सारण में शराब के सेवन से हो रही मौत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा
प्रशासन के जहां पांव फूल रहे हैं वहीं आम नागरिक है हतप्रभ
श्रीनारद मीडिया, चंद्रशेखर, छपरा (बिहार):
सारण में शराब के सेवन से हो रही मौत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. जिला के कई प्रखंड क्षेत्रों में लोगों के जहरीली शराब पीकर मरने की ह्रदय विदारक खबर विचलित करने वाली है. घटना दुर्भाग्यपूर्ण है. इसने सबको सकते में डाल दिया है. एक ओर शासन और प्रशासन के जहां पांव फूल गए है तो वहीं दूसरी ओर आम नागरिक हतप्रभ है.
इसे लेकर राजनीतिक रोटियां सेकने का काम भी प्रारंभ हो गया है. इसकी गूंज बिहार विधानसभा से लेकर देश की संसद तक सुनी जा रही है. बिहार जैसे ओजस्वी राज्य में शराबबंदी को एक मिशन के तौर पर लिया गया था, जिससे कुछ बेहतर होने की आशा थी. यह सरकार की एक अति महत्वकांक्षी योजनाओं में से एक थी. पूर्ववर्ती गठबंधन की सरकार ने बड़े ही शोर और उत्साह के साथ शराबबंदी कानून को लागू किया था, परंतु इस तरह की घटनाओं ने शराबबंदी के उद्देश्यों पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है.
जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए यह कदम उठाया गया था, उसमे बहुत बड़ी सफलता मिलती दिखाई नहीं पड़ती. हालांकि सामाजिक रूप से कुछ परिवर्तन और फायदे अवश्य हुए हैं, जिन्हे नकारा नहीं जा सकता, तथापि शराब बंदी का एक स्याह पक्ष भी है, जिसकी चर्चा दबी जुबान ही सही लोग करते रहे हैं. शरबबंदी कानून लागू होने के बाद इसे सख्ती से लागू करने की हड़बड़ी ने गड़बड़ी की. इस कानून की कुछ धाराएं ऐसी हैं, जो आईपीसी की तरह सख्त है. जैसे कि शराब पीने की योजना बना रहे के आधार पर लोगों की गिरफ्तारियां करने का प्रावधान.
प्रारंभ में इसे कानून के डंडे के सहारे लागू करने के साथ व्यापक जन जागरण अभियान चलाया जाना जरूरी था, जिस पर कुछ खास नहीं किया गया. शराब चुलाई, ताड़ी बिक्री के धंधे में जो लोग लगे थे, उनकी जीविका के साधन के लिए अचानक से सब कुछ बंद होने के बाद कोई दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए थी, पर उसमे भी चूक हुई. बिहार में देशी शराब और ताड़ी का व्यवसाय एक खास वर्ग का जातिगत पेशा है, तो वही विदेशी शराब के कारोबार में राजनीतिक रूप से सक्रिय दो संपन्न जातियों का दबदबा रहा है.
शराबबंदी लागू होने के बाद एक ओर जहां जातिगत पेशा वाले लोगों के समक्ष भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई तो, वही दूसरी ओर इसके उलट राजनीतिक रूप से सशक्त दो विशेष जाति वर्ग के लोगों ने अवैध तरीके से अपने धंधे को चालू रखा और खूब धन अर्जित किया. इसे देख पहले वर्ग के लोगों ने भी छोटे पैमाने पर ही सही पर अवैध तरीके को अपनाना जरूरी समझा. इसका नतीजा यह हुआ कि शराबबंदी की नांव में छेद होना शुरू हो गया.
तीसरी बात जिनके ऊपर शराबबंदी कानून को लागू करने की जिम्मेदारी थी उनकी भी संलिप्तता धधेबाज के साथ हो गई. उन्होंने भी खूब पैसे बटोरे. देखते देखते शराब का कारोबार शॉर्ट टाइम में धन कमाने का एक जरिया बन गया जिसके प्रलोभन में कई जाति और वर्ग के लोग इससे जुड़ गए और शराबबंदी कानून की कब्र खोदने लगे. हजार-पांच हजार के छोटे धंधेबाज की गिरफ्तारियां होने लगी, लाखों करोड़ों की बड़ी मछलियों के लिए समंदर तैयार होते गए. शराब पीने और बेचने खरीदने के जुर्म में एक वर्ग विशेष के लोगों तथा छोटे और मझोले धंधेबाजों की पड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां कर आंकड़े दिखाए गए और शराबबंदी के फायदे का ढिंढोरा पीटा गया जबकि जमीनी सच्चाई कुछ और ही रही.
बिहार में शराबबंदी से सिर्फ नुकसान ही हुआ ऐसा भी नही कहा जा सकता. शराबबंदी कानून ने चमत्कारिक ढंग से सामाजिक और आर्थिक मूल्यों में परिवर्तन की राह दिखाई. शराब पीकर सड़कों पर या सार्वजनिक रूप से कही भी उपद्रव और बखेड़ा खड़ा करना बीते दिनों की बात हो गई. कानून ने शराब से किसी न किसी तरह जुड़े लोगों के मन में डर पैदा किया और उन्होंने इससे किनारा करना ही उचित समझा, जिससे अपराध और हिंसक घटनाओं के ग्राफ में कमी आई.
शादी समारोह या उत्सवों में भी खुलेआम जाम छलकने का दौर जाता रहा, जिससे महिलाओं को फायदा हुआ और उन्होंने राहत की सांस ली. मजदूरी, दिहारी करने वाले, रिक्शा ठेला चलाने वाले आदि गरीब आर्थिक रूप से बचत करना सीख गए. उनके घर की शांति पुनः वापस आ गई. महिला हिंसा और प्रताड़ना की घटनाओं में अप्रत्याशित ह्रास हुआ. इज्जतदार शहरियों व ग्रामीणों ने सकून से जीना प्रारंभ किया. ये सब कुछ ऐसे परिणाम रहे जिसके आधार पर शराबबंदी की सराहना की जा सकती है.
जहरीली शराब पीकर मरने की लगातार होती घटनाओं के बाद शराबबंदी कानून को वापस लेने की मांग उठने लगी है. यह कहां तक सही है, इसकी पड़ताल करने के लिए जनमत संग्रह कराने चाहिए. बिहार में शराबबंदी से पूर्व जहरीली शराब पीकर मरने की घटनाओं का भी संख्यात्मक आकलन करना चाहिए. ऐसा बिल्कुल भी नही है कि शराबबंदी के पहले ऐसी घटनाएं नही हुई है, तो भी इन घटनाओं पर अंकुश लगनी चाहिए. सरकार और समाज दोनो की संयुक्त जिम्मेदारी है कि हम ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होने दें.
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