संघीय लचीलेपन की उपस्थिति लोकतंत्र को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संघवाद (Federalism) मूल रूप से एक द्वैध सरकार प्रणाली (Dual Government System) है, जिसमें एक केंद्र और कई राज्य शामिल होते हैं। संघवाद संविधान की मूल संरचना के स्तंभों में से एक है।

  • हालाँकि, हाल के वर्षों में केंद्र सरकार की आक्रामक नीतियों के साथ ही कोविड महामारी से लगे आर्थिक झटके ने राज्य सरकारों की राजनीतिक स्थिति के साथ-साथ उनकी वित्तीय स्थिति भी बिगाड़ दी है।
  • जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में दुहराया था कि राज्य, संघ के महज उपांग नहीं हैं और संघ को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि राज्यों की शक्तियों को कुचला नहीं जाएगा।

भारत में संघवाद

  • भारतीय संघवाद की प्रकृति: संघीय सिद्धांतकार के.सी. व्हेयर के अनुसार भारतीय संविधान की प्रकृति ‘अर्द्ध-संघीय’ (Quasi-Federal) है।
    • सतपाल बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (1969) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि भारत का संविधान संघीय या एकात्मक की तुलना में अर्द्ध-संघीय अधिक है।
  • संवैधानिक प्रावधान: राज्यों और केंद्र की संबंधित विधायी शक्तियाँ भारतीय संविधान के अनुच्छेद-245 से 254 तक वर्णित हैं।
    • संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ शामिल हैं जो केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति का वितरण करती हैं। (अनुच्छेद 246)
      • संघ सूची के 98 विषयों पर संसद को कानून बनाने का विशेष अधिकार प्राप्त है।
      • राज्य सूची के 59 विषयों पर केवल राज्य कानून बना सकते हैं।
      • समवर्ती सूची के 52 विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं।
        • हालाँकि टकराव की स्थिति में संसद द्वारा बनाया गया कानून प्रभावी होता है (अनुच्छेद 254)।
  • कुछ मामलों में राज्य की पूर्ण शक्ति: सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों (जैसे कि बॉम्बे राज्य बनाम एफ.एन. बलसारा मामला, 1951) के अनुसार, यदि कोई अधिनियम राज्य सूची को सौंपे गए विषयों में से एक के अंतर्गत आता है और ‘तत्व और सार’ का सिद्धांत (Doctrine of ‘Pith and Substance’) लागू किये जाने के बाद भी समवर्ती या संघीय सूची में शामिल किसी प्रविष्टि के साथ उसका मेल या सुलह संभव नहीं हो, तो राज्य विधानमंडल का विधायी अधिकार प्रबल होना चाहिये।

संघवाद से संबद्ध समस्याएँ

  • राजकोषीय नीतियों में केंद्रीय प्रभुत्व की वृद्धि: केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों ने राजकोषीय संघवाद (Fiscal Federalism) के सिद्धांतों को कमज़ोर किया है। इसकी अभिव्यक्ति इन घटनाओं में देखी जा सकती है:
    • केंद्र प्रायोजित योजनाओं (CSS) में राज्यों की बढ़ती मौद्रिक हिस्सेदारी।
    • राज्यों के साथ उपयुक्त परामर्श के बिना ही विमुद्रीकरण (Demonetization) का आरोपण।
    • स्मार्ट सिटीज़ मिशन के तहत सांविधिक कार्यों की आउटसोर्सिंग।
    • वर्ष 2020-21 तक पेट्रोलियम क्षेत्र के कुल योगदान में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी 68% थी, जिससे राज्यों के हिस्से में केवल 32% शेष रह गया था।
      • जबकि वर्ष 2013-14 में केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी लगभग 50:50 थी।
  • कोविड-19 का प्रभाव: टेस्टिंग किटों की खरीद, टीकाकरण, आपदा प्रबंधन अधिनियम-2005 के उपयोग और अनियोजित राष्ट्रीय लॉकडाउन जैसे कोविड प्रबंधन संबंधी पहलुओं में राज्यों की शक्ति में कटौती की गई।
    • इसके अलावा, दूसरी लहर के दौरान लचर तैयारी के लिये आलोचना की शिकार केंद्र सरकार ने अपना बचाव स्वास्थ्य का राज्य सूची का विषय होने के कमज़ोर तर्क के साथ किया था।
  • राज्यों की स्वायत्तता को कमज़ोर करने वाले विधान: हाल के समय में केंद्र सरकार द्वारा पेश किये गए कई अन्य विधेयकों और संशोधनों ने भी राज्यों की स्वायत्तता को कमज़ोर किया है। इनमें शामिल हैं:
    • तीन कृषि कानून (जो अब निरस्त कर दिये गये हैं) 
    • बैंकिंग विनियमन (संशोधन) अधिनियम 2020
    • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार संशोधन अधिनियम, 2021
    • भारतीय समुद्री मात्स्यिकी विधेयक, 2021
    • बिजली (संशोधन) विधेयक, 2020 का मसौदा
    • राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
  • कराधान संबंधी समस्याएँ: पेट्रोल कर में उपकर के रूप में करों के गैर-विभाज्य पूल का विस्तार करने और ‘कृषि अवसंरचना एवं विकास उपकर’ की शुरुआत के परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति बनी है, जहाँ राज्यों की तुलना में केंद्र को कर संग्रह से विशेष रूप से लाभ प्राप्त होता है।
    • केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किये गए कुल करों में गैर-विभाज्य पूल उपकर और अधिभार की हिस्सेदारी वर्ष 2019-20 में 12.67% से बढ़कर वर्ष 2020-21 में 23.46% हो गई है।
    • वर्ष 2021-22 के बजट अनुमानों से संकेत मिलता है कि केंद्रीय कर में राज्यों की हिस्सेदारी 15वें वित्त आयोग द्वारा निर्धारित अनिवार्य 41% हस्तांतरण के मुकाबले घटकर 30% हो गई है।
    • जीएसटी संबंधी समस्याएँ: महामारी के दौरान केंद्र सरकार ने जीएसटी व्यवस्था के तहत राज्यों को प्राप्त मुआवजे की गारंटी का बार-बार उल्लंघन किया।
      • राज्यों को उनके बकाया का भुगतान करने में देरी से आर्थिक मंदी का प्रभाव और गहन हो गया।
      • जीएसटी मुआवजा अवधि वर्ष 2022 में समाप्त हो रही है और राज्यों द्वारा बार-बार अनुरोध किये जाने के बावजूद समय-सीमा को आगे नहीं बढ़ाया गया है।
  • अपर्याप्त वित्तपोषण: नकदी की कमी वाले राज्य अपने कार्यक्रमों का कार्यान्वयन बनाए रखने के लिये धन सृजन के गैर-कर उपायों की तलाश कर रहे हैं।
    • संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास (MPLAD) धन के स्थगन और भारत की संचित निधि में इसके हस्तांतरण के साथ अधिकांश राज्यों के लिये गंभीर संकट की स्थिति उत्पन्न हुई है।
    • हालाँकि सरकार ने राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम (FRBM) के तहत उधार लेने की सीमा को 3% से बढ़ाकर 5% कर दी है, लेकिन इसने कुछ प्रतिबंधात्मक शर्तें भी लगाई हैं जिससे राज्यों के लिये उधार लेना अधिक कठिन हो गया है।

आगे की राह

  • संघवाद पर पुनर्विचार: केंद्र सरकार के नीतिगत दुस्साहस संघवाद के संबंध में विचार और आत्मनिरीक्षण की मांग को प्रेरित कर रहे हैं।
    • राज्यों को समवर्ती सूची के तहत कानून के क्षेत्रों में संघ और राज्यों के बीच परामर्श को अनिवार्य और सुविधाजनक बनाने हेतु एक औपचारिक संस्थागत ढाँचे के निर्माण की मांग करनी चाहिये।
  • अंतर्राज्यीय संबंधों को सुदृढ़ करना: राज्य सरकारों को मानव संसाधनों की तैनाती पर विचार करना चाहिये जो केंद्र द्वारा शुरू किये गए परामर्शों पर अनुरूप प्रतिक्रियाओं के निर्माण में, विशेष रूप से संघवाद के दृष्टिकोण से ध्यान केंद्रित करते हुए, उनका समर्थन करे।
    • केवल संकट की स्थिति में एक-दूसरे से परामर्श के बजाय राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस विषय पर नियमित संलग्नता के लिये एक मंच का निर्माण करना चाहिये।
      • जीएसटी मुआवज़े का विस्तार वर्ष 2027 तक किये जाने और करों के विभाज्य पूल में उपकर को शामिल किये जाने जैसी प्रमुख मांगों की वकालत में यह कदम महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा।
  • परामर्श ही कुंजी है: संविधान निर्माताओं की मंशा यह सुनिश्चित करना था कि लोक कल्याण की रक्षा की जाए और इसकी कुंजी हितधारकों की आवश्यकताओं व अपेक्षाओं को सुने जाने में निहित है।
    • सहकारी संघवाद का सार परामर्श और संवाद में निहित है, जबकि राज्यों को विश्वास में लिये बिना एकतरफा कानून थोपा जाना सड़कों पर खुले प्रतिरोध का कारण ही बनेगा।
  • संघवाद को संतुलित करते हुए सुधार लाना: भारत जैसे विविध देश को संघवाद के विभिन्न स्तंभों (यथा राज्यों की स्वायत्तता, केंद्रीकरण, क्षेत्रीयकरण आदि) के बीच एक उचित संतुलन की आवश्यकता है। अत्यधिक राजनीतिक केंद्रीकरण या अराजक राजनीतिक विकेंद्रीकरण, दोनों ही भारतीय संघवाद को कमज़ोर कर सकते हैं।
    • विवादास्पद नीतिगत मुद्दों पर केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक सद्भावना विकसित करने के लिये अंतर्राज्यीय परिषद के संस्थागत तंत्र का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
    • केंद्र की हिस्सेदारी में कोई कटौती किये बिना राज्यों की राजकोषीय क्षमता के क्रमिक विस्तार की कानूनी गारंटी सुनिश्चित की जानी चाहिये।

निष्कर्ष

संघीय लचीलेपन की उपस्थिति या कमी लोकतंत्र को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। केंद्र सरकार को कानून बनाने की प्रक्रिया के एक अंग के रूप में राज्यों के साथ प्रभावी परामर्श की सुविधा हेतु संसाधनों का निवेश करना चाहिये। एक ऐसी प्रणाली स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है, जहाँ नागरिकों और राज्यों को भागीदार के रूप में देखा जाता है, न कि अधीनस्थों के रूप में।

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