सत्ता की सीढ़ी बनने वाला सोशल मीडिया, अब सरकार के गले की हड्डी बन गया है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
सत्ता की सीढ़ी बनने वाला सोशल मीडिया, अब सरकार के गले की हड्डी बन गया है। एक तरफ तो कोरोना की नाकामियों के लिए फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफार्म में सरकार की खूब निंदा हो रही है। दूसरी ओर सोशल मीडिया में पॉजिटिव छवि बनाने के चक्कर में सरकारी डंडे के मनमौजी इस्तेमाल से जगहंसाई भी हो रही है।
जाति, धर्म और क्षेत्र की तरह अब सोशल मीडिया पर भी राजनीतिक ठप्पा चस्पा करना, भारतीय लोकतंत्र की अपरिपक्वता दर्शाता है। हकीकत यह है कि फेसबुक, वॉट्सएप, टि्वटर, गूगल और इंस्टाग्राम जैसी सभी कंपनियों का एकमेव लक्ष्य भारत के बड़े बाजार से खरबों रुपए मुनाफा कमाना है। सोशल मीडिया कंपनियों के गुलिवर जैसे दैत्याकार स्वरूप के आगे नेता और अफसरों का बौने होते जाना, भारत के भविष्य के लिए चिंताजनक है।
चीनी ऐप पर बैन मामले में सफलता से जाहिर है, कि सरकार के पास कानूनी शक्ति की कमी नहीं है। इसके बावजूद फेसबुक की नई प्राइवेसी पॉलिसी मामले में सरकार ने सख्त कार्रवाई करने की बजाए चिरौरी का कमजोर रास्ता क्यों अपनाया? आईटी सेल से यह कथानक भी गढ़ा गया कि 3 महीने की मियाद खत्म होने के बाद नियम नहीं मानने वाली कंपनियों को भारत से अपना बोरिया बिस्तर समेटना होगा।
करोड़ों लोगों की प्राइवेसी से खेलने और पिगासस जैसे जानलेवा सॉफ्टवेयर से जान जोखिम में डालने वाले वॉट्सएप ने अब आम जनता के कंधे पर प्राइवेसी की बंदूक रखकर एन्क्रिप्शन के खुलासे वाले नियम को अदालत में चुनौती दी है। जब ऐसे ही मामलों पर फेसबुक और वॉट्सएप की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है तो फिर दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर करना, नियमों के पालन से भागने की कोशिश ही मानी जाएगा।
1. विदेशी डिजिटल कंपनियों के अधिकारियों की भारत में संसदीय समिति, मंत्री व अफसरों से नियमित मुलाकात होती है। तो फिर ट्विटर के भारतीय प्रमुख ने दिल्ली पुलिस के सामने पेश होने से क्यों इनकार कर दिया? क्या सरकार इन कंपनियों के अनाधिकृत लोगों से मिल रही थी? या विदेशी डिजिटल कंपनियों के अधिकारी डबल रोल में भारत के क़ानून से आंख मिचौली कर रहे हैं?
2. अंग्रेजी राज के खिलाफ शुरुआती दौर में वायसराय की काउंसिल में भारतीयों के प्रतिनिधित्व और सिविल सेवा परीक्षा को भारत में आयोजित करने जैसे सांकेतिक मामलों को ही आजादी की लड़ाई मानते थे। कई दशक बाद 1929 में पहली बार पूर्ण स्वराज की बात हुई और फिर हिंदुस्तान को आजादी मिली। उसी तरह विदेशी कंपनियों के नियमन के लिए भारत में अभी तक न तो सही कानूनी व्यवस्था बनी और न ही प्रभावी रेगुलेटर बनाया गया। इसलिए डिजिटल कंपनियों की भारत के कानूनों के प्रति जवाबदेही बनाने के लिए खासा समय लग सकता है।
3. ट्विटर और फेसबुक के नए बयानों से साफ़ है कि अमेरिकी कंपनियां भारत के कमजोर कानूनी तंत्र के साथ आंख मिचौली का खेल कर रही हैं। पिछले 11 साल से चल रही तैयारियों और सुप्रीम कोर्ट के 4 साल पुराने ऐतिहासिक फैसले के बावजूद सरकार ने अब तक डेटा सुरक्षा कानून नहीं बनाया। स्पष्ट और सम्यक कानूनों के बगैर, टीवी में प्रवक्ताओं के प्रवचन, मंत्रियों की घुड़की और पुलिसिया डंडे के जोर से गाइडलाइंस या नियमों को इन कंपनियों पर लागू करना मुश्किल ही दिखता है।
4. जेबकतरे, आतंकवादी और स्मगलर सभी के खिलाफ अलग-अलग कानून के तहत मामले दर्ज होते हैं। लेकिन यदि छोटे-बड़े सभी अपराधियों के खिलाफ एक जैसी चार्जशीट फाइल हो तो फिर बड़े अपराधियों के बच निकलने का रास्ता साफ हो जाता है। सरकार द्वारा जारी नए नियमों में ओटीटी और डिजिटल मीडिया का भी घालमेल की गड़बड़ हुई है। इससे इन मामलों में अदालती हस्तक्षेप और मुकदमेबाजी बढ़ने के खतरे के साथ मामले का दुर्भाग्यपूर्ण विषयांतर भी हो सकता है।
5. सरकारी अफसरों का कहना है कि तीन महीने की समय सीमा ख़त्म होने के बाद इन नियमों का पालन नहीं करने वाली कंपनियों की इंटरमीडियरी की कानूनी सुरक्षा खत्म हो जाएगी। इंटरमीडियरी माने वह पोस्टमैन जो लोगों की चिट्ठियों को बगैर पढ़े डिलीवर करे। लेकिन इन कंपनियों के व्यापारिक मॉडल और भारी मुनाफे से साफ है कि ये इंटरमीडियरी की आड़ में वैश्विक डेटा पर कब्ज़ा करके मुनाफाखोर डिजिटल डॉन बन गई हैं। छोटे-मोटे नियमों को लागू करने के सांकेतिक प्रयास करने की बजाय, इनके भारी मुनाफे से टैक्स वसूला जाए तो डिजिटल कंपनियों की दादागिरी ख़त्म हो जाएगी।
6. इन कंपनियों पर नियम लागू करने में इच्छाशक्ति के साथ नेकनीयती का भी अभाव है। कानून से बांधने की बजाय सोशल मीडिया कंपनियों को सरकार अपने इशारे पर नचाना चाहती है। कमजोर क़ानून और बड़े सुराखों से डिजिटल कंपनियों को बच निकलने का रास्ता दिए जाने से सरकार की किरकिरी होने के साथ, देश का गौरव भी आहत होता है।
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