तो क्या आज भारत में होता लाहौर?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत को 15 अगस्त 1947 में स्वाधीनता के साथ बंटवारे का जख्म भी मिला था। भारत के कुछ हिस्सों को विभाजित कर पाकिस्तान का निर्माण किया गया था। लेखक कुलदीप नैयर ने बंटवारे पर आधारित अपनी किताब ‘स्कूप’ में बताया है कि कैसे विभाजन के समय पाकिस्तान के आज के सबसे बड़े शहरों में से एक लाहौर को भारत के हिस्से में दिया जा सकता था, लेकिन अंतत: ऐसा नहीं हुआ।
किताब के अनुसार भारत के अंतिम ब्रिटिश वायसराय और गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने कुलदीप नैयर के साथ बातचीत में कहा कि वह नहीं चाहते थे कि बंटवारा हो और वह एकीकृत भारत चाहते थे। माउंटबेटन कहते हैं कि उन्होंने विभाजन को रोकने का हरसंभव प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो पाए। उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था।
स्वंतत्रता प्रक्रिया में लाई गई तेजी
माउंटबेटन ने बताया कि बंटवारे के फैसले के बाद सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया था और दंगे शुरू हो गए थे, जिस वजह से उन्हें भारत की स्वतंत्रता प्रक्रिया में तेजी लानी पड़ी। ऐसे में स्वतंत्रता के लिए निर्धारित तारीख 6 जून 1948 से बदलकर 15 अगस्त 1947 कर दी गई। अब ब्रिटिश हुकूमत के सामने भारत-पाकिस्तान को विभाजित करने के लिए 36 दिन का समय था।
कुलदीप नैयर लिखते हैं कि दोनों देशों के बीच सीमा के बंटवारे का जिम्मा सर सिरिल रैडक्लिफ को दिया गया। दिलचस्प बात यह है कि सर रैडक्लिफ इससे पहले कभी भारत नहीं आए थे। नैयर ने बताया कि भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा खींचने के लिए कोई निश्चित नियम तय नहीं किए गए थे। सीमांकन के लिए गठित समितिओं का अध्यक्ष रैडक्लिफ को बनाया गया था, जोकि एक वकील थे।
लाहौर को भारत को दिए जाने के पक्ष में थे रैडक्लिफ
किताब के अनुसार रैडक्लिफ को सिख, हिंदू और मुस्लिम आबादी को इस तरह से विभाजित करना था कि अधिकांश हिंदू भारत में और मुस्लिम पाकिस्तान में रहें। रैडक्लिफ, जिन्हें “न्यूट्रल (तटस्थ) अंपायर”, कहा जाता था, ने 8 जुलाई, 1947 को सीमांकन का काम शुरू किया। नैयर बताते हैं कि रैडक्लिफ का आधा काम लगभग पहले ही हो चुका था,
क्योंकि 1946 में तत्कालीन वायसराय आर्चीबाल्ड वेवेल ने भांप लिया था कि आगे क्या होने वाला है और उन्होंने पद से हटने से पहले सावधानीपूर्वक वी.पी. मेनन और सर बेनेगल राऊ के साथ मिलकर एक सीमा योजना तैयार की थी। नैयर के साथ बातचीत में सिरिल रैडक्लिफ कहते हैं कि लाहौर भारत को दिया जाना चाहिए था। ऐसे में पाकिस्तानियों को उनका आभारी होना चाहिए कि फिर भी उन्होंने लाहौर पाकिस्तान को दिया।
भारत को क्यों नहीं दिया लाहौर?
रैडक्लिफ से जब पूछा गया कि उन्होंने लाहौर, जो कि उस समय उत्तर भारत का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र था, भारत को क्यों नहीं दिया? इसके जवाब में वह बताते हैं कि उन्हें जल्द ही एहसास हुआ कि भारत के पास पहले से ही कलकत्ता है, ऐसे में लाहौर, जिसमें सिख और हिंदू बहुसंख्यक हैं, को भी भारत को देने से पाकिस्तान के पास कोई बड़ा शहर नहीं बचेगा।
रैडक्लिफ ने यहां तक कहा कि वह हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों का अधिक समर्थन करते हैं। नायर ने रैडक्लिफ से पूछा कि पाकिस्तान में मुसलमानों को शिकायत है कि वह भारत के साथ जुड़े हुए हैं। इसके जवाब में रैडक्लिफ ने कहा, ‘अगर कुछ लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई हैं तो दोष राजनीतिक व्यवस्थाओं में खोजा जाना चाहिए, जिनसे मुझे कोई सरोकार नहीं है।’
बंटवारे के बाद कभी नहीं लौटे भारत
नायर ने 1971 में जब रैडक्लिफ से पूछा कि क्या वह भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा खींचने के तरीके से संतुष्ट हैं, तो उन्होंने कहा कि उनके पास जितना समय था, वह इससे बेहतर काम नहीं कर सकते थे। उन्होंने कहा कि उनके पास कोई विकल्प नहीं था और उनके पास इतना कम समय था कि वह इससे बेहतर काम नहीं कर सकते थे। रैडक्लिफ ने 14 अगस्त, 1947 को भारत छोड़ दिया और फिर वापस कभी उस देश में नहीं लौटें, जिसे उन्होंने विभाजित किया था।