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चुनाव चिह्न का महत्व घटा है और बढ़ा है पार्टी का महत्व  - श्रीनारद मीडिया

चुनाव चिह्न का महत्व घटा है और बढ़ा है पार्टी का महत्व 

चुनाव चिह्न का महत्व घटा है और बढ़ा है पार्टी का महत्व
*अब सिम्बल से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है पार्टी
*पहले चुनाव चिह्न से पार्टी और नेता की होती थी पहचान
श्रीनारद मीडिया, सीवान (बिहार):
लोकतांत्रिक भारत में चुनाव संपन्न कराने में पहले चुनाव चिह्न का काफी महत्व था। लेकिन आज के डेट में चुनाव चिह्न का महत्व घटा है और पार्टी का महत्व बढ़ा है। पार्टियां चुनाव चिह्न बदलने के बाद भी चुनाव जीतती रही हैं। कहा जाता है कि जब नेता का स्टार चरम होता रहा है तो  नेता नाम पर पार्टी चुनाव जीतती रही हैं।  दरअसल शुरुआती दौर में भारत में साक्षरता दर कम होने के कारण पार्टी के चुनाव चिह्न का ज्यादा महत्व था। लोग चुनाव चिह्न के आधार पर वोट देते थे। इसीलिए उस दौर में चुनाव चिह्न का ही ज्यादा प्रचार-प्रसार किया जाता था। लेकिन बदले दौर में  आज पार्टी का महत्व ज्यादा है। इसलिए वोटर पहले चुनाव चिह्न को वोट देते थे और अब पार्टी को वोट देने लगे हैं। आज पार्टी का चुनाव चिह्न बदल जाये तो भी बहुत फर्क नहीं पड़ता है। चूंकि लोग चुनाव चिह्न से ज्यादा देश के बड़ों नेताओं को बखूबी पहचानने लगे है।अलबत्ता पुराने दौर में उम्मीदवारों को ऐसे चुनाव चिह्न अलॉट किए जाते थे, जो रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े थे और जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकता था। दरअसल शुरुआती दौर में उम्मीदवारों के बैलेट पेपर से वोटिंग होती था और साक्षरता कम होने के कारण चुनाव चिह्न से वोटर पार्टी को पहचानता था और उसके चुनाव चिह्न को। आज का वोटर प्रत्याशी के इवीएम के बैलेट यूनिट पर अंकित प्रत्याशी के नाम और चुनाव चिह्न को पहचान कर वोट कर देता है। अलबत्ता खासकर महिला वोटर को बैलेट यूनिट पर कैंडिडेट का नंबरिंग रटाया और बताया जा रहा है।
शिक्षाविद डॉ मिथिलेश सिंह कहते हैं कि पहले चुनाव चिह्न से नेता को पहचानते थे और आज नेता से चुनाव चिह्न को पहचान जाते हैं। दरअसल शुरुआती दौर में देश नेहरू जी,गांधी जी,राजेंद्र बाबू जैसे नेताओं को ही पहचानता था।बाकी सोशलिस्ट नेता राममनोहर लोहिया जैसे नेताओं को उनके चुनाव चिह्न से पहचानता था। इसलिए लोगों को चुनाव चिह्न को भलीभांति रटा दिया जाता था।उन्होंने बताया कि चुनाव चिह्न को आम आदमी के जीवन की आवश्यकताओं और उसकी समस्याओं से जोड़कर समझाया जाता था। भारत के लोकतांत्रिक  इतिहास के शुरुआती समय में कांग्रेस का चुनाव चिह्न जोड़ा-बैल को आम आदमी से कनेक्ट किया जाता था।
जैसे कहा जाता था कि एक जोड़ा बैल नहीं रहने पर खेती -गृहस्थी प्रभावित होगी। उसी तरह  सोशलिस्ट के चुनाव चिह्न ‘झोपड़ी’ समाज के गरीब आदमी और मध्यमवर्गीय किसान की प्रतीक थी। पुराने दौर के एक स्लोगन की बानगी-‘ दीया में तेल नईखे, झोपड़ी अन्हार बा,कांग्रेस के वोट दीहल बिल्कुल बेकार बा’। यानी चर्चा और प्रचार के केंद्र में चुनाव चिह्नों को रखा जाता था। इससे साबित होता है कि उस दौर में  चुनाव चिह्न काफी महत्वपूर्ण थे। साक्षरता दर बढ़ने के बाद अब तो कैंडिडेट का चुनाव चिह्न वोटर खुद खोज और पहचान लेता है।
डॉ सिंह कहते हैं कि कांग्रेस का चुनाव चिह्न बदलने पर वोटरों ने नये चुनाव चिह्न पर वोट देना शुरु कर दिया था। यानी नेता महत्वपूर्ण हो गये थे और चुनाव चिह्न गौण। उस दौर में जोड़ा-बैल, बरगद,झोपड़ी, दीपक आदि महत्वपूर्ण चुनाव चिह्न थे। वहीं अब हाथ का पंजा, कमल, साइकिल, तीर,लालटेन, हाथी, तीर-धनुष आदि महत्वपूर्ण चुनाव चिह्न हैं। बहरहाल, पहले चुनाव चिह्न को वोट पड़ता था और अब पार्टी को वोट मिलने लगा है। बदलते दौर के साथ पार्टी और चुनाव चिह्नों का महत्व घटता-बढ़ता रहा है।

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