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प्रत्युत्तर, मेरी आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति नहीं, केवल और केवल प्रेमाभक्ति का प्रस्तुतीकरण है.कैसे?

प्रत्युत्तर, मेरी आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति नहीं, केवल और केवल प्रेमाभक्ति का प्रस्तुतीकरण है.कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क


हे अतिप्रिय! ज्ञात हो कि भक्तिकालीन प्रेम विषयक शोध की जिस अवस्था तक मेरी चिन्तनदृष्टि पहुंच गई है। वहां पर कोई प्रत्युत्तर नहीं, कोई अहंकार या प्रतिस्पर्धा नहीं, ईर्ष्या, द्वेष, जलन से युक्त, घुटन से भरे वातावरण का निर्माण नहीं, किसी तरह का आघात-प्रत्याघात या कटाक्ष नहीं और न ही वहां मानसिक अशांति, उत्तेजित और चंचल मनोवृति, एकांतिक स्वच्छंद विचरण तथा दूसरों को पददलित, नीचा तथा परेशान करने ावाली उलंघित और अमर्यादित स्वतंत्रता की परिसीमा ही है।

तो आखिर वहां है क्या? वहा तो केवल प्रेम ही प्रेम है। एक ऐसा निश्चल और पवित्र प्रेम जो घृणा तथा कटाक्ष करने वाले अपने अति प्रिय को प्रेम रूपी घी से सिन्चित कर अभिभूत, सम्मोहित, मंत्रमुग्ध तथा उसे अपना बनाकर, अपने में ही समाहित कर ले। निष्काम, निष्कपट, निष्कलंक प्रेम की यही सच्ची अभिव्यक्ति तो भक्तिकालीन संत कवियों के काव्य में दिखाई देता है

हे अति प्रिय! उस पवित्र प्रेम की उत्कृष्टता, उद्दातता, महानता और व्यापकता की अनुभूति स्वार्थी, भोग विलास में लिप्त रहने वाले, समय-समय पर रूप परिवर्तित करने वाले, किसी भी रिश्ते में लाभ हानि का विचार करने वाले, निर्दोष जीवो के मांस का भक्षण करने वाले, जीव हिंसा से रघुनाथपुर सहित पूरी मोतिहारी की पवित्र धरती को रक्त रंजित करने वाले तथा घृणित, वीभत्स और निकृष्ट भोज्य पदार्थों के सेवन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करने वाले असहाय जीवो के शरीर पर आधिपत्य जमाने वाले क्षणिक वासना में डुबे हुए ये उन्मादी लोग कभी नहीं समझ सकते।

हे अति प्रिय! अपनी हार्दिक प्रसन्नता और प्रेमातिरेक से वशीभूत होकर, कल रात्रि के आठवें प्रहर में, स्वप्नलोक में भ्रमण करते समय फ्लैशबैक पद्धति में उसी मधुर पुनरावृत्ति का दिग्दर्शन किया। उस स्वप्न में वही निश्चल और निष्कपट प्रेम, वही अपनत्व का भाव, वही भावनागत अभिव्यक्ति तथा वहीं स्वार्थहीन सेवा का भाव दृष्टिगत हुआ जिसे अनुभूत कर जागृत और चैतन्य की अवस्था में मेरे नेत्रों से प्रेम रूपी अश्रुपात हुए। हृदय की वही पीड़ा, वही व्याकुलता, वही बीती हुई पवित्र पुनरस्मृतियां आज शब्दों के रूप में परिवर्तित होकर इस लेखनी के रूप में प्रस्फुटित हो गई है।

हे अति प्रिय! प्रेम की व्यापकता का वर्णन मैं कहां तक करूं इसकी तो कोई सीमा रेखा ही नहीं है ।केवल संत समाज ही इस प्रेम की परिसीमा तक पहुंच सकते हैं। हे अति प्रिय! प्रेम में वह शक्ति है जो बंजर बने खांडवप्रस्थ को भी हरा भरा इंद्रप्रस्थ बना दे। प्रेम में वह शक्ति है जो पथभ्रांत, स्वच्छंद विचरण करने वाली भटकती हुई नदियों को उनके प्रियतम सागर से मिला दे। प्रेम में वह शक्ति है जो एकांतिक और अकेलेपन से उत्पन्न मानसिक पीड़ाओं और मनोविकारों का समन करके उसे परम शांति की अनुभूति करा दे। यही नहीं प्रेम में वह शक्ति है जो शरीर, मन तथा आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले इन क्षणिक वासनाओं से मुक्ति दिलाकर आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार करा दे।

हे अति प्रिय! यह पवित्र प्रेम भिक्षा नहीं मांगता और न ही दिखावटी प्रेम का ही आग्रही है। वह तो अपनी बीती हुई यादो और सुखद पलों में ही प्रसन्न रहना चाहता है परन्तु हे अति प्रिय! सत्य तो यही है कि इस प्रेम के अतिरिक्त इस संसार में और कुछ भी नहीं है केवल प्रेम ही प्रेम है।

अतः ईश्वर से मेरी यह प्रार्थना है कि तुम्हें भी उसी प्रेम की परिणीति प्राप्त हो और तुम ईश्वर का भजन और कीर्तन भी करो जिससे तुम्हारा मन शांत, एकाग्रचित और स्थिर रहे। और हे अति प्रिय! और क्या कहू? तुम अपना ध्यान रखो, सुखी और प्रसन्न रहो, अपने अधिकांश समय को ईश्वर के चरणों में लगाओ और हां, शुद्ध शाकाहारी भोजन करो जिससे कि तुम्हारे मन में उल्टे सीधे विचार न आए। अच्छा अति प्रिय! अब मैं तुमसे विदा लेता हूं।

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