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भेदभाव की रूढ़ी परंपरा को सदियों से मिटाता लंगर,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

भेदभाव की रूढ़ी परंपरा को सदियों से मिटाता लंगर,कैसे?

भेदभाव की रूढ़ी परंपरा को सदियों से मिटाता लंगर,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लंगर यानी कि ऊंच-नीच, जात-पात, आयु-वर्ग की परिधियों को तोड़ते हुए पेट भरने की परंपरा। लंगर न केवल भूख मिटाता है बल्कि भेदभाव की संस्कृति को भी सदियों से मिटा रहा है। लंगर प्रथा की शुरुआत अगर गुरुद्वारों के साथ ही कही जाए तो गलत नहीं होगी। गुरु नानक देव के आदेशों और आदर्शों का पालन करते हुए लोगों ने लंगर का क्रम टूटने नहीं दिया। आज गुरुद्वारे में चलने वाले लंगर में बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं।

बीस रुपये से हुई लंगर की शुरुआत

इसकी शुरुआत करने वाले पहले सिख गुरु नानक देव थे। कहा जाता है कि उनकी पिता जी ने उन्हें व्यवसाय शुरु करने के लिए बीस रुपये दिए, नानक देव ने देखा कि रास्ते में कुछ भिखारी भूखे-प्यासे तड़प रहे थे। ऐसे में उन्होंने उन पैसों से उन्हें भोजन करवा दिया। घर लौटे तो पिता जी ने पूछा कि लाभ कमानेको भेजा था, क्या लेकर लौटे। उन्होंने तब कहा कि लोगों की सच्ची सेवा ही सच्चा लाभ है।

उन्होंने एक नारा भी दिया था ‘किरत करो, वंड छको’ यानि काम करो और खाओ। खालसा कालेज की पूर्व प्राचार्य और इंटरनेशनल सेंटर फार सिख स्टडीज की निदेशक हरबंस कौर सागू का कहना है कि लंगर एक ऐसी संस्था है जो हर गुरुद्वारे से जुड़ी है। लंगर के बिना कोई गुरुद्वारा नहीं होता। जागो के महासचिव परमिंदर पाल सिंह का कहना है कि दिल्ली के बंगला साहिब से लेकर मोतीबाग तक के गुरुद्वारों में लंगर की प्रथा आज से नहीं, आदि से है।

दिल्ली के गुरुद्वारे

देह्लीज कर्ली टेल्स के लेखक आरवी स्मिथ लिखते हैं कि इंटैक की लिस्ट में केवल चार गुरुद्वारे हैं लेकिन सिख गुरुद्वारा कमेटी के अनुसार दस गुरुद्वारे हैं। दिल्ली के गुरुद्वारों की पहचान 1783 में बाबा बघेल सिंह ने की थी। जब उन्होंने दिल्ली पर हमला किया था और लाल किले तक पहुंच गए थे, उसके बाद शाह आलम के साथ समझौता किया था। उस समझौते में उन्होंने गद्दी की लालसा नहीं दिखाी बल्कि एक मांग रखी कि जहां-जहां गुरु साहब आए थे, उन स्थानों पर पहचान करके वे गुरुद्वारे बनाना चाहते हैं।

दिल्ली फतह के बाद उन्होंने अपनी सारी सेना वापस लौटा दी और कुछ सैनिकों के साथ यहां के उन स्थलों की तलाश करने में लग गए जहां गुरु नानक देव आए थे। एक के बाद एक गुरुद्वारों की पहचान की और सारे स्थानों पर छोटा-मोटा गुरुद्वारा जरूर बना दिया। जीतने के बाद, समझौते के बाद भी गुरुद्वारे बनवाने का काम इतना आसान न था। इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा था। खास तौर पर सीसगंज गुरुद्वारा बनवाने में बहुत परेशानियों का समाना करना पड़ा। वहां एक मस्जिद थी जो आज भी है। ऐसे में लोगों ने इसका विरोध किया।

वहां एक बुजुर्ग महिला थी, उसने सलाह दी कि जहां गुरु तेग बहादुर का बलिदान हुआ था उस स्थान को उसने पानी से धोया और कहा कि पहले उस प्लैटफार्म को बनाया जाए और मस्जिद और गुरुद्वारा थोड़ी-थोड़ी जगह छोड़कर बनाए जाएं।

गुरु द्वारा बंगला साहिब

गुरुद्वारा बंगला साहिब असल में कभी सवाई राजा जयसिंह का महल हुआ करता था। यहीं पर बालक गुरु हरकिशन की मृत्यु (14 मार्च 1664) में हो गई ती। उस समय औरंगजेब का शासन था लेकिन वह बहुत ज्यादा समय तक नहीं रहा। बाद में यह महल राजा जयसिंह द्वितीय को मिल गया। सिखों ने इसपर पहले से अपनी दावेदारी की घोषणा कि थी। अंत में उन्होंने यह स्थान उन्हें दे दिया और गुरुद्वारा बंगला साहिब बना।

गुरु नानक देव ने यहां भी शुरू किया था लंगर

राणा प्रताब बाग, जीटी रोड स्थित नानक प्याऊ गुरुद्वारा सबसे पुराना गुरुद्वारा है। इतिहासकार आरवी स्मिथ ने पुस्तक देह्लीज कर्ली टेल्स में लिखा है कि गुरु नानक देव वहां एक पार्क में आकर रुके थे। उन्होंने अपने हाथों से वहां लंगर की शुरुआत की थी। बाद में उस पार्क के मालिक ने उनकी याद में एक तीर्थ स्थल बना दिया जिसका नाम नानक पाऊ साहिब रखा था कालांतर में इसका नाम नानक प्याऊ पड़ गया।

मजनूं का टीला गुरुद्वारा के पास अब तिब्बत के लोग बसे हुए हैं। यह गुरुद्वारा गुरु नानक देव के समय का है। यहीं वे दरवेश (मजनू) से मिले थे। जहांगीर के समय पर गुरु हर गोविंद (1559-1644) ने भी यहां पर डेरा डाला था। वे ग्वालियर की जेल से छूटने के बाद यहां आए थे। कोतवाली के पास स्थित चांदनी चौक का शीश गंज गुरुद्वारा बना है। औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर को कत्ल करवाया था।

उनके साथ इस स्थान पर भाई दयाल दास, भाई मति दास और भाई सतिदास की भी शहादत हुई थी। आरवी स्मिथ ने लिखा है कि कहते हैं जब गुरु तेग बहादुर को मारा गया था उस वक्त काली आंधी आई थी तब लखी शाह ने अपने आठ पुत्रों के साथ गुरु के मृत शरीर को लेकर चांदनी चौक से लेकर गए और वहीं उनका अंतिम संस्कार किया। वह स्थान रकाबगंज गुरुद्वारा है।

अकबर ने पंगत में खाया लंगर

हरबंस कौर के मुताबिक ऐसे भी उदाहरण हैं कि गुरु अमरदास के समय में बादशाह अकबर उनसे मिलने आया। गुरु अमरदास जी ने हुक्म दिया ‘पहले पंगत, पाछे संगत’ यानी कि पहले लंगर खाओ, फिर संगत में बैठो। ऐसे में अकबर ने गुरु अमरदास से मिलने से पहले आम-ओ-खास के साथ पंक्ति में बैठकर लंगर खाया था।

समृद्ध होता गया लंगर

जब बाबा बघेल सिंह ने गुरुद्वारे बनवाए और गुरुग्रंथ साहब का प्रकाश हुआ तब लंगर का स्वरूप काफी छोटा था। इसके बाद विभिन्न हिस्सों से राजाओं ने गुरुद्वारों के नाम पर जागीरें लगा दीं और गुरुद्वारों में पैसा आता गया और लंगर व्यापक स्तर पर होने लगा। आज बंगला साहिब गुरुद्वारे में प्रतिदिन चार से पांच लाख लोग लंगर खाते हैं। हरबंस के मुताबिक आज गुरुद्वारे की रसोई अत्याधिक उपकरणों से लैस हो गई है लेकिन पहले संगत भी कम होती थी और लंगर ही कम बनता था।

सफाई का उस वक्त भी उतना ही ध्यान रखा जाता था। इसका विस्तार तो तब हुआ जब विभाजन के पश्चिमी पंजाब लोग दिल्ली आए। उससे पहले बंग्ला साहब की रसोई एक छोटा सा कमरा हुआ करता था जिसके सामने से सड़क जाती थी। वे बताती हैं कि 1970-1971 के आसपास की बात है जब वे देव नगर खालसा कालेज के पास (देव नगर में) रहती थी। सुबह भूखे पेट अपनी सहेली के साथ बंगला साहब पैदल जातीं, वहां सेवा करती और रोटियां बनाती थीं। इसके बाद उस लंगर का जो स्वाद आता था, वह कहीं नहीं मिल सकता। वे बताती हैं कि बरसों बाद उन्हें देखकर एक बुजुर्ग ने उन्हें पहचाना और कहा कि वे वही हैं जो बहुत पहले लंगर बनाने आती थीं।

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