रूश्दी पर हुए हमले ने एक बार फिर उस असहज कर देने वाली सच्चाई को सामने ला दिया है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
लेखक सलमान रूश्दी पर हुए प्राणघातक हमले को वैश्विक-विमर्श का हिस्सा बनाना जरूरी है। यह न केवल अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा से जुड़ा मामला है, बल्कि इसका सम्बंध चरमपंथ और असहिष्णुता से भी है। जब तक दुनिया आस्था के नाम पर की जाने वाली हिंसा के खिलाफ एक नहीं होगी, हम इस तरह के हादसों के साक्षी बनते रहेंगे।
यह विडम्बना ही है कि रूश्दी पर हमले की घटना भारत-विभाजन के स्मरण-दिवस की पूर्वसंध्या पर हुई थी। मिडनाइट्स चिल्ड्रन के लेखक पर न्यूयॉर्क में तब चाकुओं से वार किया गया, जब भारत में बंटवारे की त्रासदी के 75 वर्ष पूरे हो रहे थे। रूश्दी स्वयं बंटवारे की संतान हैं। उन्होंने एक ऐसा उपन्यास लिखा है, जिसे कम से कम पश्चिमी समालोचकों और मीडिया ने अंग्रेजों से भारत की स्वाधीनता और फिर 1975 के आपातकाल में उसी स्वाधीनता के पराभव पर श्रेष्ठ कृति माना है।
आश्चर्य नहीं कि मिडनाइट्स चिल्ड्रन को न केवल 1981 में बुकर पुरस्कार दिया गया, बल्कि यह इकलौता ऐसा नॉवल है, जिसे एक नहीं, दो-दो बार बुकर ऑफ बुकर्स पुरस्कार से नवाजा गया है, पहले 1993 में बुकर की 25वीं वर्षगांठ पर, और फिर 2008 में उसकी 40वीं सालगिरह पर भी। पर दुर्भाग्य कि रूश्दी को वैश्विक प्रसिद्धि मिडनाइट्स चिल्ड्रन के बजाय 1988 में लिखी पुस्तक द सैटेनिक वर्सेस के लिए मिली।
इस किताब के कारण न केवल उन्हें 1989 में अयातुल्ला खोमैनी के फतवे का शिकार होना पड़ा, बल्कि उन्हें माफी मांगने को भी मजबूर होना पड़ा, वे अज्ञातवास में रहे और बीस से अधिक बार उन्हें अपना घर बदलना पड़ा। हादी मातर नामक एक हमलावर के द्वारा उन पर अनेक बार प्रहार करने के बाद वे गंभीर स्थिति में रहे।
जहां स्वतंत्र-विश्व के बड़े हिस्से ने इस हमले की निंदा की, वहीं अनेक ऐसे मुस्लिम संगठन और व्यक्ति भी थे, जिन्होंने हमलावर के समर्थन में आवाज उठाई और उसे बधाई भी दी। ईरान के दक्षिणपंथी अखबार काहयान ने लिखा कि ‘इस बहादुर और अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने वाले शख्स को शाबासी, जिसने न्यूयॉर्क में भ्रष्ट और अपने ही धर्म के साथ विश्वासघात करने वाले सलमान रूश्दी पर हमला किया।
हमें उसके हाथों को चूमना चाहिए।’ रूश्दी पर 1989 में दिया फतवा कभी वापस नहीं लिया गया था और वह ईरानी हुकूमत की वेबसाइट पर आज भी मौजूद है। इतना ही नहीं, रूश्दी की हत्या करने वाले को ईनाम की राशि भी 30 लाख डॉलर से बढ़ाकर 60 लाख डॉलर कर दी गई है। ईरान के मजहबी संगठन ही नहीं, बल्कि मीडिया संस्थान भी इस राशि को और बढ़ाने की अपील कर रहे हैं।
पूरी दुनिया में द सैटेनिक वर्सेस के प्रकाशकों से लेकर अनुवादकों तक की हत्याएं की जा चुकी हैं और उस किताब को लेकर हुए दंगों में भारत, पाकिस्तान, तुर्की सहित अन्य देशों में अनेक लोगों की जान जा चुकी है। सनद रहे कि भारत दुनिया का पहला ऐसा देश था, जिसने इस किताब पर पाबंदी लगाई थी। रूश्दी को जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल में आने से भी रोका गया, क्योंकि शहर के इस्लामिक संगठनों ने आयोजकों को धमकाया था कि अगर रूश्दी आए तो उन्हें इसका खामियाजा भुगतना होगा।
इस किताब के प्रकाशन के पूरे 34 साल बाद रूश्दी पर हुए हमले ने एक बार फिर उस असहज कर देने वाली सच्चाई को सामने ला दिया है, जिस पर आज भी कोई बात नहीं करना चाहता, या उसे संजीदगी से नहीं लेना चाहता। दुनिया के अनेक धर्मों-विचारधाराओं ने अतीत में हिंसा का दुरुपयोग किया है और नरसंहारों को अंजाम दिया है। लेकिन कड़वी सच्चाई है कि आज चरमपंथ के नाम पर होने वाली हिंसा हमारी स्वतंत्रताओं के लिए बड़ी चुनौती बन गई है।
पूरी दुनिया की सिविल सोसायटी को इसकी अनदेखी नहीं करते हुए इसका सामना करना चाहिए। दुनियाभर की सरकारों को इसे गम्भीरता से लेते हुए आइंदा ऐसी घटनाओं को होने से रोकना चाहिए। और सबसे जरूरी यह कि इस्लामिक धर्मगुरुओं को आगे आकर हिंसा की ऐसी घटनाओं की निंदा करनी चाहिए।
हमें ऐसी मानवीय, सहिष्णु और करुणापूर्ण दुनिया बनाने की जरूरत है, जहां अगर कथित रूप से हमारी आस्था का अपमान भी होता हो तो हम उससे आहत न हों। क्योंकि अगर धर्म ही हिंसा को प्रेरित करने लगेंगे या उसे न्यायोचित ठहराएंगे तो दुनिया में शांति, प्रगति और एकता का क्या होगा?
द सैटेनिक वर्सेस के प्रकाशन के 34 साल बाद रूश्दी पर हुए हमले ने एक बार फिर उस असहज कर देने वाली सच्चाई को सामने ला दिया है, जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता, या उसे संजीदगी से नहीं लेना चाहता।
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