कान फिल्म फेस्टिवल में बढ़ी हिंदी की लोकप्रियता.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
फ्रांस में आयोजित विश्व प्रसिद्ध कान फिल्म फेस्टिवल में हिंदी के कालजयी कवि जयशंकर प्रसाद की कविता। यह सोचना या कल्पना करना थोड़ा कठिन था लेकिन फेस्टिवल के इस संस्करण में ये हुआ। इंडिया फोरम के एक कार्यक्रम में अभिनेत्री वाणी त्रिपाठी टिक्कू ने जयशंकर प्रसाद की कविता की पंक्तियों से एक चर्चा सत्र का समापन किया।
जब वाणी ने जयशंकर प्रसाद की कविता की पंक्तियां, हिमाद्री तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती, अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो-बढे चलो, सुनाई तो हाल तालियों से गूंज उठा। वाणी ने ‘बढ़े चलो’ से भारतीय दर्शन को जोड़कर आगे बढ़ने की बात कही। कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान हिंदी के कई वाक्य और मुहावरे गूंजे। सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने इंडिया फोरम के मुख्य मंच से अपनी बात ही हिंदी गीत ‘है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूं, भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं’ से आरंभ की।
गीतकार और लेखक प्रसून जोशी ने भी भारत की रचनात्मकता को ‘बेचैन सपने’ जैसे पद से जोड़ा और कुछ कर गुजरने की बात की। लगभग इसी समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वडोदरा के युवा शिविर को संबोदित कर रहे थे। उन्होंने भी कुछ इसी तरह की बात की। उन्होंने भारत को दुनिया की नई उम्मीद बताते हुए कहा था कि कोरोनाकाल में संकट के बीच दुनिया को वैक्सीन और दवाईयां पहुंचाने से लेकर बिखरी हुई सप्लाई चेन के बीच आत्मनिर्भर भारत की उम्मीद तक, वैश्विक अशांति और संघर्षों के बीच शांति के लिए एक सामर्थ्यवान राष्ट्र की भूमिका तक, भारत आज दुनिया की नई उम्मीद है।
ऐसे वक्त में जब देश में कुछ राजनीतिज्ञ हिंदी और भाषा को लेकर राजनीति कर रहे हों तो वैश्विक मंच पर भारत के गौरव को, भारतीय दर्शन को, भारत के युवाओं के सपनों को हिंदी में अभिव्यक्त करना न सिर्फ हिंदी बल्कि भारतीय भाषाओं का भी सम्मान है। वोट की राजनीति के लिए भाषा को हथियार बनाकर समाज को बांटने की जुगत में लगे नेताओं को ये बात समझनी होगी कि भारत की आकांक्षाओं को वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए वैश्विक मंचों पर भारतीय भाषा में बात करनी होगी।
हिंदी के लोगों को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि हिंदी की उन्नति का रास्ता भी भारतीय भाषाओं के आंगन से होकर जाता है। इस बार कान फिल्म महोत्सव में भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने इस सोच को पूरी दुनिया के सामने रखा। यह अनायास नहीं था कि मंत्री अनुराग ठाकुर जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ रेड कार्पेट पर चल रहे थे तो उनकी शेरवानी के बटन पर हिंदी, मराठी, गुजराती समेत अन्य भारतीय भाषाओं में भारत लिखा था।
भारतीय फिल्मों को वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान को गाढ़ा करना है तो उसको भारत की कहानियों पर ध्यान देना होगा। अभिनेता माधवन ने ठीक कहा कि उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक में भारतीय समाज के नायकों की, उनकी सफलताओं की कहानियां बिखरी हैं। उन कहानियों पर फिल्में बनाई जाएं तो भारतीय फिल्मों की व्याप्ति पूरी दुनिया में होगी। आर्यभट्ट से लेकर सुंदर पिचाई तक भारतीयों की सफलता की कहानी पूरी दुनिया को बताने की जरूरत है। माधवन ने इसरो के वैज्ञानिक नंबी नारायणन की जिंदगी पर आधारित फिल्म राकेट्री, द नंबी इफेक्ट बनाई है जिसका प्रदर्शन कान में हुआ। ये फिल्म हिंदी, तमिल, तेलुगू समेत कई भारतीय भाषाओं में बनाई गई है।
वैज्ञानिकों और तकनीक के महारथियों के जीवन पर बनी फिल्मों में अलग-अलग देशों के दर्शकों की रुचि इस वजह से संभव है कि उनके कार्य को कई देश के लोग जानते हैं। आज अगर गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई और माइक्रोसाफ्ट के सत्य नडेला की सफलता की कहानी को फिल्मों में चित्रित किया जाता है तो वो न केवल दुनिया के युवाओं को आकर्षित करेगी बल्कि भारत के गौरव को भी दुनिया में स्थापित कर सकेगी।
आज अगर कोई फिल्मकार कोरोनाकाल में भारत की महामारी से लड़ने की जिजीविषा को केंद्र में रखकर फिल्म बनाता है तो पूरी दुनिया उसको ध्यान से देखेगी। कोरोनाकाल में जिस तरह से भय का वातावरण बना था और उस वातावरण में भारत ने वैक्सीन बनाया। भयंकर भय के उस माहौल में इस विशाल देश में वैक्सीन को अलग अलग राज्यों तक पहुंचाना और करोड़ों लोगों का टीकाकरण कराना किसी थ्रिलर से कम नहीं है।
यह भी एक सुखद संयोग है कि कान फिल्म महोत्सव अपनी स्थापना के पचहत्तरवें साल में है, भारत अपनी स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है और भारत और फ्रांस के राजनयिक संबंध के भी 75 साल हो रहे हैं। इस संयोग को कान फिल्म फिल्म फेस्टिवल ने उत्साह के साथ समरोहपूर्वक मनाने का निर्णय लिया। भारत को फेस्टिवल के दौरान सम्मानित देश (कंट्री आफ आनर) का दर्जा दिया गया। ये पहली बार हो रहा है कि फिल्म फेस्टिवल के दौरान किसी भी देश को सम्मानित देश के तौर पर आमंत्रित किया गया है।
कान फिल्म फेस्टिवल में चेतन आनंद की 1946 की फिल्म ‘नीचा नगर’ को सम्मानित किया जा चुका है, सत्यजित राय की फिल्म पाथेर पंचाली को भी । 2013 में अमिताभ बच्चन और लियेनार्दो द कैप्रियो ने संयुक्त रूप से कान फिल्म फेस्टिवल के औपचारिक शुरुआत की घोषणा की थी। भारत के फिल्मकार समय समय पर कान फिल्म फोस्टिवल की जूरी में नामित होते रहे हैं। अब कान फिल्म फेस्टिवल ने भारत की फिल्मों को,यहां की कहानियों को लेकर विशेष रुचि दिखाई है।
फ़िलल्म फेस्टिवल में भारतीय फिल्मों और फिल्मकारों को इतना महत्व मिलना ये साबित करता है कि पूरी दुनिया भारतीय मनोरंजन जगत को बहुत संजीदगी से देख रही है। मशहूर फिल्मकार और भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे के चेयरमैन शेखर कपूर ने कान फिल्म फेस्टिवल के मंच से कहा कि ये भविष्य का उत्सव है।
अब जब पूरी दुनिया भारतीय फिल्मों की ओर एक उम्मीद भरी नजरों से देख रही है तो भारतीय फिल्मकारों खासतौर पर हिंदी के फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों के सामने उन उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती है। ऊलजलूल कहानियों से आगे जाकर, बेवजह की मारधाड़ और यौनिकता से आगे जाकर भारत के गौरव को स्थापित करने वाली कहानियों को लेकर फिल्में बनानी होंगी। फिल्मकारों के लिए मुनाफा पहली प्राथमिकता है, होनी भी चाहिए लेकिन सिर्फ मुनाफे के लिए फिल्म बनाकर इस कला को समृद्ध नहीं किया जा सकता है। कला की उत्कृष्टता को बरकरार रखकर भी मुनाफा कमाया जा सकता है।
पूर्व में कई फिल्मकारों ने ऐसा किया भी है। फिल्म ‘रंग दे बसंती’ और ‘तारे जमीं पर’ आदि का उदाहरण दिया जा सकता है। राजमौली ने अपनी फिल्मों में साबित किया है कि कला की भव्यता से भी जमकर पैसा कमाया जा सकता है। इस काम में राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम की महती भूमिका हो सकती है। भारत सरकार की इस संस्था को आगे आकर उन फिल्मकारों की पहचान करनी होगी जो भारतीय भूभाग पर बिखरी कहानियों की खोज करें। साथ ही उन फिल्मकारों को चिन्हित करें जो इन कहानियों पर उत्कृष्ट फिल्में बनाकर दर्शकों के सामने पेश कर सकें।
इसके लिए आवश्यक है कि भारतीय फिल्म विकास निगम के पुनर्गठन के कार्य में तेजी लाई जाए। इसको अफसरशाही और लालफीताशाही की जकड़न से मुक्त किया जाए। फिल्म की समझ रखनेवाले, भारतीय कहानियों को, भारतीय भाषाओं में समझने और उसको भारतीय भाषाओं में ही अभिव्यक्त करनेवालों की भूमिका बढ़ाई जाए। अगर ऐसा हो पाता है तो न केवल भारतीय फिल्मों का भला होगा बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया जिस ‘नई उम्मीद’ की बात कर रहे हैं वो भारतीय फिल्म जगत में भी साकार हो सकेगा।
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