चरखे पर कताई,कई मायनों में नए अनुभव–आशीष कुमार,संचालक,जीविका आश्रम

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Talking with Tradition

इंद्राणा गांव का यह आश्रमनुमा घर गांव अपनी संस्कृति को सहेजने और संवारने में जुटा है

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

इस बार की पुणे यात्रा कई मायनों में नए अनुभव लेकर आई। चाहे वह गत वर्ष पद्मश्री सम्मान से नवाजे गए एवं गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी को अपना गुरु मानने वाले श्री गिरीश प्रभुणे जी से उनके समरसता गुरुकुलम में आत्मिक सत्संग हो, या फिर स्कूल और कॉलेज के सहपाठी और मित्र सौरभ मुलमुळे और अपने ममेरे भाइयों से कई वर्षों बाद की मुलाकात हो, या फिर बड़ी सावधानी और सलीके से तराशी गई संगोष्ठी ‘Talking with Tradition’ में भागीदारी हो, सब कुछ विशेष ही रहा।

संगोष्ठी के दौरान भी ‘लंगा और मंहगणियार’ लोगों से मिलकर संगीत में अभी तक चली आ रही ‘जजमानी व्यवयस्था’ से परिचय, सचिन की एक जुनून भरी कपास कथा का प्रत्यक्ष रसास्वादन, मलवण के युवा कुणाल जोशी के साथ मूर्तिकला और संगीत की एक अनूठी यात्रा, और फिर सुबह सात बजे से चलने वाले सत्र में होने वाली कताई, सभी कुछ अपने आप में अनूठा ही रहा ।

इन सब में से, गाँधी जी द्वारा जेल में रहते समय बनाए गए पेटी चरखा पर सूत कातने का अनुभव कुछ अलग ही रहा। पुणे के माधव सहस्तरबुद्धे जी एवं दिल्ली के सचिन जी के मार्गदर्शन में जल्द ही यह काम पकड़ में आ गया। मन को एक शारीरिक गतिविधि के साथ लगाकर साधने का यह बहुत ही प्रभावकारी माध्यम समझ में आया। अब शीघ्र ही इसके नियमित अभ्यास की दिशा में बढ़ने का प्रयास रहेगा।

इंद्राना एवं जबलपुर के इच्छुक लोगों के लिए इसे जीविका आश्रम में भी आरम्भ किया जा सकता है।

क्या है जीविका आश्रम?

जबलपुर से 30 किलोमीटर दूर बसे इंद्राणा गांव का एक आश्रमनुमा घर गांव की संस्कृति को सहेजने और संवारने में जुटा है। गांव में शहर बसाने वाली सोच के विपरीत इस आश्रम को साढ़े तीन एकड़ में ग्रामीण संस्कृति के मॉडल में बदला गया है। यही वजह है कि दूर-दूर से युवा, बुद्धिजीवी यहां ग्रामीण समझने और अपने जीवन में उतारने के तौर-तरीकों को समझने पहुंचते हैं। यह है जीविका आश्रम, जहां गुजरे जमाने की तरह ही मिट्टी के चूल्हे में खाना पकाना, कांसे, पीतल आदि धातु के बर्तनों में भोजन, मिट्टी के बने घरों में रहने का जीवंत अहसास कराया जाता है।

तीन ओर से पहाड़ों से घिरे इस जीविका आश्रम की नींव आशीष कुमार गुप्ता ने रखी। भारतीय संस्कृति से उनके मोह ने ही उन्हें शहर छोड़कर गांव में बसने प्रेरित किया। इन दिनों वे अपने इसी आश्रम की वजह से चर्चा में है। बीते 21 नवंबर को दिल्‍ली की संत ईश्वर फाउंडेशन नामक संस्था ने उन्‍हें सम्मानित किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक डा. मोहन भागवत ने यह सम्मान दिया। इसके बाद से इस आश्रम की ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गई है।

हरियाली से घिरे इस आश्रम में आशीष गुप्ता परिवार के साथ रहते हैं। आश्रम पूरी तरह से ग्रामीण विरासत को सहेज रहा है। कांक्रीट की जगह ईंट और मिट्टी और बांस-बल्लियों का उपयोग हुआ है। सिर्फ जरूरत के लिए यहां बिजली है लेकिन मनोरंजन के लिए टीवी यहां आवश्‍यक नहीं समझी गई। फ्रिज और वाशिंग मशीन जैसे उपकरण भी नहीं हैं। हर किसी को अपनी दिनचर्या से लेकर सारे काम खुद करने होते हैं। जैविक तरीकों से सब्जियां उगाई जाती हैं। खाने-पीने के जो बर्तन उपयोग हो रहे हैं, वे सामान्य तौर पर चलन से बाहर हो चुके कांसे, पीतल और तांबे के हैं। चूल्हे में भोजन पकाने के लिए भी इन्हीं बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर आसन लगाकर ही भोजन होता है। इससे पहले वैदिक मंत्रों का उच्चारण अनिवार्य है।

पुरानी वस्‍तुओं का संग्रहालय

आशीष के अनुसार, गांव में आधुनिकता की चलन ऐसा है कि मजबूत और नायाब चीजों को ग्रामीण कचरा समझकर हटा रहे हैं। उसकी जगह बेकार के सामान से घर भर रहे हैं। घरों की चौखट और दरवाजे जो मजबूत लकड़ी केऔर नक्काशीदार होते थे, उनकी जगह प्लाई के दरवाजे लगा रहे हैं। ऐसे लोगों से वो दरवाजे, बर्तन, बैलगाड़ी या अन्य सामग्री जुटा लेते हैं और उसे अपने संग्रहालय में जगह देते हैं।

इनके आश्रम के हर दरवाजे की अपनी कहानी है। आशीष का दावा है कि यहां संग्रहालय में लगा दरवाजा करीब 250 साल पुराना है। किसी ने इसे निकालकर कचरे की तरह फेंक दिया था। आशीष ने दरवाजे को रंगरोगन कर जब उसे चौखट पर लगाया तो देखने वाले उसकी खूबसूरती और नक्काशी देखकर हैरान रह जाते हैं। संग्रहालय में गांव के प्राचीन चूल्हे, पत्थर के खलबट्टे, सिल, चक्‍की, लालटेन जैसे कई सामान हैं जो आमतौर पर नजर नहीं आते।

स्थानीय व्‍यवसाय को बढ़ावा

अाशीष यहां यहां स्थानीय व्यवसाय को बढ़ावा देने पर जोर देते हैं। यहां ईंट और बांस का सजावटी व उपयोगी सामान बनाने जैसे कामों का प्रशिक्षण दिया जाता है। आश्रम देखने आने वाले बांस की आकर्षक कलाकारी से निर्मित सामग्री खरीद सकते हैं। आशीष बताते हैं कि आश्रम में आकर रहने वाले अपनी क्षमता के अनुरूप सहयोग देते हैं, इसी के जरिए आश्रम के संचालन होता है।

शहर छोड़ा, गांव में बसे

आश्रम के संचालक आशीष गुप्ता ने जबलपुर साइंस कालेज से स्नातक की उपाधि लेने के बाद ग्रामीण प्रबंधन पर डिप्लोमा किया है। इससे पहले वो वित्तीय ऋण देने वाली एक कंपनी में काम करते थे। इसी दौरान उनकी भेंट तेलंगाना के अदिलाबाद जिले में प्राचीन भारतीय संस्‍कृति को संरक्षित करने में जुटे गुरु रविंद्र शर्मा से हुई। यहीं से उनके जीवन की धारा बदल गई। नौकरी छोड़ी और मध्‍य प्रदेश के जबलपुर जिला मुख्‍यालय के पास इंद्राणा में 2015 में उन्होंने जगह तलाशी और आश्रम निर्माण किया। आशीष की धर्मपत्नी कहती हैं कि यहां टीवी, फ्रिज जैसी दैनिक आवश्यकताओं के बिना रहना मुश्किल लग रहा था लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। आश्रम में आने वाले लोगों के बीच दिन कब बीत जाता है, पता ही नहीं लगता है।

युवा पी‍ढ़ी के आकर्षण का केंद्र है यह आश्रम

इस आश्रम में ग्रामीण प्रबंधन के संरक्षण के लिए हुए काम को देखने और शोध करने के लिए युवा पीढ़ी भी पहुंचती है। ऐसी ही एक युवा टोली से अाश्रम में मुलाकात हुई। इनमें मध्‍य प्रदेश के सागर की शैव्या पाठक भी थीं। शैव्या यहां मिट्टी से फर्श बनाने का प्रशिक्षण लेने आई हैं। दर्शनशास्त्र से स्नातकोत्तर शैव्या को इंटरनेट और परिचितों से आश्रम की जानकारी मिली। वे खुद दूसरे साथियों के साथ मिट्टी को कूटकर बारीक बनाते हुए दिखीं। उन्‍होंने फर्श बनाने के लिए गीली मिट्टी में भूसे को पैरों की मदद से मिलाया। यह बेहद मेहनतभरा काम हर कोई मस्ती के साथ कर रहा था। फिर मिट्टी से फर्श निर्माण में सब जुट गए।

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