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राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि मानने का भाव सनातन की उत्कर्ष सुनिश्चित करता है। - श्रीनारद मीडिया

राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि मानने का भाव सनातन की उत्कर्ष सुनिश्चित करता है।

राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि मानने का भाव सनातन की उत्कर्ष सुनिश्चित करता है।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वर्तमान सन्दर्भों में भारत के आराधकों का विजय पथ  पर आरोहण एक नए युग के प्रवर्तन का प्रतीक है। एक ओर यदि हिंदू उत्कर्ष की पुनः प्राप्ति हमारे संघर्ष के अटूट सातत्य का स्वर्णिम अध्याय है तो यह भी सत्य है कि सनातन पथ पर सनातन का नाम लेने वालों ने ही अति दुर्गम कंटक भी बोये, हिन्दू निर्वीर्य दुर्बलताओं का अनुभव भी हुआ, शक्ति अर्जन और जन संगठन में कमियां रहीं।

‘तुम विजयी हो गए तो क्या हुआ, पहले यह बताओ मुझको क्या मिला?’ इस प्रकार के भाव लेकर सनातन ही सनातन की पराजय का कारण बना। यह इस प्रकार था मानों लंका विजय के बाद हनुमान श्री रघुवीर से पूछें कि अब मुझे कौन सा मंत्रालय मिलेगा?  अयोध्या वालों ने तो कोई युद्ध नहीं किया, इसलिए अधिकांश पद, वानर और रीछ जातियों के लिए आरक्षित होने चाहिए।

हिंदू पर्व केवल लोकाचार- रीति रिवाज और कर्मकांड के पालन द्वारा अपनी क्षुद्र मनोकामनाएं पूरी करवाने का पाखंड नहीं होना चाहिए। हिन्दू क्यों हारा? किन कारणों से आक्रमणकारी जीते? किन कारणों से हमारा संगठन जातियों, धन कुबेरों के स्वार्थों, धार्मिक कुरीतियों और रूढ़िवादिता के कारण छिन्न भिन्न होता रहा? और किन महापुरुषों ने हिन्दू संगठन का बीड़ा उठाया जिस कारण आज सर्वत्र एक हिंदू उत्कर्ष का भाव दिखने लगा है ? इन पर विचार किये बिना भारत के नवीन भाग्योदय पर विमर्श अधूरा ही कहा जायेगा।

स्मरण रखिये महाशक्ति संपन्न, विष्णु के अवतार श्री राघव को भी रावण वध से पूर्व भगवती शक्ति का आवाहन कर आशीर्वाद लेना पड़ा था. हमारे अवतारी पुरुष और वीर पराक्रमी गुरु दुष्ट हन्ता, जनसंगठक,  मर्यादा रक्षक, प्रजा वत्सल, अत्यंत सौम्य, अक्रोधी, शालीन, भद्र, सबकी सुनने वाले और विनम्र रहे हैं। हमारे महापुरुषों ने जीवन भर जन हित के लिए संघर्ष किया- उनको जीवन में कभी लौकिक सुख नहीं मिला -विलासिता और ऐश्वर्य से कोसों दूर रहे।

क्या हम अपने अवतारी महापुरुषों के जीवन से कुछ सीखते हैं ?  

यदि कृष्ण शक्ति, नीति और पराक्रम के योद्धा पुरुष थे जिनको सुदर्शन चक्र के प्रतापी रूप से जाना गया तो राम मर्यादा भक्षक रावण तथा उसके पुत्रों के वध के बाद उसकी स्वर्णमयी लंका भस्म कर- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहते हुये  अयोध्या लौटे-और कृष्ण ने मथुरा वृंदावन से हज़ारों मील दूर गुजरात में देहोत्सर्ग किया। दोनों ही अवतारी पुरुष शक्ति और पराक्रम के अन्यतम उदाहरण हैं।

अर्थात जहाँ आवश्यक हो वहां अरि हनन कर सज्जनों को अभय देना ही हिन्दू सनातन परंपरा का प्राचीनतम सन्देश रहा है। शक्ति का उपार्जन करना, स्वयं को शत्रु से अधिक बलशाली बनाना, पश्चाताप रहित शत्रु को कभी क्षमा नहीं करना, उसके प्रति कोई दया भाव नहीं दिखाना, सत्य और धर्म रक्षा के लिए प्रत्येक पग उठाने का साहस रखना ही सनातन नियम है।

वर्तमान हिंदू उदय का काल सनातन हिन्दुओं की वीरता और उनके असीम धैर्य के साथ  विश्व में दुर्लभ संघर्ष की अद्भुत निरंतरता बताता है तो उसके साथ ही स्मरण रखना होगा पिछले कई सौ वर्षों में हिन्दू द्वारा हिन्दू से विद्वेष, हिंदू की हिंदू से शत्रुता, असंगठन, शत्रु के साथ अपने स्वार्थ के लिए जा मिलना और सामूहिक शत्रु के विरुद्ध अपने ईर्ष्या भाव ख़त्म कर संगठित बल से उस शत्रु का हनन करने की भावना का ना होना जिसने हिंदुओं को विदेशी क्षुद्र शक्तियों का दास बनाया।

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