लोक-संस्कृति का पर्व चकचंदा हो गया विलुप्त, स्मृतियां रह गयीं शेष

लोक-संस्कृति का पर्व चकचंदा हो गया विलुप्त, स्मृतियां रह गयीं शेष

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श्रीनारद मीडिया, सीवान (बिहार)

शिक्षकों को विद्यार्थियों के आभिभावकों से सीधे जोड़ने वाला लोकजीवन का अनूठा लोकपर्व चकचंदा विलुप्त-सा हो गया। अलबत्ता, चकचंदा की स्मृतियां जनमानस में कसक के रुप में आज भी तैर रही हैं। भले आज सरकार शिक्षकों को अभिभावकों से जोड़ने के प्रयास के तहत कई योजनाएं ला चुकी है और आशा के अनुकूल सफलता मिलती नहीं दिख रही है। लेकिन आज से दशकों पूर्व आभिभावकों को सहजता से जोड़ने की व्यवस्था ‘चकचंदा’ शिक्षकों ने बना रखी थी,जो दशकों कारगर रही। हालांकि आज भी भादो महीने की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को चकचंदा मनाया जाता है। लेकिन अब इसका स्वरुप बदल चुका है।

इसकी व्यापकता और प्रासंगिकता कम हो गयी। अब लोग इस दिन बस भगवान गणेश की पूजा करते हैं। लेकिन गुरुजी बच्चों के साथ गांवों का भ्रमण नहीं करते और बच्चे चकचंदा के गीत नहीं गाते।

बात उस दौर की है जब स्कूली शिक्षा व्यवस्था सरकारी दायरे के बाहर थी। हालांकि अभिभावकों के घरों तक पहुंचकर चकचंदा मांगने और गाने की व्यवस्था विद्यालय के सरकारी होने के बहुत दिनों बाद भी बनी रही। उस जमाने में गुरुजी को बहुत कम वेतन मिलता था। ऐसे में गुरुजी जीविकोपार्जन के साधन के रुप में छात्रों से गुरुदक्षिणा प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करते थे।

वह जमाना कुछ और था ,जब भादो के महीने में चकचंदा को समारोह पूर्वक मनाया जाता था। भाद्रपद शुक्लपक्ष चतुर्थी से आरम्भ हो कर अगले दस दिनों में यानी अनंत चतुर्दशी तक गांवों के सभी घरों में जाकर विद्यार्थी गणेश वंदना गाते और चकचंदा के गीत गाकर चकचंदा मांगते थे।

मांगी हुई चंदा गुरूजी को ससम्मान पहुंचा दिया जाता था। यह गुरुदक्षिणा पैसे, अनाज और वस्त्र के रुप में होती थी। दरअसल ग्रामीण संस्कृति में परस्पर जीने की कला का उल्लासमय आयोजन नाम था चकचंदा। भादो के चौथ यानी गणेश चतुर्थी पर आयोजित होने वाला चकचंदा अब हमारी लोकसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा। यूं कहें कि गुरुजी और समाज के बीच भावनात्मक लगाव का प्रतीक चकचंदा विलुप्त- सा हो गया है।

हां, चकचंदा की थोड़ी-बहुत यादें हमारे समाज के बुजर्ग लोगों के दिलोदिमाग में जरुर रची-बसी हैं। सामाजिक चिंतक भगरासन यादव बताते हैं कि उस दौरान संसाधन कम थे और श्रद्धा और उत्साह ज्यादा था। गुरु के प्रति श्रद्धा अगाध थी। धन पर मन हावी था। स्कूली जिंदगी का जिक्र होते ही श्री यादव चहक उठते हैं,पुरानी यादों में खो जाते हैं। बचपन के किस्से और यादें उन्हें गुदगुदाने लगते हैं।

श्री यादव के संस्मरण से ये दो पंक्तियां-‘गुरुजी के देहला से धन नाही घटी, होई जईहें रउवो बड़ाई मोर बाबूजी’ गुनगुनाते हैं। वे कहते हैं कि हमारे संसाधन भले कम थे, लेकिन हौसले और जज्बे बुलंद थे।

श्री यादव कहते हैं कि बच्चे घर-घर और गुरुजी द्वार-द्वार होते थे। वे कहते हैं कि बच्चों का शिक्षक के प्रति अटूट श्रद्धा थी और शिक्षकों में बच्चों के लिए वात्सल्य का भाव। चकचंदा के भोजपुरी के साहित्यकार भगरासन यादव कहते हैं कि भादो की चौथ यानी गणेश चतुर्थी पर आयोजित होने वाला चकचंदा अब हमारी लोकसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा।

 

गुरुजी और समाज के बीच भावनात्मक लगाव का प्रतीक चकचंदा विलुप्त- सा हो गया है। चकचंदा के दौरान गांवों के भ्रमण के दौरान शिक्षक कई चीजों का मूल्यांकन कर लेते थे। वे कहते हैं कि उस दौरान विद्यार्थियों में गजब का उत्साह और उमंग होता था। महीनों से चकचंदा आने और उसे मनाने का इंतजार रहता था।

 

वहीं सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश पांडेय उन दिनों को याद करते रोमांचित हो जाते हैं। कहते हैं कि बच्चे घर-घर और गुरुजी द्वार-द्वार होते थे।श्री पांडेय चकचंदा का गीत सुनाते हैं-‘चौदह बरिस बीत गईले रामचंद्र घरे अईनी, घरे-घरे बाजेला बधाई रे बलकवा’। वे कहते हैं कि बच्चों का शिक्षक के प्रति अटूट श्रद्धा थी और शिक्षकों में बच्चों के लिए वात्सल्य का भाव। चकचंदा के बहाने शिक्षकों का बच्चों के अभिभावकों से सुखद और सकारात्मक मुलाकात होती थी। इसका दूरगामी प्रभाव भी था। अभिभावकों से शिक्षकों का सीधा संपर्क हो जाता है।

बच्चों को ये बातें संज्ञान में रहती थी कि गुरुजी उनके माता-पिता को जानते हैं और उनकी शिकायत उनके अभिभावक तक सहजता से पहुंच जायेगी। ऐसे में विद्यार्थी गुरुजी के साथ कभी उदंडता के साथ पेश नहीं आते थे। गुरुजी के अभिभावकों के नाम याद थे।

श्री यादव कहते हैं कि गुरुजी के घर आने पर बच्चे आह्लादित हो जाते थे और आभिभावक गुरुजी के आगमन को अपना सौभाग्य समझते थे। गुरुजी की सेवा -सुश्रुषा में कोई कमी नहीं रह जाय,इसका पूरा ख्याल रखते थे।

गुरुजी को इस दौरान न केवल अन्न,धन,वस्त्र आदि की प्राप्ति होती थी। भ्रमण के दौरान गुरुजी बच्चे की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन भी कर लेते थे। बहरहाल, वक्त के थपेड़ों की चपेट में आकर विलुप्त हो गया-लोकजीवन व लोकसंस्कृति की महक से ओतप्रोत चकचंदा। और जनमानस में रह गयी इससे जुड़ीं स्मृतियां।

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