मदुरै के थिरुप्परनकुन्द्रम में स्थित त्यागराजार इंजीनियरिंग कालेज के कंबन फेस्टिवल के दौरान छात्रों से ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने के राज्यपाल आरएन रवि के आह्वान से एक नया विवाद खड़ा हो गया है। कार्यक्रम में रवि मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे।उन्होंने अपने संबोधन के अंत में ‘जय श्री राम’ का नारा लगाया और छात्रों से भी ऐसा करने के लिए कहा। हाल ही में राज्यपाल को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य विधानमंडल द्वारा पारित 10 विधेयकों पर कार्रवाई न करने के लिए फटकार लगाई थी।
हसन ने कहा, ‘राज्यपाल देश के सर्वोच्च पदों में से एक पर आसीन हैं, लेकिन वह एक धार्मिक नेता की तरह बोल रहे हैं… वह आरएसएस और भाजपा के प्रचार मास्टर बन गए हैं। राज्यपाल इस तरह से काम नहीं कर सकते। वह तमिलनाडु में आरएसएस की विचारधारा का प्रसार कर रहे हैं। वह जिस पद पर हैं वह एक संवैधानिक पद है, इसलिए उन्हें तटस्थ रहना होगा।’
10 विधेयकों पर नहीं की कार्रवाई
कांग्रेस नेता ने कहा कि राज्यपाल रवि को पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है। कोर्ट ने उनके खिलाफ ऐतिहासिक फैसला दिया है क्योंकि उन्होंने राज्य विधानमंडल द्वारा पारित 10 विधेयकों पर कार्रवाई न करके असंवैधानिक और मनमाने तरीके से काम किया है।
पद से हटाने का आग्रह
भाकपा के राज्य सचिव आर. मुथरासन ने संवैधानिक मानदंडों के उल्लंघन में काम करने और निर्वाचित राज्य सरकार के कामकाज में बाधा डालने का आरोप लगाते हुए भारत के राष्ट्रपति और केंद्र सरकार से राज्यपाल रवि को पद से हटाने का आग्रह किया।
भूमिका की संवैधानिक सीमाओं को स्पष्ट किया
उन्होंने आरोप लगाया कि वह ऐसे व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहे हैं जो खुद को न्यायपालिका और संविधान से ऊपर समझते हैं। मुथरासन ने राज्यपाल के इस कृत्य को तमिलनाडु की सांस्कृतिक और कलात्मक परंपराओं के विपरीत बताया।
उन्होंने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले की ओर इशारा किया, जिसने राज्यपाल द्वारा की गई कई कार्रवाइयों को पलट दिया, जिसमें उनकी भूमिका की संवैधानिक सीमाओं को स्पष्ट किया गया।
मुथरासन ने कहा कि इसके बावजूद, राज्यपाल सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेना और विवादास्पद बयान देना जारी रखे हुए हैं।
इस बीच, राज्यपाल ने अपने संबोधन के दौरान राज्य में सत्तारूढ़ द्रमुक सरकार के एक वरिष्ठ नेता द्वारा ‘अश्लील और अपमानजनक’ भाषा के इस्तेमाल की कड़ी निंदा की और इसे ‘अस्वीकार्य और शर्मनाक’ बताया। राज्यपाल ने कहा, हमने हाल ही में सत्तारूढ़ सरकार में उच्च पद पर बैठे एक व्यक्ति को महिलाओं के प्रति बेहद अश्लील, उपहासपूर्ण और आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते देखा। ऐसा व्यवहार न केवल एक सार्वजनिक व्यक्ति के लिए अशोभनीय है, बल्कि पूरी तरह से अस्वीकार्य और शर्मनाक है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। उन्होंने न केवल महिलाओं को अपमानित किया है, बल्कि भगवान शिव और भगवान विष्णु के भक्तों पर अपमानजनक टिप्पणी भी की है।’
द्रमुक ने हाल ही में राज्य के वन मंत्री के. पोनमुडी को महिलाओं और हिन्दू धर्म के खिलाफ अपमानजनक और अश्लील टिप्पणी करने के लिए उप महासचिव पद से हटा दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के अधिकारों पर ऐतिहासिक एवं अहम फैसला दिया है। कोर्ट ने विधेयकों को मंजूरी देने के बारे में राज्यपाल की शक्तियां तय कर दी हैं। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया है कि राज्यपाल बिलों को अनिश्चितकाल तक दबाकर नहीं बैठ सकते। उन्हें विधानसभा से पास होकर आए विधेयकों पर तय समय में निर्णय लेना होगा या कार्रवाई करनी होगी।
कोर्ट ने स्वीकृति के लिए आए विधेयकों पर राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने के लिए एक महीने और तीन महीने की समय सीमा तय की है। इतना ही नहीं, कोर्ट ने फैसले में राज्यपालों को नसीहत देते हुए कहा है कि उन्हें राजनीतिक विचारों से निर्देशित नहीं होना चाहिए। उन्हें राज्य मशीनरी के कामकाज को सुचारू बनाना चाहिए और उसे ठप नहीं करना चाहिए। उन्हें उत्प्रेरक होना चाहिए, अवरोधक नही।
इसके साथ ही शीर्ष कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा 10 विधेयकों को लंबे समय तक दबाए रखने और बाद में जब विधेयक विधानसभा से दोबारा पारित होकर आए तो उन्हें विचार के लिए राष्ट्रपति को भेजने को गलत करार दिया।
जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए फैसले में कहा कि 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ रोके रखने की राज्यपाल की कार्रवाई गैरकानूनी और मनमानी है। इतना ही नहीं, कोर्ट ने आदेश दिया कि ये 10 विधेयक उसी तिथि से मंजूर माने जाएंगे जिस तिथि को ये दोबारा मंजूरी के लिए राज्यपाल के समक्ष पेश किए गए थे।
यह भी कहा कि अगर उन विधेयकों पर राष्ट्रपति ने कोई निर्णय लिया होगा तो वह भी शून्य माना जाएगा। यह पहली बार है जब सुप्रीम कोर्ट ने सीधे अपने आदेश में विधेयकों को मंजूर मानने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों की मंजूरी का यह फैसला संविधान के अनुच्छेद-142 में प्राप्त विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुनाया है। फैसले में कोर्ट ने कहा कि विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार के बाद दोबारा भेजे गए विधेयक को राज्यपाल को मंजूरी देनी होगी। राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित नहीं रख सकते।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है क्योंकि अभी तक यही समझा जाता था कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने के लिए संविधान में कोई समय सीमा तय नहीं है और इसलिए राज्यपाल को तय समय में निर्णय लेने के लिए नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस फैसले ने बता दिया है कि राज्यपाल को किसी भी बिल पर एक महीने और तीन महीने में निर्णय लेना होगा या कार्रवाई करनी होगी। यानी तर्कसंगता का सिद्धांत लागू होगा।
संविधान में तय नहीं है समय सीमा
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में राज्यपाल के लिए विधेयकों पर निर्णय की समय सीमा तय करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद-200 में राज्यपालों के लिए विधेयकों को मंजूरी देने या विधानसभा से पारित होकर आए विधेयकों पर कार्रवाई के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है। इसके बावजूद अनुच्छेद-200 को इस तरह नहीं पढ़ा जा सकता जिससे राज्यपाल को मंजूरी के लिए पेश किए गए विधेयकों पर कार्रवाई नहीं करने की इजाजत मिल जाए। इस तरह देरी होती है और राज्य में कानून बनाने की मशीनरी में बाधा उत्पन्न होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी विधेयक पर स्वीकृति रोककर उसे मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने के मामले में अधिकतम अवधि एक महीने की होगी। यदि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के बगैर स्वीकृति नहीं देने का निर्णय लेते हैं तो ऐसे मामले में विधेयकों को तीन महीने में विधानसभा को वापस करना होगा।
पीठ ने कहा कि राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक पुनर्विचार के बाद दोबारा मंजूरी के लिए पेश किए जाने की स्थिति में राज्यपाल को एक महीने के भीतर विधेयक को मंजूरी देनी चाहिए। कोर्ट ने फैसले में चेताया कि इस समय सीमा का पालन करने में विफलता या निष्कि्रयता की कोर्ट द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।-
विधायक लोगों की भलाई में ज्यादा सक्षम
शीर्ष अदालत ने राज्यपालों द्वारा विधेयकों को दबाकर बैठ जाने की आलोचना करते हुए कहा कि राज्यपाल को लोगों की इच्छा को विफल करने के लिए राज्य विधानमंडल में अवरोध उत्पन्न नहीं करने या उस पर नियंत्रण नहीं करने के प्रति सचेत रहना चाहिए। राज्य विधानमंडल के सदस्य लोगों द्वारा चुने गए हैं, इसलिए वे लोगों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए ज्यादा सक्षम हैं।
राज्यपाल के पास पूर्ण या पाकेट वीटो का अधिकार नहीं
पीठ ने कहा कि राज्यपाल पूर्ण वीटो या पाकेट वीटो की अवधारणा को अपनाकर विधेयकों को दबाकर नहीं बैठ सकते। कोर्ट ने कहा कि पाकेट वीटो एक ऐसी अवधारणा है जिसमें राज्यपाल विधेयक पर बिना हस्ताक्षर किए उसे दबाकर बैठ जाते हैं जो वस्तुत: उसे अप्रभावी बना देता है। कोर्ट ने फैसले में स्पष्ट किया कि विधानसभा द्वारा दोबारा मंजूरी के लिए भेजे गए विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने का राज्यपाल को अधिकार नहीं है।
दूसरी बार मंजूरी के लिए भेजे गए विधेयक को राज्यपाल को स्वीकृति देनी होगी। हालांकि इसमें एक अपवाद हो सकता है कि दोबारा भेजा गया विधेयक पहले वाले विधेयक से भिन्न हो। कोर्ट ने राज्यपालों को नसीहत देते हुए फैसले में कहा कि राज्यपाल को मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में अपनी भूमिका निष्पक्षता से निभानी चाहिए। राजनीतिक विचारों से निर्देशित नहीं होना चाहिए।