होली के सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक रंग.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को रंगो का त्यौहार होली सबके लिए खुशियों व उमंगो की झोली भरकर लाता है। इस पर्व पर प्रेम और प्यार की बयार और प्रकृति का श्रृंगार देखते ही बनता है। यूं तो हमारा देश त्यौहारों का देश है। लेकिन यदि होली को त्यौहारों का त्यौहार कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रेम प्रसार का प्रतीक पर्व होली सबके मन में उत्साह, उमंग तथा पे्रम का संचार करता है। सभी नर-नारी, बच्चे-बूढ़े इस पर्व पर एक दूसरे को रंगों में रंग डालते हैं और अबीर व गुलाल उड़ाते हुए झांझ, मृदंग, मंजीरे, ढ़ोलक, डपली बजाकर हंसते, गाते तथा नाचते हैं। कहना न होगा कि इस प्रेम के पावन पर्व पर सभी ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा, जाति-पाति, छुआछूत आदि सब भेदभाव भुला दिए जाते हैं और इसी कारण सभी आपसी गिले-शिकवे भी समाप्त हो जाते हैं।
होली के अगले ही दिन फाग (दुलैहन्डी) खेला जाता है। इस दिन पूरे भारतवर्ष में यह त्यौहार पूरे शबाब पर होता है। मथुरा, वृन्दावन, गोकूल व बरसाने की होली का तो कहना ही क्या! यहां की होली तो न केवल भारतवर्ष में बल्कि पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। क्योंकि यहां पर कभी राधा-कृष्ण व गोपियां मिलकर होली खेल चुके हैं और रास रचा चुके हैं।
देशभर से लोग मथुरा में होली खेलने पहुंच जाते हैं। वृन्दावन में तो सुबह होते ही पूजा अर्चना के साथ ही होली का मनमोहक खेल शुरू हो जाता है। सभी लोग गुलाल, टेसू के फूल, केसर तथा चंदन आदि के मिश्रित रंगों से एक दूसरे को रंगते हैं, हास-परिहास करते हैं और एक दूसरे को गले लगाकर प्रेम की वर्षा करते हैं। खुशी से नाचते गाते लोगों व उड़ते अबीर, गुलाल को देखकर प्रकृति का कण-कण भी झूम उठता है।
नन्दगांव में भी होली को बड़ी उमंग व उत्साह से मनाया जाता है। यहां पर भगवान श्री कृष्ण नंद के घर यशोदा माता की गोदी में अपना बचपन बिताया था। यहां पर बरसाना आदि के पड़ौसी गांवों से भी लोग होली खेलने व यहां के मंदिरों में पूजा अर्चना करने आते हैं। खूब हुड़दंग होता है। भगवान श्री कृष्ण भी गोपियों संग यहां पर खूब हुड़दंग मचाते थे।
बरसाने की होली बड़ी अनूठी होती है। यहां पर ‘लठमार’ होली खेली जाती है। इस दिन बरसाने की स्त्रियां, नंदगांव के पुरूषों को डण्डों से पीटती हैं। पुरूष लाठियों तथा अन्य ढ़ंग से ढ़ाल बनाकर स्त्रियों के वारों को निष्फल कर उन्हें चिढ़ाते हैं। खूब हास-परिहास होता है, हुड़दंग मचता है, रंग व गुलाल से पूरा वातावरण रंगमय हो जाता है। इस अति मनमोहक दृश्य की कवि कल्पना देखिए:-
मंदिर द्वार में, हाट बाजार में
होरी को आज हुड़दंग मच्यौ है
लठ्ठ की बात करहूं का
चित्त पे प्रीत को लठ्ठ लग्यो है।
मथुरा के फालैन गांव में तो होली की पौराणिक घटना को दोहराकर यह पर्व खुशी व उल्लास के साथ मनाया जाता है। यहां पर गांव के बीच में लकड़ी, उपलों व फूंस इत्यादि से बहुत बड़ी होली जलाई जाती है और आग लगाकर भंयकर लपटों के बीच प्रहल्लाद के सकुशल बचने की कहानी खेली जाती है। इसके बाद सभी नर-नारी होली के रंगों में रंग जाते हैं। वाराणसी की होली भी बहुत चर्चित है। इतिहास बताता है कि सम्राट हर्षवर्द्धन के राज्यकाल में यहां पर होली उत्सव पूरे शबाब पर होता था। इस दिन की रंगीनियों को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इस प्रकार कलमबद्ध किया हैः-
गंग भंग दो बहने हैं,
सदा रहत शिव संग।
मुर्दा तारन गंग है,
जिंदा तारन भंग।
लखनऊ में नवाबों की होली का तो रंग ही अलग होता था। नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में तो कत्थक नृत्यों व होली की रंगीन प्रस्तुतियों से समां बंध जाता था। आज भी वहां नृत्य व भंग के दौर चलते हैं।
देश के कोने-कोने में होली उत्सव भिन्न-भिन्न ढ़ंग से मनाया जाता है। पंजाब में होली उत्सव पर होली मेले का और हिमाचल में ‘ददोध’ पौधे के पूजन का आयोजन होता है। राजस्थान के बाड़मेर जिले में होली पत्थरों से खेली जाती है। इसके अलावा पूरे राजस्थान में होली के सात दिन बाद सप्तमी को भी रंगों की होली खेली जाती है। कहीं कहीं तो होली ‘दही’ व ‘मठ्ठों’ से खेली जाती है।
महाराष्ट्र में होली के पर्व पर सुगंधित चंदन से युक्त रंग में एक दूसरे को रंग डालते हैं। कहीं कहीं पर तो समूहों में नाच-गाना भी होता है और ग्राम देवता की पूजा अर्चना भी की जाती है। मणीपुर में होली को ‘योसंग’ के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में लोग पीले वस्त्र पहनकर एक दूसरे को रंग में रंगते हैं और उसके बाद हंसते, गाते व नाचते हैं। गुजरात में तो होली उत्सव पर डांडिया नाच होता है। यहां पर तो लोग हल्दी, केसर, कुमकुम, चंदन आदि का एक-दूसरे को तिलक लगाकर बधाई भी देते हैं।
हरियाणा में होली के एक दिन बाद ‘धुलैहन्डी’ के रूप में मनाया जाता है। स्त्रियां पुरूषों को कपड़े का ‘कोलड़ा’ बनाकर मारती है और पुरूष उनके वारों से बचते हुए उन्हें रंगों से सराबोर कर डालते हैं। सभी एक दूसरे को पानी व रंगों से भिगो देते हैं। सब लोग आपसी वैरभाव को भुलाकर एक दूसरे के संग होली मनाते हैं। फागण के मस्त महीने में नई-नवेली दुल्हनों की उमंग व चाव को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। नव यौवनाएं फागण की मस्ती का खूब आनंद लेती हैं। नई नवेली दुल्हनें देवर संग फाग खेलने के लिए बड़ी उतावली रहती हैं। बानगी के तौरपर यह लोकगीत देखिए:-
लिया देवर रंग घोल कै, खेलांगे होली आज !
सिर मेरे पै चुंदड़ी सोहै, मार पिचकारी घुंघट नै छोड़ कै !
पां मेरे मं पायल सोहै, मार पिचकारी नेवरीयां नै छोड़ कै !!
लिया देवर रंग घोल कै, खेलांगे होली आज !
सचमुच नई-नवेली दुल्हन के लिए पहले फागण मास का बड़ा चाव होता है। यदि बदकिस्मती से किसी दुल्हन का पति कहीं बाहर गया हुआ होता है और फागण का मस्ती भरा मास आ जाता है तो उसे बड़ी पीड़ा होती है। इसी पीड़ा का उल्लेख इस लोकगीत में मिलता है:-
जब साजन ही परदेश गए, मस्ताना फागण क्यूं आया ?
जब सारा फागण बीत गया तै, घर मैं साजन क्यूं आया ?
प्रत्येक नई-नवेली दुल्हन चाहती है कि फागण के मस्त महीने में उसका पति उसके साथ रहे। प्रत्येक नव-दम्पति यह प्रयास करता है कि वे दोनों मिलकर फागण की मस्ती में मस्त रहें, अटखेलियां करें और आनंद-विभोर हो जाएं। जहां नई दुल्हनें पति के साथ शोख व मस्ती भरी अटखेलियां करने के लिए लालायित रहती हैं वहीं नवयुवक भी अपनी नई-नवेली दुल्हन के साथ प्यार-पे्रम के रस में सराबोर होने की बाट जोहते हैं। नवविवाहित युवक अपनी दुल्हन को फागण मास की मस्ती में इस प्रकार रोमांचित करता है:-
फागण के दिन चार री सजनी, फागण के दिन चार !
मध जोबन आया फागण मं, फागण भी आया जोबन मं !!
झाल उठैं सैं मेरे मन मं, जिनका कोई पार ना सजनी !
फागण के दिन चार री सजनी, फागण के दिन चार !!
इस प्रकार राष्ट्रीय पर्व होली समस्त राष्ट्र में पूरी श्रृद्धा, उमंग व उल्लास के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार से मनाई जाती है। होली की उमंग जाति-पाति, धर्म-मजहब, छोटा-बड़ा आदि को भंग करती है तथा सभी को पे्रम, प्यार, स्नेह के बंधन में बांधती है।
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