आत्महत्या के कारणों के पीछे छुपी है जीवन की निराशा और व्यवस्था की असफलता
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
ताजा घटना है कि एक किशोर फेसबुक के लिए वीडियो बना रहा था। विषय था कि ‘एक किशोर आत्महत्या करने जा रहा है।’ लेकिन हकीकत में वह आत्महत्या नहीं कर रहा था। उसने स्टूल पर खड़े होकर फांसी का फंदा बनाया और गले में डाला। उसका पैर फिसल गया और वह फांसी पर झूल गया अंतत: उसे बचाया नहीं जा सका। इस दुर्घटना से कस्बे के लोग बेहद दुखी हैं।
क्या यह निरर्थक जीवन की ऊब है कि इस तरह की घटनाएं होती हैं? हमारी सामूहिक उकताहट का क्या कारण हो सकता है? क्या ऊब जाना मात्र लक्षण है और असल रोग है असमानता आधारित व्यवस्था। दरअसल, रोजमर्रा के साधारण कार्यों से भी खुशी मिल सकती है और ऊब के हव्वे से भी मुक्ति मिल सकती है। सच तो यह है कि खुशी बाहरी हालात पर निर्भर नहीं करती। उसका उद्गम भीतर ही होता है।
ग्राहक के इंतजार में बैठा खाली दुकानदार अपने तराजू को ही उलटता-पलटता है। कैफी आजमी ने एक फिल्म का गीत लिखा, ‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।’ खुश रहने के लिए यह कुछ कम नहीं कि सांस चल रही है। बहरहाल, कुछ लोकप्रिय व्यक्तियों की आत्महत्या को लेकर अफसाने रचे गए हैं। गुरुदत्त की आत्महत्या का खुलासा तो उनकी फिल्म ‘प्यासा’ के एक गीत में अभिव्यक्त हो गया था कि ‘यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?’
कुछ दिन पहले एक कलाकार की आत्महत्या में अनावश्यक राजनीति हुई। संजय लीला भंसाली की ऋतिक रोशन अभिनीत फिल्म ‘गुजारिश’ का विषय भी आत्महत्या था। देव आनंद अभिनीत फिल्म ‘फंटूश’ में भी पात्र भूख और बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्या करना चाहता है। हर अवसर पर धन कमाने वाला व्यक्ति नायक को भोजन और महंगे कपड़े देता है। उसकी आत्महत्या की तारीख घोषित की जाती है परंतु भरपेट भोजन मिलने के बाद उसका इरादा बदल जाता है।
जिस व्यक्ति ने लाभ कमाने के लिए यह प्रकरण रचा था, वह अब उसकी मौत चाहता है क्योंकि उसने जीवन बीमे की राशि एक मुश्त जमा करा दी है। यह फिल्म रोचक घटनाक्रम से भरपूर थी। आमिर खान की ‘पीपली लाइव’ में एक किसान की आत्महत्या का मुद्दा है। दरअसल किसान आत्महत्या करना ही नहीं चाहता था। वह विषम हालात से निराश हो चुका था। जब मीडिया इसे सुर्खियां बना देता है, तब वह अपना इरादा बदल देता है। उसके इस निर्णय से बहुत से समीकरण बदल जाते हैं।
गौरतलब है कि एक फिल्म के मुख्य पात्र ने अपने पिता का विरोध करते हुए एक सिनेमाघर बनाया था। कुछ दिन कमाई हुई फिर माध्यम में परिवर्तन हुआ। उसने अपने पिता का विरोध करके सिनेमाघर बनाया था। अब उसके पुत्र चाहते हैं कि सिनेमाघर को बेचकर अन्य व्यवसाय में पूंजी लगाई जाए। उसने पहले अपने पिता का विरोध किया फिर पुत्रों की नाराजगी झेलता है। एक दिन वह सारे कस्बे में घोषणा करता है कि आज सिनेमाघर में आखिरी बार मुफ्त में फिल्म दिखाई जाएगी।
इस शो के बाद सिनेमाघर बंद कर दिया जाएगा। मुफ्त के तमाशे के लिए भारी भीड़ जमा हो जाती है। वह व्यक्ति शो में पुरानी फिल्मों के अंश दिखाता है। उन अंशों को उसने बेतरतीब जोड़ दिया है। शो के अंत में वह सबके सामने आकर अपनी बात बताता है कि कैसे उसने सिनेमाघर बनाने के लिए पिता का विरोध किया और अब पुत्रों की इच्छानुरूप इसे बेच रहा है।
फिल्म के अंतिम दृश्य में वह एक स्टूल पर खड़ा होता है। फांसी का फंदा बनाता है। लोग इसे तमाशे का हिस्सा समझते हैं परंतु वह सचमुच आत्महत्या कर लेता है। इस फिल्म को मध्यप्रदेश के एक सिनेमाघर मालिक ने बनाया था। तथ्य यह है कि विशाल देश में सिनेमाघरों की संख्या सबसे कम है। हकीकत में मनोरंजन पर मनुष्य का पैदाइशी हक होना चाहिए। लेकिन आत्महत्या के कारणों के पीछे जीवन की निराशा और व्यवस्था की असफलता छुपी है।
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