कुछ चमत्कारी आलोचक बिना किताब पढ़े ही आधा घंटा धाराप्रवाह बोल सकते हैं,कैसे?

कुछ चमत्कारी आलोचक बिना किताब पढ़े ही आधा घंटा धाराप्रवाह बोल सकते हैं,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

व्यंग्य शिरोमणि हरिशंकर परसाई ने किसी वैष्णव के फिसलने पर एक व्यंग्य लिखा था, ‘वैष्णव की फिसलन।’ इधर पिछले दिनों हमारी नजर अचानक एक आलोचक के फिसलने पर पड़ी, तो हमें भी परसाई की परंपरा का अनुगमन करके हिम्मत करते हुए लिखना पड़ गया, ‘आलोचक की फिसलन।’ आलोचक नटवरलाल की पोल खुल ही गई कि उसे फिसलने की बीमारी है।

जिसे देखो, वही उसके फिसलने के किस्से सुनाते रहता है। यहां तक कि आलोचक की पत्नी भी उसे कूटती-पीटती रहती है। चेतावनी भी देती रहती है कि बहुत हो गया फिसलना, लेकिन आलोचक हैं कि मानने को ही तैयार नहीं। इस बीच मालूम पड़ रहा है कि बंदा इतना तो जवानी में नहीं फिसला, जितना अब बुढ़ापे में फिसला जा रहा है।

बिना पढ़े समीक्षा करने की कला

किसी लेखक की किताब उसके पास समीक्षा के लिए आती है, तो महोदय ऐसे मुंह बनाते हैं मानों कोरोना के मरीज को काढ़ा पिलाया जा रहा हो। वहीं किसी लेखिका की किताब हाथ लग जाती है तो बांछें ही खिल जाती हैं बंदे की। सबसे बड़ी बात यह है कि नटवरलाल बिना पढ़े ही पुस्तक की महान समीक्षा करने में पारंगत है। लोग उसकी इस प्रतिभा के कायल हैं।

यह गहन शोध का विषय है कि बिना पढ़े समीक्षा करने की कला लगभग सभी आलोचक कैसे सिद्ध कर लेते हैं। एक आलोचक ने तो एक लेखिका की आने वाली पुस्तक के बारे में धांसू समीक्षा लिख मारी। सिर्फ इस आधार पर कि उसे विश्वास था कि वह इस सदी की महान कृति साबित होगी।

बिना किताब के धाराप्रवाह बोल सकते हैं

हमने कुछ ऐसे चमत्कारी आलोचक भी देखे हैं, जो किताब को हाथ में लिए बगैर ही उसके बारे में आधा घंटा धाराप्रवाह बोल सकते हैं। कमाल है न। नटवरलाल इसी गोत्र के आलोचक हैं। महोदय साहित्य जगत में एक स्त्री-विशेषज्ञ आलोचक के रूप में खास पहचान बना चुके हैं। इस कारण कोई लेखक उन्हें पुस्तक भेजने की जहमत नहीं करता।

नटवरलाल ने सुश्री की पुस्तक की समीक्षा में लिखा यह उपन्यास ‘न भूतो न भविष्यति है’

पिछले दिनों की बात है। जैसे ही नटवरलाल को सुश्री फूलकुमारी की पुस्तक ‘मैंने सिर्फ उसी से ही प्यार नहीं किया’ मिली, तो उन्होंने उसकी लंबी-चौड़ी समीक्षा लिख मारी। उसमें यहां तक लिख दिया कि यह उपन्यास ‘न भूतो न भविष्यति है’ टाइप है। हालांकि समीक्षा पढ़ने के बाद किसी को यह समझ नहीं आया कि लेखिका ने किस मुद्दे को छूने की कोशिश की है। बहरहाल किताब का कवर रोमांटिक किस्म का था। इस चक्कर में कुछ रंगीन मिजाज पाठकों ने किताब खरीद ली। चूंकि किताब किसी लेखिका की थी, इसलिए स्त्री लेखन को प्रोत्साहित करने के नाम पर कुछ मनचलों ने ऑनलाइन मंगवा भी ली। फूलकुमारी के चाहने वाले भी कम न थे। सो उन्होंने भी समीक्षा पढ़ने के बाद किताब खरीद ली।

पुस्तक के सौंदर्य पर कम, लेखिकाओं के सौंदर्य पर टिप्पणी अधिक

एक खतरनाक किस्म के पाठक ने आलोचक को फोन लगाकर पूछा, ‘आपने जिस उपन्यास की समीक्षा की है, उसका कथ्य क्या है भाई? उसे क्यों गोल कर गए?’ इस पर आलोचक ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘अरे! यह काम मैं आप जैसे पाठकों पर छोड़ देता हूं।’ कुछ सस्पेंस बना रहना चाहिए। अगर कथ्य बता दूंगा तो कोई पुस्तक ही नहीं खरीदेगा।’

पाठक खतरनाक किस्म का जीव था, इसलिए उसने फटाक से कहा, ‘लेकिन आपकी हर समीक्षा में पुस्तक के सौंदर्य पर कम, लेखिकाओं के सौंदर्य पर टिप्पणी अधिक रहती है। ऐसा क्यों?’ इस सवाल पर आलोचक भड़कते हुए बोला, ‘माइंड योर लैंग्वेज! जिसे आप लेखिका का सौंदर्य समझ रहे हैं, दरअसल वह किताब का ही सौंदर्य होता है। बेचारी लेखिका इतनी मेहनत करके कोई किताब लिखती है और अगर वह सुंदर भी है, तो उसकी सुंदरता का वर्णन करने में कोताही क्यों करना?’

पुरुष लेखक की किताब की समीक्षा क्यों नहीं

पाठक भी पूरे ताव में था। पूछ लिया, ‘अच्छा यह बताइए कि आपने आज तक किसी पुरुष लेखक की किताब की समीक्षा क्यों नहीं की? लेखिकाओं में भी सिर्फ सुंदर चेहरे ही क्यों मिलते हैं आपको कलम चलाने के लिए? इससे तो फिसलन स्वाभाविक है। आपकी यह आलोचकीय-फिसलन साहित्य की सेहत के लिए ठीक नहीं।’ इतना सुनना था कि आलोचक ने भद्दी सी गाली देते हुए फोन काट दिया। पाठक ने दोबारा लगाने की कोशिश की, पर फोन लगा ही नहीं।

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