होली का पर्व सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

होली का पर्व सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने वाला पर्व है। होली का पर्व जलवायु परिवर्तन का भी संकेत देता है। होली का पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला पर्व है। वर्तमान में यह पर्व दो दिन तक मनाया जाता है। पर्व का प्रारम्भ होलिकादहन से होता है। अगले दिन जनमानस अबीर, गुलाल और गीले रंगों के साथ तथा पर्यावरण प्रेमी टेसू के फूलों के रंग के साथ होली खेलने का आनंद लेते हैं।

कहीं-कहीं यह पर्व आज भी अपनी प्राचीन परम्परा के अनुरूप रंगभरी एकादशी से प्रारंभ होकर सप्ताह भर तक मनाया जाता है। होली के पर्व को धुरंडी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन भी कहा जाता है। इस दिन लोग एक दूसरे के साथ प्रेम के रस में सराबोर हो जाते हैं। होली के पर्व को ”वसंतोत्सव” या ”कामोत्सव” भी कहा गया है।

भक्त प्रहलाद की श्री हरि विष्णु के चरणों में अनन्य भक्ति इस उत्सव की आध्यात्मिक प्राण रेखा है। संस्कृत साहित्य में होली के विभिन्न रूपों का वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन मिलता है। होली पर्व का वर्णन किस साहित्य में मिलता है उसमें जैमिनी के पूर्व मीमांसा सूत्र और कथा ग्राह सूर्य उल्लेखनीय हैं। नारद और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है।

हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नालीला तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् में होली का वर्णन मिलता है। भारवि, माघ और कई अन्य संस्कृत के कवियों ने वसंत और होली की खूब चर्चा की हैं। चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन मिलता है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर सूर, रहीम, रसखान, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव आदि कवियों का प्रिय विषय होली रहा है। महाकवि सूरदास ने होली पर 78 पद लिखे हैं। अवध में रघुवर और सिया, ब्रज में कृष्ण और राधिका होली के नायक नायिका हैं।

इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों भित्तिचित्रों, मंदिरों  की दीवारों पर होली उत्सव के चित्र देखने को मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16वी शताब्दी के एक चित्रफलक में दंपति के होली मनाने का चित्र अंकित किया गया है। इस चित्र में राजकुमार और राजकुमारी को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ होली खेलते दिखाया गया है। 16वीं शताब्दी में अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी भी है। इस चित्र में राज परिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते दिखाया गया है। साथ ही अन्य सेवक-सेविकाएं रास रंग में व्यस्त हैं।

वे एक-दूसरे पर पिचकारियों से रंग भी डाल रही हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के रंग देखने को मिल जाते हैं। उदाहरण के रूप में 17 वीं शताब्दी में मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपनी रानियों के साथ चित्रित किया गया है। एक अन्य चित्र में राजा को हाथी दांत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गाल पर महिलाएं रंग मल रही हैं।

होली का पर्व पूरे भारत में, हर प्रांत में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र बिंदु ब्रज की होली है। जिसमें बरसाने की लट्ठमार होली सर्वाधिक प्रसिद्ध है। मथुरा-वृंदावन में होली का पर्व 15 दिनों तक मनाया जाता है। कुमाऊं में गीतों की होली में संगोष्ठियों का आयोजन होता है जिसे बैठकी होली कहते हैं इससे मिलती जुलती परंपरा झारखंड में भी देखने को मिलती है।

हरियाणा के धुलेंडी क्षेत्र में भाभी द्वारा देवर को उठाने की प्रथा है। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु की जयंती धूमधाम से मनाया जाती है। महाराष्ट्र में होली का पर्व रंग पंचमी के रूप में मनाया जाता है। पंजाब में होली का पर्व होला मोहल्ला के रूप में मनाया जाता है। तमिलनाडु में यह पर्व कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोत्सव है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ की होरी में लोकगीतों की अदभुत परम्परा है। मालवा के अंचलों में यह पर्व भगोरिया नाम से बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है।

होली के दिन सामाजिक समरसता का वातावरण देखने को ही मिलता है। इस पर्व के साथ खान पान और पकवान की भी कई परम्पराएं जुड़ी हैं जिनमे सबसे लोकप्रिय परम्परा गुझिया बनाने की है। गुझिया केवल होली के पर्व पर ही बनने वाला पकवान है। इसके अतिरिक्त घरों में विशेष  परम्परागत भोजन बनाने की परम्परा है। यह भोजन और पकवान भी एक अलग प्रकार से समाज में मिठास घोलता है व मानव जीवन में एक नया उत्साह और उमंग तथा जोश भरता है। होली और होलाष्टक के दिनों में केवल होली की बातें की जाती हैं तथा इस दौरान समाज में अन्य प्रकार के प्रचलित धार्मिक और मांगलिक कामों का वार्तालाप बंद रहता है।

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