केरल में राज्यपाल और वाम सरकार आमने-सामने है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
केरल में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और पी विजयन के नेतृत्व वाली वाम सरकार आमने-सामने हैं। विश्वविद्यालय में नियुक्तियों को लेकर दोनों में टकराव है, जिसने संघवाद, अकादमिक स्वायत्तता, संस्थानों की प्रतिष्ठा, उच्च शिक्षा का राजनीतिकरण जैसे उलझे सवालों को वापस सुर्खियों में ला दिया है।
दरअसल, आरिफ मोहम्मद खान ने पी विजयन के निजी सचिव और सीपीएम नेता केके रागेश की पत्नी प्रिया वर्गीज की कन्नूर विश्वविद्यालय के मलयालम विभाग में एसोशिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति रोक दी है। उन्होंने इसे भाई-भतीजावाद और पक्षपात का उदाहरण बताते हुए राज्य में हुई ऐसी सभी नियुक्तियों की जांच कराने का आश्वासन दिया है।
प्रिया को छह उम्मीदवारों में से चुना गया था। एक आरटीआई से पता चला है कि इस चयन के लिए एक प्रक्रिया अपनाई गई थी, जिसमें उनका शोध-स्कोर महज 156 था, जबकि दूसरे स्थान पर रखे गए उम्मीदवार को 651 अंक मिले थे। इंटरव्यू में उनको 50 मेें 32 अंक मिले, जबकि दूसरे स्थान के उम्मीदवार को 30। इस नियुक्ति के कारण राज्यपाल खान ने कन्नूर विश्वविद्यालय के कुलपति गोपीनाथ रवींद्रन पर कम्युनिस्ट पार्टी के एजेंट के रूप में काम करने का आरोप लगाया। जब जुबानी जंग तेज हुई, तो उन्होंने कुलपति को ‘अपराधी’ और जाने-माने इतिहासकार इरफान हबीब को ‘सड़क का गुंडा’ बताया।
खान ने 2019 की उस घटना का भी जिक्र किया, जब वह मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय इतिहास कांग्रेस को संबोधित कर रहे थे। उस कार्यक्रम में हबीब ने राज्यपाल को टोकते हुए रोक दिया था कि वह स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद को गलत तरीके से उद्धृत कर रहे हैं। हबीब ने उनको यह भी कहा था कि इसके बजाय उन्हें महात्मा गांधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे को उद्धृत करना चाहिए। खान ने हबीब पर परेशान करने का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने सड़क छाप गुंडे जैसा व्यवहार किया, और यह आरोप भी लगाया कि उन पर हमला करने का प्रयास किया गया।
खान के आरोप से स्तब्ध अकादमिक जगत ने हबीब और रवींद्रन, दोनों का बचाव किया है। यह हैरान करने वाली बात है कि खान, जो 1980 के दशक में शाह बानो मामले में अपने रुख की वजह से उदार मध्यवर्ग के चहेते बन गए थे, इस तरह चर्चित इतिहासकार प्रोफेसर हबीब और जाने-माने शिक्षाविद रवींद्रन के खिलाफ इस कदर नाराजगी जाहिर करेंगे। कुलपति ने नियुक्ति रोकने के खान के फैसले के खिलाफ अब हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया है।
राज्य के नेतागण भी इस विवाद में कूद गए हैं। वाम दलों ने राज्यपाल को आरएसएस और प्रधानमंत्री मोदी का एजेंट बताया है। हालांकि, भाजपा चुप्पी साधे हुए है, लेकिन कांग्रेस ने मुख्यमंत्री विजयन पर हमला करते हुए कहा है कि वह अराजक सरकार चला रहे हैं। दुर्भाग्य से किसी ने ऐसी स्वस्थ बहस नहीं की, जो केंद्र और राज्य के खराब होते संबंध को बेपरदा करती हो।
बेशक राज्यपाल बीते कुछ दशकों से राज्यों के साथ अपने रिश्ते को लेकर संघर्ष कर रहे हैं, पर मौजूदा शासन में यह संबंध काफी नीचे गिर गया है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और अब केरल ने राज्यपाल को कुलाधिपति से अलग करने की बात कही है। राज्यपाल के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होने की परंपरा ब्रिटिश काल की देन है, जो आज भी जारी है। हालांकि, दो सरकारिया और पुंछी आयोग ने इसको खत्म करने की सिफारिश भी की थी।
माकपा नेता ए के बालन ने राज्यपाल के इस कदम को असांविधानिक बताया है। उन्होंने पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए पूछा है,‘क्या कोई ऐसा मानदंड है कि बड़े नेताओं के बच्चे यदि योग्य हैं, तो उनको नौकरी नहीं दी जाए?’ उनके मुताबिक, ऐसी धारणा बनाई जा रही है कि यह एक राजनीतिक नियुक्ति है।
बहरहाल, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच इस तरह का टकराव कोई अच्छा संकेत नहीं है। निश्चित तौर पर इसका असर शिक्षण संस्थानों पर पड़ेगा। राज्यपाल दूरदर्शी रवैया अपना सकते थे और मौजूदा प्रक्रिया में उलझने के बजाय संस्थागत सुधार की सिफारिश कर सकते थे। कुलपति पर उनकी नाराजगी और तीन साल पहले की घटना को याद करने से उन आरोपों को बल मिलता है कि वह इस मुद्दे को एक खास वैचारिक चश्मे से देख रहे हैं।
वामपंथ का राष्ट्रव्यापी राजनीतिक कद घट चुका है और केरल में वह अपने अंतिम गढ़ को बचाने की जद्दोजहद कर रहा है। उससे शायद ही उस तरह के पेशेवर आचरण की उम्मीद की जा सकती है, जिसकी आकांक्षा राज्यपाल पाल रहे हैं। मुख्यमंत्री के सचिव रागेश एसएफआई के पूर्व प्रमुख और सांसद हैं। उनकी पत्नी प्रिया ने अपना बचाव करते हुए कहा है कि उनके पास एसोशिएट प्रोफेसर बनने की आवश्यक शैक्षणिक योग्यता व विशेषज्ञता है।
इस बीच केरल उच्च न्यायालय ने प्रिया की नियुक्ति पर रोक लगा दी है और यूजीसी को नोटिस जारी किया है। काडर आधारित राजनीतिक दल महत्वपूर्ण पदों पर अपने समर्थकों की नियुक्ति को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि इससे संगठन व सरकार के बीच निश्चित जुड़ाव सुनिश्चित करने में मदद मिलती है। मगर इसे परिवार के सदस्यों तक ले आना निश्चित ही तनातनी को बढ़ाता है, और इससे भाई-भतीजावाद की बू भी आती है। इस तरह की परंपरा का अंत निस्संदेह राष्ट्र और राज्य, दोनों के लिए जरूरी है।
मगर यहां मामला सिर्फ नियुक्तियों तक सिमटा नहीं है। राज्यपाल ने कई अन्य मुद्दों पर भी राज्य सरकार से टकराव मोल लिया है, जैसे कि सीएए पर उनका रुख जुदा था और राज्य विधानसभा द्वारा पास कम से कम 11 अध्यादेशों पर उन्होंने प्रतिकूल दृष्टिकोण रखा। आरिफ खान ने इससे पहले कुलपति के रूप में रवींद्रन के सेवा-विस्तार का भी विरोध किया था।
विश्वविद्यालयों का प्रबंधन करने वाले कार्यालयों के बीच इस तरह का संघर्ष अकादमिक नतीजों, उत्कृष्टता और संस्था की विश्वसनीयता जैसे मसलों से ध्यान भटकाते हुए उसे बेमतलब की बयानबाजियों पर ले आता है। उच्च शिक्षण संस्थानों का राजनीतिकरण उस राष्ट्र के लिए अच्छा नहीं है, जो उच्च विकास दर के साथ आर्थिक ताकत बनने की उम्मीद पाल रहा है।
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