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शिकागो भाषण की स्मृतिः विश्व पटल पर एक प्रखर भारतीय संन्यासी. - श्रीनारद मीडिया

शिकागो भाषण की स्मृतिः विश्व पटल पर एक प्रखर भारतीय संन्यासी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जब अफगानिस्तान में कट्टर इस्लामिक उभार के कारण मानवता त्राहि-त्राहि कर रही है, तब कम्युनिस्ट जमात ‘हिंदुत्व’ को समाप्त करने के लिए उस अमेरिका में जुट रहे हैं। भारत और हिन्दू विरोधी ताकतें मानवतावादी दर्शन ‘हिंदुत्व’ के विरुद्ध किस हद तक षड़यंत्र रचती हैं, उसका नया उदाहरण है- ‘वैश्विक हिंदुत्व को खत्म करना: बहुआयामी परिप्रेक्ष्य’ विषय पर अमेरिका में आयोजित तीन दिवसीय अकादमिक सम्मलेन। आयोजनकर्ताओं की मानसिकता को इस मूर्खतापूर्ण सम्मलेन की तिथि के चयन से भी समझा जा सकता है।

अमेरिका के इतिहास में 11 सितम्बर दो कारणों से अविस्मरणीय है। एक, इस्लामिक आतंक द्वारा अमेरिका की विश्व प्रसिद्ध इमारत वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला। दो, शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मलेन और वहां हिंदुत्व की गूँज। स्पष्ट है कि कम्युनिस्ट एवं हिन्दू विरोधी ताकतें उपरोक्त आयोजन के माध्यम से इस्लामिक कट्टरता/आतंक पर पर्दा डालकर हिंदुत्व पर हमलावर होना चाहते हैं। परन्तु हिंदुत्व के विरोधी न तो 1893 में उसको दबा पाए और न आज उसे ख़त्म कर सकते हैं। स्मरण रखें कि शिकागो के इतिहास धर्म सम्मलेन में एक अनजान युवा संन्यासी ने हिंदुत्व के विचार को प्रखरता के साथ सामने रखा तो दुनियाभर में धर्म के नाम पर रक्त बहाने वाले बगलें झांकने पर मजबूर हो गए थे।

यही कारण है कि 128 वर्ष बाद भी ‘11 सितम्बर’ को न केवल भारत बल्कि मानवता में विश्वास रखने वाले सब लोग गर्व के साथ स्मरण करते हैं। इस दिन न केवल हिंदुत्व की पताका और ऊंची हुई, अपितु एक प्रखर भारतीय संन्यासी का भी विश्व पटल पर पदार्पण हुआ था। 11 सितम्बर, 1893 के पहले बंगाल छोड़कर शेष भारत में भी वह युवा संन्यासी अल्प परिचित ही था। शिकागो के विश्व धर्म सम्मलेन के मंच पर हिंदुत्व के स्वर को बुलंद करने वाला वह ओजस्वी वक्ता कोई और नहीं, युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द थे।

सम्मेलन में विवेकानन्द के अतिरिक्त भारत से अन्य प्रतिनिधि भी सहभागी हुए थे, लेकिन वे केवल अपने मत-सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। एकमात्र विवेकानन्द ही स्वयं को हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने में सफ़ल हुए। भारत और हिन्दू धर्म के लिये यह उस समय की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी गई थी। उसका कारण था, भारत में सक्रिय मिशनरियों द्वारा पश्चिमी देशों में अपने निहित स्वार्थों के लिये हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज को विकृत स्वरूप में प्रस्तुत किया जा रहा था।

स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पीड़ा इन शब्दों में व्यक्त की, वे पूछते हैं- “बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में उन चित्रों की क्या सार्थकता है, जिनमें हिन्दू माता अपने बच्चों को गंगा में घड़ियाल के आगे फेंकती दर्शायी गई है? माता काले रंग की है, किन्तु बच्चे को गोरा दिखाया गया है ताकि कुछ सहानुभूति उपजे और कुछ अधिक पैसा बटोरा जा सके। उन चित्रों का क्या अर्थ है जो दिखाते हैं कि एक व्यक्ति अपने हाथों से, किसी सिद्धि के लिये, अपनी ही पत्नी को जला रहा है ताकि वह प्रेत बनकर पति के शत्रु को सताये? उन चित्रों का क्या अर्थ है, जिनमें बड़ी-बड़ी कारें मानवों को रौंद रही हैं?

वे कहते हैं कि मेमफ़िस में मैंने मिशनरियों में से एक को उपदेश करते सुना कि भारत के हर गाँव में बच्चों की हड्डियों से भरा एक-एक तालाब है……। ईसा के इन चेलों का हिंदुओं ने क्या बिगाड़ा है कि हर ईसाई बच्चे को यह सीख दी जाती है कि हिन्दुओं को निकम्मा शैतान और दानव कहे।” विशप हेबर जैसे ईसाई मिशनरीज़ भारत के बारे में लिख रहे हैं – “जहाँ प्रत्येक सम्भावना प्रमुदित करती है, परन्तु मनुष्य अधम है।”

ऐसा नहीं था कि इसके पूर्व भारत के कोई सांस्कृतिक प्रतिनिधि अमेरिका सहित पश्चिम के देशों में गये नहीं थे। इसके पूर्व हुए धर्म सम्मेलन में भी भारत के विभिन्न मत-सम्प्रदाय के प्रतिनिधि भाग ले चुके थे। शिकागो धर्म संसद में भी विवेकानंद जी के अतिरिक्त वहाँ ब्रह्म समाज के प्रताप मजूमदार, मुंबई से नागरकर थियोसफ़ी के प्रतिनिधि एनिबेसेंट, जैन समाज के वीरेन्द्र गाँधी एवं बौद्ध प्रतिनिधि धर्मपाल भी प्रतिभागी के नाते सम्मिलित हुए। इस वातावरण में हिन्दूधर्म की श्रेष्ठता स्थापित करना उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता थी, जिसको स्वामी जी स्थापित करने में सफ़ल हुए।

11 सितम्बर को प्रारम्भ होकर 17 दिन चलने वाले विश्व धर्म सम्मेलन के आयोजन का उद्देश्य भी दुनिया के धर्मों के बीच ईसाई धर्म की श्रेष्ठता स्थापित करना था, जिसकी पुष्टि सम्मेलन के सभापति जॉन हेनरी बेरोज के बयान से होती है। सभापति जॉन हेनरी बेरोज ने आशा व्यक्त की कि धर्म संसद के समापन पर इस तथ्य को सहज स्वीकृति मिल जाएगी कि ईसाईयत विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है।

जिनको मूर्ति पूजकों को समकक्ष बिठाने पर आपत्ति थी उनको उत्तर देते हुए बेरोज ने कहा कि सलीब के सुदीप्त आलोक में जो लोग हैं, उन्हें जो धूमिल प्रकाश में मार्ग तलाश रहे हैं, सभी लोगों के प्रति भ्रातृभाव रखना चाहिए। इसके बावजूद दुनिया भर के पादरियों ने आयोजकों पर ईसाईयत के विरुद्ध विश्वासघात का आरोप लगाया। ईसाई पादरी ग़ैर ईसाई जगत के समक्ष ईसाईयत की श्रेष्ठता स्थापित करने के असाधारण अवसर के रूप में इसे देख रहे थे। वे इसके माध्यम से ईसाईयत का अधिकाधिक प्रदर्शन चाहते थे।

इधर, स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर के अपने प्रस्तावित भाषण में ही शिकागो सभा के 4000 से अधिक विद्वत वर्ग को न केवल अभिभूत किया बल्कि आयोजकों के ईसाई धर्म की श्रेष्ठता के सपने को ही ध्वस्त कर दिया। उनके ‘अमेरिकन बहिन एवं भाइयों’ के सम्बोधन मात्र से पूरा हाल कई मिनट तक तालियों की गूंज से निनादित होता रहा। इन दो शब्दों ने चमत्कारिक प्रभाव छोड़ा।

इसका कारण था। इस संन्यासी द्वारा स्त्री को पहला स्थान देना और सारे विश्व को कुटुम्ब मानकर संबोधित करना। इन शब्दों में भारतीय चिंतन की वसुधैव कुटुम्बकम की विशालता अभिव्यक्त हो रही थी। अपने पाँच मिनट के भाषण में ही उन्होंने दुनिया के सामने हिन्दू दर्शन एवं हिन्दुत्व को स्वीकार्यता दिला दी।

उन्होंने कहा- “मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेज़ी के अन्यतावादी (exclusion) का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है। मुझे ऐसे देश के व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त जातियों एवं विभिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलंबियों को आश्रय दिया। जिस वर्ष यहूदियों का पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से मिट्टी में मिला दिया गया, उसी वर्ष कुछ यहूदी आश्रय लेने दक्षिण भारत के तट पर उतरे तो हमारी जाति ने उन्हें सीने से लगा लिया। उन्हें अपनी उपासना पद्धति के अनुसार उपासना करने पर सहमति दी। पारसियों की रक्षा की। अब भी भारत उनका पालन-पोषण कर रहा है।

अपने उद्बोधन के अंत में उन्होंने सेमेटिक मानसिकता पर प्रबल प्रहार किया। उन्होंने कहा- “मैं आशा करता हूँ जो घंटे आज सुबह सभा के सम्मान में बजे, वे समस्त कट्टरताओं, तलवार एवं लेखनी के बल पर किये जाने वाले अत्याचारों एवं पारस्परिक कटुता की मृत्यु सिद्ध होंगे।” इस सम्मेलन में स्वामी जी का दूसरा भाषण 15 सितम्बर को हुआ। विषय था- ‘सम्प्रदाय में भ्रातृभाव’। सम्प्रदाय की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये एक दूसरे को बुरा कहने को बंद करने का आह्वान करते हुए स्वामी जी ने कूप मंडूक की कथा सुनाई। 19 सितम्बर को प्रमुख भाषण हुआ,

विषय था- ‘हिंदू धर्म’। उन्होंने कहा– “हिंदू धर्म की अभ्यांतरिक शक्ति अनेक पंथों-मतों के उद्भव में है। इसके विपरीत यहूदी धर्म, ईसाई धर्म को न पचा पाने के कारण अब केवल अवशेष मात्र रह गया है। हिंदू धर्म में आत्मा की जो व्याख्या है, पश्चिम में आत्मा जैसी कोई कल्पना नहीं है। पुनर्जन्म, कर्मवाद, निष्काम कर्म पर भारतीय चिंतन में प्रकाश डाला गया है। मनुष्य पापी नहीं, अमृत पुत्र है। उसमें स्वयं भगवान बनने की क्षमता है। मूर्ति पूजा प्रथम सीढ़ी है। 20 सितम्बर को उन्होंने भारत में मिशनरियों द्वारा चलाये जा रहे धर्म परिवर्तन पर ही प्रश्न खड़ा करते हुए कहा- “भूखे लोगों को धर्म का उपदेश देना, उनका अनादर एवं तिरस्कार करना है। हिंदुस्थान के लोगों को अन्न-रोटी और वस्त्र की आवश्यकता है।

आध्यात्मिक ज्ञान की नहीं”। 26 सितम्बर को हिंदू धर्म का बौद्ध धर्म के साथ सम्बन्ध पर भाषण हुआ। 27 सितम्बर को अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा- “यदि कोई यह कल्पना कर रहा है कि इस सम्मेलन में एक धर्म की विजय और बाक़ी का विनाश साबित होगा तो आशा व्यर्थ है”। आज जो ताकतें हिंदुत्व को समाप्त करने का दिवास्वप्न पालकर अमेरिका में ही आयोजित ‘वैश्विक हिंदुत्व को खत्म करना: बहुआयामी परिप्रेक्ष्य’ सम्मलेन में एकत्र होकर विचारों की जुगाली करने वाली हैं, उनकी मंशा भी निश्चित ही व्यर्थ है। हिंदुत्व तो अपनी प्रखरता के साथ क्षितिज पर चढ़ता जा रहा है। उस पर धूलि डालना मूर्खों और कूप-मंढूकों का ही कार्य है।

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