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धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज की ११६वीं आविर्भाव दिवस पर विशेष

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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क:

धर्मसम्राट स्वामी करपात्री (१९०७ – १९८२) भारत के एक महान सन्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं राजनेता थे। उनका मूल नाम हरि नारायण ओझा था। वे हिन्दू दसनामी परम्परा के संन्यासी थे। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम ” हरिहरानन्द सरस्वती” था किन्तु वे “करपात्री” नाम से ही प्रसिद्ध थे क्योंकि वे अपने अंजुली का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे। उन्होने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनैतिक दल भी बनाया था। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें ‘धर्मसम्राट’ की उपाधि प्रदान की गई।

जीवनी –

स्वामी श्री का जन्म संवत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व. श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम ‘हरि नारायण’ रखा गया। स्वामी श्री 8-9 वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज हेतु घर से पलायन करते रहे। वस्तुतः 9 वर्ष की आयु में सौभाग्यवती कुमारी महादेवी जी के साथ विवाह संपन्न होने के पश्चात 16 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया। उसी वर्ष ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली। हरि नारायण से ‘ हरिहर चैतन्य ‘ बने। वे स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती के शिष्य थे। स्वामी जी की स्मरण शक्ति ‘फोटोग्राफिक’ थी, यह इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षों बाद भी बता देते थे कि ये अमुक पुस्तक के अमुक पृष्ठ पर अमुक रूप में लिखा हुआ है। उन्होंने तर्क धुरंधर मदन मोहन मालवीय जी एवं स्वामी दयानंद सरस्वती जी को भी परास्त किया था, उन्हें सरस्वती जी का वरदान था कि स्वप्न में भी उनकी वाणी शास्त्र विरूद्ध नहीं होगी। उनके लिए शास्त्र सम्मत भगवान् का स्वरूप ही ग्राह्य था।स्वामी जी वैष्णव मतों के विरूद्ध नहीं थे, बल्कि जब काशी के विद्वत्परिषद् ने भागवत्पुराण के नवम् दशम् स्कन्ध को अश्लील एवं क्षेपक कहकर निकालने का निर्णय कर लिया तब करपात्रीजी ने पूरे दो माह पर्यन्त भागवत की अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत कर सिद्ध कर दिया कि वह तो भागवत की आत्मा ही है, हाँ जब कुछ वैष्णवों ने करपात्रीजी के लिए अपने ग्रंथों में कटु शब्दों का प्रयोग किये तब उनके शास्त्रार्थ महारथी शिष्यों ने उसका उसी भाषा में उत्तर दिया। इससे उन्हें वैष्णव विरोधी समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। आज जो रामराज्य संबंधी विचार गांधी दर्शन तक में दिखाई देते हैं, धर्म संघ, रामराज्य परिषद्, राममंदिर अांदोलन, धर्म सापेक्ष राज्य, आदि सभी के मूल में स्वामी जी ही हैं। संतों के वैचारिक विरोधों के साथ ही उनमें आपसी प्रेम भी है हमें उसे नहीं भूलना चाहिए।

शिक्षा-

नैष्ठिक ब्रम्हचर्य श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्कृत अध्ययन षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत अध्ययन, श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया।

तपस्वी जीवन-

17 वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत, सन्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते। गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, घरों में भिक्षाग्रहण करनी, चौबीस घंटों में एक बार। भूमिशयन, निरावण चरण (पद) यात्रा। गंगातट नखर में प्रत्येक प्रतिपदा को धूप में एक लकड़ी की किल गाड कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या रत रहते। चौबीस घंटे व्यतीत होने पर जब सूर्य की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण “करपात्री” कहलाए। श्री विद्या में दीक्षित होने पर धर्मसम्राट का नाम षोडशानन्द नाथ पड़ा.

दण्ड ग्रहण-

24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर “अभिनवशंकर” के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर “परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज” कहलाए।

अखिल भारतीय राम राज्य परिषद-

अखिल भारतीय राम राज्य परिषद भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।

गोरक्षा आन्दोलन –

इंदिरा गांधी के लिये उस समय चुनाव जीतना बहुत मुश्किल था , करपात्री जी महाराज के आशीर्वाद से इंदिरा गांधी चुनाव जीती । इंदिरा ग़ांधी ने उनसे वादा किया था चुनाव जीतने के बाद गाय के सारे कत्ल खाने बंद हो जायेगें . जो अंग्रेजो के समय से चल रहे हैं .लेकिन इंदिरा गांधी मुसलमानों और कम्यूनिस्टों के दवाब में आकर अपने वादे से मुकर गयी थी .जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संतों इस मांग को ठुकरा दिया , जिसमे सविधान में संशोधन करके देश में गौ वंश की हत्या पर पाबन्दी लगाने की मांग की गयी थी ,तो संतों ने 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया , हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्ल की अष्टमी थी , जिसे “गोपाष्टमी” भी कहा जाता है .इस धरने में भारत साधु-समाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस आन्दोलन में चारों शंकराचार्य तथा स्वामी करपात्री जी भी जुटे थे। जैन मुनि सुशीलकुमार जी तथा सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल शालवाले और हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो॰ रामसिंह जी भी बहुत सक्रिय थे। श्री संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्‍गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे.लेकिन इंदिरा गांधी ने उन निहत्ते और शांत संतों पर पुलिस के द्वारा गोली चलवा दी , जिस से कई साधू मारे गए । इस ह्त्या कांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री ” गुलजारी लाल नंदा ” ने अपना त्याग पत्र दे दिया , और इस कांड के लिए खुद को सरकार को जिम्मेदार बताया था . लेकिन संत ” राम चन्द्र वीर ” अनशन पर डटे रहे जो 166 दिनों के बाद उनकी मौत के बाद ही समाप्त हुआ था . राम चन्द्र वीर के इस अद्वितीय और इतने लम्बे अनशन ने दुनिया के सभी रिकार्ड तोड़ दिए है । यह दुनिया की पहली ऎसी घटना थी जिसमे एक हिन्दू संत ने गौ माता की रक्षा के लिए 166 दिनों तक भूखे रह कर अपना बलिदान दिया था .

ब्रह्मलीन-

माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत 2038 (7 फरवरी 1982) को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी को पावन गोद में जल समाधी दी गई|

उन्होने वाराणसी में “धर्मसंघ” की स्थापना की। उनका अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता। वे अद्वैत दर्शन के अनुयायी एवं शिक्षक थे। सन् १९४८ में उन्होने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना की जो परम्परावादी हिन्दू विचारों का राजनैतिक दल है।

आपने हिन्दू धर्म की बहुत सेवा की। आपने अनेक अद्भुत ग्रन्थ लिखे जैसे :- वेदार्थ पारिजात, रामायण मीमांसा, विचार पीयूष, मार्क्सवाद और रामराज्य आदि। आपके ग्रंथो में भारतीय परंपरा का बड़ा ही अद्भुत व् प्रामाणिक अनुभव प्राप्त होता है। आप ने सदैव ही विशुद्ध भारतीय दर्शन को बड़ी दृढ़ता से प्रस्तुत किया है।

धर्मसम्राट के कुछ महत्पूर्ण उपदेश –

दुस्त्यज दुर्व्यसन एवं पाशविकी चेष्टाओं को दूर करने के लिए दुस्त्यज धर्मनिष्ठा की अपेक्षा होती है और फिर उस दुस्त्यज धर्मनिष्ठा के त्याग के लिये दुस्त्यज ब्रह्मनिष्ठा या भगवद् अनुराग की अपेक्षा होती है।
हमें चमत्कार , सिद्धि या शान्ति आदि गुणों से मोहित नहीं होना है । हमें वेद- पुराणों के अनुसार चलना होगा चाहे उसमें कमियाँ ही क्यों न दीखें । यह वैदिकों का धर्म है ।
भावुक भक्तों और ब्रह्मवादियों को ही भगवत्प्राप्ति हो सकती है ।
कर्मणा वर्ण व्यवस्था मानने पर दिन भर में ही अनेक बार वर्णन बदलते रहेंगे। फिर व्यवस्था क्या होगी ? अतः उपनयन ,वेदाध्ययन, अग्निहोत्र आदि कर्म का अनुष्ठान भोजन विवाह आदि सभी सांस्कृतिक कर्म जन्मना ब्राम्हण आदि के आपस में ही हो सकते हैं । जन्मना ब्राह्मण और कर्मणा मुसलमान ब्राम्हण आदमी भोजन विवाह आदि संबंध तथा जन्मना वर्णों से भिन्न लोगों का उपनयन ,अग्निहोत्र आदि कर्मों का अधिकार सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है ।

साधन भक्ति के प्रभाव से मनुष्य क्या नहीं कर सकता, अर्थात् सब कुछ कर सकता है। विशुद्ध भक्ति और भगवच्चरणारविन्द में उत्कट प्रेम होने पर मनुष्य में दैवी ऐश्वर्य प्रकट होने लगता है। जो व्यक्ति केवल परमेश्वर को ही अपना सर्वस्व (सर्वेसर्वा) समझता है, वह असम्भव से असम्भव कार्य को सम्भव कर देता है।
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः । नश्वरं गृह्यमाणं तं विद्धि मायामनोमयम् ।। (श्रीमद्भागवत 11.7.7) — यह जगत् क्या है ? यह जगत् मन का विलास है , सारा विश्व-प्रपञ्च मनोमात्र है । ” हे उद्धव ! इस जगत् में जो कुछ मन से सोचा जाता है , वाणी से कहा जाता है , नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है वह सब नाशवान है । स्वप्न की तरह मन का विलास है , माया मात्र है , ऐसा समझो । ” मनोदृश्यमिदं द्वैतं यत्किञ्चित्सचराचरम् । मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते ।। (माण्डूक्य कारिका , 3.31) सर्वं मन इति प्रतिज्ञा । तद्भावेभावात्तदभावेSभावात् , इति अन्वय-व्यतिरेकलक्षणमनुमानम् ।। ( शाङ्करभाष्य ) विमतं मनोमात्रं तद्भावे नियतभावत्वात् , यथा मृद्भावे नियतभावो मृन्मात्रो घटादिः ।। ( आनन्दगिरि ) — ” जाग्रत् अवस्था में , स्वप्नावस्था में प्रपञ्च का उपलम्भ ( उपलब्धि ) होता है । सुषुप्ति और समाधि मे प्रपञ्च का उपलम्भ नहीं होता । इसका कारण क्या है ? जाग्रत् – स्वप्न में मन स्पन्दित होता है , कलना युक्त होता है , ग्राह्य-ग्राहक भाव को प्राप्त होता है । जब कि सुषुप्ति-समाधि में कलना युक्त नहीं होता ,ग्राह्य ग्राहक भाव को प्राप्त नहीं होता । सुषुप्ति में मन सुप्त – विलीन हो जाता है और समाधि में विस्मृत । इससे सिद्ध होता है कि सारा जगत् मन का विलास है ।

“एक दूसरे पर अनन्य प्रीती करनेवाले दो मालिकों के नौकर यदि एक दूसरे के स्वामी की निंदा करें तो वह दोनों जैसे स्वामी द्रोही कहे जाते हैं । वैसे ही एक दूसरे के आत्मा और एक-दूसरे के ध्यान में निमग्न माधव श्री विष्णु और श्री शिव की निंदा करने वाले स्वामी द्रोही है ।”

श्रीआद्यशंकराचार्यजी ने कहा है — अस्ति न खलु कश्चिदुपापायः सर्वलोकपरितोषकरो यः | सबको संतुष्ट कर पाना संभव नहीं है अतः स्वयं के और सबके हित के अविरुद्ध तथा अनुरूप आचरण निःशंक होकर करते रहना चाहिए सबको संतुष्ट करने के व्यामोह में स्व – पर हित से विमुख नहीं होना चाहिए | स्व – पर हित के अविरुद्ध और अनुकूल प्रिय का ध्यान भी अवश्य रखना चाहिए .

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