रपर्णी नदी के किनारे स्थित पत्तनमड़ई गांव के निवासी थे। वह एक रामभक्त वैष्णव थे। 1811 में जन्में अपने पुत्र का नाम उन्होंने राम रखा। राम भी पूरी तरह धार्मिक और वेद-शास्त्रों के ज्ञाता थे। उन्होंने गांव में भजन मठ स्थापित कर नियमित ग्रामीणों के साथ भजन करते थे।

युवा होने के बाद वह पत्नी और नवजात बच्चे को छाेड़कर तीर्थाटन पर निकल पड़े। पैदल ही कन्याकुमारी से कश्मीर तक सभी तीर्थ घूमते वह 12 वर्षाें की पदयात्रा के बाद अयाचक भिक्षु के रूप में काशी पहुंचे और यहीं हनुमान घाट के पास भजन मठ स्थापित कर भगवत भजन करने लगे।

मठ में उन्होंने तीर्थ के दौरान नर्मदा नदी से लाए शालिग्राम व 360 बाणलिंग को कैलाश यंत्र के रूप में स्थापित किया। कुछ वर्षों बाद जानकारी मिलने पर उनके पिता लक्ष्मीनारायण शास्त्री उनकी पत्नी और पुत्र के साथ बैलगाड़ी से काशी पहुंचे और भजन मठ में उनके साथ पूजन-अर्चन में शामिल हो गए। फिर तो भजन मठ संगीतकारों और हरिकथा वाचकों का स्थल बन गया।

काशीनाथ शास्त्री बताते हैं कि उनके परदादा रामशास्त्री के पुत्र पितामह काशीनाथ शास्त्री ने श्रीमद्भागवतकीर्तन माला समेत अनेक पुस्तकों की रचना की। वह शास्त्र, पुराण, संगीत, आयुर्वेद आदि कई विधाओं के जानकार थे। राजा विजयनगरम की सेवा में रहे। उनके पिता के राजगाेपाला शास्त्री पौरोहित्य कर्म करते थे।

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1949 में उनका निधन हो गया। उनके ताऊ आर रामकृष्ण शास्त्री भी अब नहीं रहे। उनके चचेरे भाई ओएनजीसी चेन्नई में थे, वहीं बस गए। अब यहां उनकी माता अन्नूपर्णा, दो बहनें कल्याणी व राधा तथा दो भांजे, उनकी बहू, दो पौत्रियां यहां रहती हैं। एक बेटी का विवाह बंगुलरु में हुआ है। पत्नी का बीते जून में निधन हो गया। काशीनाथ बताते हैं कि ऐसे ही श्रीकाशी दर्जनों परिवार यहां हैं जो तीन पीढ़ियों से यहां रहते हैं।

तमिल परिवारों में दादा के नाम पर रखते हैं पौत्र का नाम

काशीनाथ शास्त्री बताते हैं कि तमिल परिवारों की परंपरा है कि दादा का नाम ही पोते का नाम रखा जाता है। उसके पूर्व पिता का नाम जुड़ जाता है। ऐसा इसलिए की पीढ़ियों को अपने पूर्वजों का नाम आसानी से याद रहे।

एक माह तक चलने वाले काशी-तमिल संगमम् के आतिथ्य के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय पूरी तरह तैयार है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने  कहा, काशी-तमिल संगमम केवल एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि दो समृद्ध संस्कृतियों के बीच संवाद है। सभी लोग इसे यादगार बनाने के लिए जी जान से जुटें। कुलपति प्रो. सुधीर कुमार जैन ने कहा कि संगमम के दौरान तमिलनाडु से आ रहे विभिन्न समूहों विविध शैक्षणिक संवाद किए जाएंगे। साहित्य, विरासत, ग्रामीण परिवेश, संस्कृति आदि विषयों पर आयोजित होने वाले इन संवाद कार्यक्रमों से काशी व तमिलनाडु के विद्वानों, विशेषज्ञों व विद्यार्थियों को अपने ज्ञान व विचारों को साझा करने का अवसर प्राप्त होगा।

 

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