राष्ट्रीय डाक दिवस पर विशेष:
चिट्ठिया हो तो हर कोई बांचे, भाग्य ना बांचे कोय,सजनवा बैरी हो गये हमार
श्रीनारद मीडिया, एके मिश्रा, सीवान (बिहार)
संचार क्रांति व डिजिटलाइजेशन के इस दौर ने चिट्ठियों को निगल लिया। अब चिट्ठी-पत्री का कोई नामलेवा तक नहीं रहा गया है। बच्चों और युवा पीढ़ी के लिए तो यह चिट्ठी शब्द ही पहेली जैसा है। डाकघर से आने वाली ये चिट्ठियां हमसे कोसों दूर छूट गई हैं जो कभी हमारी जिंदगी का अटूट और अभिन्न हिस्सा थी।
बच्चे खेलते थे तो पटना से चिट्ठी आयी,किसीने देखा है? अब कहना पड़ेगा कि किसीने नहीं देखा है, सुना भर है। हां स्मार्टफोन के जमाने में अब मैसेज आते हैं।अलबत्ता, डाकखाने में अब सिर्फ सरकारी दफ्तर की चिट्ठियां आती हैं या ऑनलाइन पार्सल आते हैं।वह ज़माना भी चला गया ,जब लोग कहते थे कि पहुंचते ही चिट्ठी लिखना। अब तो लोग कहते हैं कि पहुंचते ही फोन करना। चिट्ठियों की क्या अहमियत थी, ये गाने बताने के लिए काफी हैं।
‘मैंने प्यार किया’ फिल्म का यह गीत-पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे आ। फिर किशोर दा का चटपटा लेकिन मार्मिक गीत-‘डाकिया डाक लाया,डाकिया डाक लाया’ या
फिल्म तीसरी कसम का यह गीत- चिट्ठिया हो तो हर कोई बांचे,भाग्य ना बांचे कोई,सजनवा बैरी हो गये हमार’ या फिर संजय दत्त पर अभिनीत फिल्म ‘नाम’ का वह मशहूर गीत -चिट्ठी आई है,चिट्ठी आई है, बड़े दिनों के वतन से चिठ्ठी आयी है’। ये तमाम गीत जिंदगी में चिट्ठी की अहमियत और उसे पहुंचाने वाले डाकिया की जरुरत को बखूबी उजागर करते हैं।
आज के आधुनिक दौर में चिट्ठियां और डाकियों का महत्व बदला ही नहीं ,बल्कि खत्म-सा हो गया है। कल तक जो चिट्ठी कभी खुशी का तो किसी को गम का संदेश देती थी,आज बेमानी और गैरजरूरी हो गयी।
आदमी की जिंदगी में इंटरनेट की दखल या उसके बढ़ते प्रभाव ने चिट्ठी और डाकिया को हमारी नजरों से दूर कर दिया है, कल तक जिसका हम बेसब्री से इंतजार करते थे। आज उस चिट्ठी का जिक्र तक नहीं होता।चिट्ठियों के बदौलत जिस डाक विभाग का मर्तबा कुछ और था, डाकखाने रौनक थे,आज महत्वहीन हो चुके हैं।
अलबत्ता, 90 के दशक तक चिट्ठियां जिंदगी का अटूट हिस्सा थी। आज लोगों ने हाथों से चिट्ठियां लिखना छोड़ दिया है। सच तो यह है कि अब इसकी जरुरत ही नहीं है।
‘मैंने खत महबूब के नाम लिखा’, ‘ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज मत होना,तुम मेरी जिंदगी हो,तुम मेरी बंदगी हो’ ,फूल तुम्हें भेजा है खत में,खत नहीं यह मेरा दिल है’,’ खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू,कोरे कागज पज लिख दे सलाम बाबू’,’ लिखे जो खत तुझे,वो तेरी याद में’,’आपका खत मिला,आपका शुक्रिया’,’हमने सनम को खत लिखा,खत में लिखा’, ‘जाते हो परदेश पिया,जाते ही खत लिखना’,
‘मेरा खत पढ़के हैरत है सबको’ जैसे अनिगनत गाने आज भी लोगों की जुबां हैं। लेकिन अब वह खत नहीं है। दरअसल अब ई-मेल, वाट्सएप,,स्मार्टफोन, मोबाइल आदि के माध्यमों से मिनटों में लोगो में संदेशों का आदान प्रदान होने लगा है।
एक ज़माना था,जब मुहब्बत के अफसाने खत के जरीये लिखे जाते थे। प्रेमपत्र को लोग जतन से रखते थे। पढ़कर आहें भरते थे। नायिका नायक से तमाम खतूत लौटा देने की बात करती थी। उस दौर को इ-मेल, मोबाइल, वाट्सएप आदि ने छीन लिया।
एक जमाना था कि जब अपने के खत का बेसब्री से इंतजार होता था। डाकिया को देखते मन चहक जाता था। गांव में जब डाकिया डाक का थैला लेकर आता था तो बच्चे-बूढ़े सभी उसके साथ डाक घर की तरफ इस उत्सुकता से चल पड़ते थे कि उनके भी किसी परिजन की चिट्ठी आयी होगी। डाकिया जब नाम लेकर एक-एक चिट्ठी बांटना शुरू करता तो सभी लोग अपनी या अपने पड़ोसी की चिट्ठी ले लेते व उसके घर जाकर उस चिट्ठी को बड़े चाव से देते थे। उस समय पत्रों की प्रतीक्षा और पत्र मिलने की खुशी को शब्दों में बयां करना मुश्किल है।अब तो डाकिया डाक लाया जैसी आवाज़ को सुनने के लिए तरस जाते हैं। साइकिल पर सवार होकर डाकिया घंटी टुनटुनाता गांव में घुसता।
शायद चिट्ठी जैसे शब्द जिंदगी की किताब के पन्ने से फाड़कर फेंक दिये गये हैं। चिट्ठी लिखवाने और पढ़वाने जाने की बात़े तो पुरानी कहानी जैसी प्रतीत होती है। दरअसल आज डाक दिवस है। ऐसे में चिट्ठी की याद आ गयी। चिट्ठी की याद आयी तो उसे लाने वाले डाकिया की भी याद आयी।
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