सुदृढ़ आजीविका, सामर्थ्य व अच्छे मित्र मानसिक रोगों से बचाते हैं–डॉ अनुपम आदित्य
विश्व स्वास्थ्य दिवस पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
शोध से यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो चुका है कि सामाजिक प्रतिकूलता खराब मानसिक स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण कारक है। बचपन में गरीबी, प्रतिकूल परिस्थतियों और हिंसा के वातावरण में जीवन-यापन मानसिक रोगों की शुरुआत के प्रमुख जोखिम हैं| शिक्षा में कमी भी एक बड़ा जोखिम है| इसके कारण रोजगार में कमी और आय का नुकसान होता है| अशिक्षित रहने से कमजोर आर्थिक स्थिति मानसिक रोगों का एक प्रमुख हेतु है (द लैंसेट, 392:1553-1598, 2018)|
आयुर्वेद में इसे आप जीवन, धन और उत्थान की इच्छाओं और उससे जुड़े अवसरों की प्राप्ति न हो पाने से उत्पन्न भय से जोड़ सकते हैं (च.सू.11.3-6)| भय मानसिक रोगों का बीज है। चूंकि असमर्थता भयकारी होती है (असर्मथता भयकराणां श्रेष्ठम्| च.सू. 25.40), अतः अपने आपको आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय रूप से सक्षम बनाये बिना मानसिक रोगों से बचाव नहीं हो सकता। सामर्थ्य तभी ठीक कही जाती है जब आजीविका दुरुस्त हो| और आजीविका तभी दुरुस्त मानी जाती है जब आजीविका से जुड़ी सभी पूंजियों की स्थिति उत्तम हो|
आजीविका को समग्र रूप से सुदृढ़ करने के लिये वित्तीय पूँजी (धनैषणा, धन-संपत्ति आदि), भौतिक पूँजी (धनैषणा, मकान, वाहन आदि), प्राकृतिक पूँजी (धनैषणा, खेत-खलिहान, जल, जमीन, बाग़-बगीचे आदि), सामजिक पूँजी (सामाजिक सद्वृत्त, आपसी रिश्ते, मेलजोल की प्रगाढ़ता, मित्रता आदि), मानव पूँजी (प्राणैषणा, शिक्षा, ज्ञान, कौशल, स्वास्थ्य आदि), और आध्यात्मिक पूंजी (परलोकैषणा, सद्वृत्त, आचार रसायन) को बढ़ाते रहने का निरंतर जीवन भर ठोस प्रयत्न आवश्यक है। इससे सामर्थ्य में बढ़ोत्तरी, असमर्थता में कमी और परिणामस्वरूप भय नष्ट होगा। भय को नष्ट करना मानसिक रोगों का सबसे बड़ा निदान-परिवर्जन है।
यदि आप संत ही न बन गये हों तो धनविहीन लम्बा जीवन किसी काम का नहीं है| जीवन में आजीविका और धन प्राप्ति का प्रयास न करना स्वयं में बहुत भारी ऋणात्मक कार्य है (च.सू.11.3-6): न ह्यतः पापात् पापीयोऽस्तियदनुपकरणस्य दीर्घमायुः| सुदृढ़ आजीविका प्रबंधन में आचार रसायन और सद्वृत्त का ठोस योगदान रहता है| इसके साथ ही प्राण बढ़ाने वाले कारकों में सबसे श्रेष्ठ अहिंसा, बलवर्धन करने वालों में वीर्य (जोश, बहादुरी), बृंहण या वृद्धि करने वालों कारकों में विद्या या समुचित शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल, समृद्धि करने वालों में इंद्रियों पर विजय या आत्म-नियंत्रण, मन को प्रसन्न करने वाले कारकों में तत्वज्ञान या सच्चाई का ज्ञान, और मार्गों में ब्रह्मचर्य का प्रयत्न करने वाले व्यक्ति की आजीविका सदैव सुदृढ़ होती जाती है (च.सू.30.15): तत्राहिंसा प्राणिनां प्राणवर्धनानामुत्कृष्टतमं, वीर्यं बलवर्धनानां, विद्या बृंहणानाम्, इन्द्रियजयो नन्दनानां, तत्त्वावबोधोहर्षणानां, ब्रह्मचर्यमयनानामिति; एवमायुर्वेदविदो मन्यन्ते||
महर्षि चरक द्वारा निर्दिष्ट आहार, विहार, और आचार रसायन की युक्तियुक्त त्रिस्तरीय व्यूहरचना के माध्यम से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य सम्हालने का मूलमन्त्र देखिये (च.शा., 2.46-47): नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः। दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।। मतिर्वचः कर्म सुखानुबन्धं सत्त्वं विधेयं विशदा च बुद्धिः। ज्ञानं तपस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोगाः।।
तात्पर्य यह है कि हितकर भोजन व जीवन-शैली, समीक्षात्मक दृष्टिकोण, लोभ-लालच, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि विषय-विकारों से मुक्त, उदार और दानी, समत्व-युक्त, सत्यनिष्ठ, क्षमावान, और महान लोगों के प्रति सेवाभावी व्यक्ति निरोगी रहता है। इसी प्रकार सुखदायी मति, बातचीत और कार्य वाले, सच्चाई-युक्त-अनुशासित, विशाल या निर्मल बुद्धि-युक्त, ज्ञान, तप (शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति हेतु आत्म-नियंत्रण) एवं योग (चित्त की वृत्तियों के निरोध द्वारा आत्मस्थ होने का अनुशासन) में तत्पर व्यक्ति भी रोगों में नहीं फंसता।
समीक्षात्मक दृष्टिकोण रखते हुये कार्य संपादन एवं जीवनयापन करना; राग, द्वैष, लोभ, मोह, शोक आदि से दूर रहना; सदैव उदार रहते हुये लोगों की मदद, उपकार एवं दान करते रहना; सफलता-असफलता, सुख-दुख या लाभ-हानि की दशा में समत्व की स्थति में रहना; सत्यनिष्ठ रहते हुये परिवार एवं समाज के साथ व्यवहार करना उत्तम स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है। लोगों से परिस्थितिवश त्रुटियाँ संभाव्य हैं। ऐसी दशा में क्षमावान रहना और क्षमा करते रहना मन-मस्तिष्क के बोझ को दूर करता रहता है।
ऐसे व्यक्तियों जिनके शब्द स्वयं ही प्रमाण हों, अर्थात् जिनका कहना सब लोग मानते हों या जो अपने से वरिष्ठ हों, उन सबके प्रति सद्भावी रहना स्वास्थ्य के लिये हितकर होता है। अपना मन, बातचीत और कार्य-व्यवहार सुखकारी रखना चाहिये। विशाल दृष्टिकोण रखना चाहिये। सीखने-समझने, आत्म-नियंत्रित रहने एवं योग में तत्पर रहना चाहिये। व्यायाम, योग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान इत्यादि प्रतिदिन करना बहुत उपयोगी है। आंख, नाक, कान, जीभ व चमड़ी मन के नियंत्रण हों तो मानसिक ही क्या कोई रोग नहीं होते (च.शा., 2.43)।
मित्रता उन्ही लोगों के साथ करें जो आपकी सामाजिक पूंजी को बढ़ाने में सक्षम हों (च.सू.7.58-59): बुद्धिविद्यावयःशीलधैर्यस्मृतिसमाधिभिः| वृद्धोपसेविनो वृद्धाः स्वभावज्ञा गतव्यथाः|| सुमुखाः सर्वभूतानां प्रशान्ताः शंसितव्रताः| सेव्याः सन्मार्गवक्तारः पुण्यश्रवणदर्शनाः|| बुद्धि, विद्या, आयु, शील, धैर्य, स्मरणशक्ति और समाधि (असंभव या असाध्य कार्य करने के लिये कठिनाइयों में भी धैर्य के साथ लगे रहना) में कुशल, बड़ों की सेवा करने वाले, लोगों के स्वभाव को समझने की क्षमता रखने वाले, शारीरिक एवं मानसिक व्यथा से मुक्त, प्रसन्न मुख वाले, सबको शांत करने वाले, कहना मानने वाले, सही रास्ते में चलने की सलाह देने वाले, सुनने और देखना में कल्याणकारी लोगों का साथ करना ही उचित है|
अहंकार को एक विषम मानसिक-अग्नि के रूप में मानना चाहिये। इस विषमता का निदान-परिवर्जन या चिकित्सा युक्ति-व्यपाश्रय द्वारा नहीं बल्कि सत्वावजय द्वारा ही संभव है। चिकित्सा के अभाव में अंततः यह अहंकारी के दोष, धातु और मल जो शरीर के मूल हैं, को भोज्य बनाकर आयु का नाश करता है। अहंकारी के अहंकार का पोषण या वृद्धि स्वयं या अन्य अहंकारी का अहंकार ही करता है। सत्त्वावजय के द्वारा प्राप्त होने वाली विनम्रता ही अहंकार ह्रास कर सकती है। चूंकि अहंकार अंतःउद्भूत है और अहंकारवश अन्य की बात सुनना या मानना मुश्किल होता है, अतः सत्त्वावजय ही लाभदायक है। अहंकार से दूर रहना भी मानसिक रोगों का निदान-परिवर्जन है।
स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा के लिये आयुर्वेद एकीकृत किन्तु बहु-आयामी और वैयक्तिक बचाव रणनीति का जनक है| इस उद्देश्य की पूर्ति आहार, विहार, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, पंचकर्म, रसायन-वाजीकर और औषधि की एकीकृत और बहु-आयामी व्यवस्था से संपन्न होती है| अगले सप्ताह मानसिक रोगों से बचाव के इन बिन्दुओं पर चर्चा करेंगे| तब तक आप अपनी सामर्थ्य बढ़ाइये, सद्वृत्त पालन कीजिये और अच्छे मित्र बनाइये और स्वस्थ रहिये|
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