दार्शनिक एवं समाज सुधारक दत्तोपंत ठेंगड़ी के विचारों की आज भी है प्रासंगिकता.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आज दुनिया के सामने पर्यावरण, आर्थिक असमानता, आतंकवाद जैसे संकट गहराते जा रहे हैं। विश्व के कुछ देश और वर्ग की अधिनायकत्व वाली प्रवृत्ति के कारण एक ओर जहां संसाधनों का केंद्रीयकरण बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर दुनिया के एक बड़े तबके के बीच विकास की कोई पदचाप सुनाई नहीं देती। ऐसे समय में महान चिंतक, दार्शनिक एवं समाज सुधारक दत्तोपंत ठेंगड़ी के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ गई है। दत्तोपंत ठेंगड़ी बौद्धिक प्रवर्तक, संगठनकर्ता और दार्शनिक से आगे बढ़कर समाज सुधारक इसलिए थे, क्योंकि उन्होंने भारतीयता के दर्शन को अपने कृतित्व से फलीभूत किया।

10 नवंबर, 1920 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के अरवी में जन्मे दत्तोपंत ठेंगड़ी महज 12 वर्ष की आयु में महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन में शामिल हुए। ठेंगड़ी जी ने भारतीय मजदूर संघ (1955), भारतीय किसान संघ (1979), सामाजिक समरसता मंच (1983) और स्वदेशी जागरण मंच (1991) जैसे अनेक संगठनों की स्थापना की। ये सभी संगठन आज अपने-अपने कार्यक्षेत्र में उद्देश्यों की पवित्रता के साथ आगे बढ़ रहे हैं।

दत्तोपंत ठेंगड़ी सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर इतनी सूक्ष्म दृष्टि रखते थे कि उनके आख्यान भविष्य की राह बताने वाले होते थे। शीत युद्ध की समाप्ति के दौर में ही उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि दुनिया से लाल झंडे की विदाई का समय आ गया है। यह बात आज सच प्रतीत होती है।

दत्तोपंत ठेंगड़ी ने वैश्वीकरण को आर्थिक स्वरूप में सीमित न रहकर मानव केंद्रित आवरण देने का आह्वान किया। वह कहते हैं कि समावेशी और वांछनीय प्रगति और विकास के लिए एकात्म दृष्टिकोण बहुत जरूरी है। वर्तमान में दुनियाभर में उपभोक्तावाद जिस आक्रामकता से बढ़ रहा है, उससे आर्थिक असमानता चरम पर है। इसके समाधान के लिए ठेंगड़ी जी ने हिंदू जीवन शैली और स्वदेशी को विकल्प बताया।

ठेंगड़ी जी कहते हैं, हमें अपनी संस्कृति, वर्तमान आवश्यकताओं और भविष्य के लिए आकांक्षाओं के आलोक में प्रगति और विकास के अपने माडल की कल्पना करनी चाहिए। विकास का कोई भी विकल्प जो समाज के सांस्कृतिक मूल को ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया गया हो, वह समाज के लिए लाभप्रद नहीं होगा।

अर्थव्यवस्था को लेकर ठेंगड़ी जी के विचार राष्ट्रहित को वरीयता देने वाले थे। उद्योगों का स्वामित्व, उद्योग और राष्ट्रीय हित की आवश्यकता के अनुरूप सरकारी, सहकारी, निजी, संयुक्त उपक्रमी हो सकता है। उन्होंने साम्यवादियों के एकाधिकार वाले श्रम क्षेत्र में राष्ट्रीयता का ऐसा शंखनाद किया, जिसके स्वर में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन का उत्थान राष्ट्रहित के साथ समवेत हो रहा है। उन्होंने श्रमिक आंदोलन में राष्ट्रीय हित के लिए सहयोग, समन्वय और सहकारवाद के साथ श्रम की प्राण प्रतिष्ठा की।

यही वजह है कि आज वर्ग संघर्ष की विचारधारा लगभग अप्रासंगिक हो चुकी है। आज देश जिस आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ा रहा है, उसे ठेंगड़ी जी ने देशभक्ति के उपक्रम के रूप में परिभाषित किया है। वह कहते हैं कि यह स्वदेशी की एक आकर्षक और सभी के लिए स्वीकार्य परिभाषा है जो राष्ट्रीयता की भावना और कार्य की इच्छा को सामने लाती है। आज जिस प्रकार समाज जीवन में आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति बढ़ रही है, ऐसे समय में संपूर्ण मानवीय जीवन के लिए दत्ताेपंत ठेंगड़ी के विचार समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

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