लोकतंत्र की जड़ें हमारी धरोहर है जिस पर हमें अभिमान होना चाहिए,कैसे ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लोकतंत्र भारत की आत्मा है। इसके उदाहरण भारतीय समाज एवं संस्कृति में देखे जा सकते हैं। लोकतंत्र का तात्पर्य है लोक का तंत्र। लोक शब्द जनता का सूचक है एवं तंत्र शब्द से शासन अथवा व्यवस्था का बोध होता है। प्राचीन भारतीय साहित्य एवं पुरातत्व में विश, जन, प्रजा एवं गण आदि शब्द लोक के लिए प्रयुक्त होते रहे हैं, जिनका प्रयोग सामूहिक शासन संचालन में जनता की सहभागिता एवं कल्याण के लिए किया जाता रहा है।

भारत में लोक-सहभागिता छोटी-छोटी सामूहिक इकाइयों से लेकर बड़ी-बड़ी इकाइयों तक परिलक्षित होती है। जनता एवं जनप्रतिनिधियों द्वारा इन इकाइयों (पुर, जनपद, राज्य आदि) के प्रमुखों के चुनाव की प्रक्रिया भारत में लोकतंत्र के अस्तित्व की कहानी कहती है। जबसे हमारी सभ्यता का आविर्भाव हुआ है तभी से हमारे समाज में लोकतंत्र विद्यमान रहा है। श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास आदि में कुल, ग्राम, जनपद, सभा, समिति, संसद, परिषद, संघ, निकाय आदि संस्थाओं का उल्लेख प्राप्त होता है जिनमें लोक-सहभागिता एवं लोक-कल्याणकारी नीतियों का दर्शन होता है।

रामायण एवं महाभारत में अनेक प्रसंग हैं, जहां राजा का मत-प्रजा, जनपद प्रतिनिधियों और अमात्यमंडल की सहमति पर निर्भर करता है। रामायण के बालकांड के सातवें सर्ग में राजा दशरथ के यशस्वी होने का कारण राज्य के प्रमुख कार्यों में उनके मंत्रिमंडल की सहभागिता है, जिसमें आठ मंत्री होते थे। राजा दशरथ के राज्य संबंधी अथवा अन्य किसी भी योजना संबंधी विषयों में एक विशाल मंत्रिसमूह की भूमिका उनकी लोकतंत्रात्मक दृष्टि का बोध कराती है।

राजा के सभी कार्यों में मंत्रियों एवं प्रजावर्ग की सहमति एवं उनके कल्याण के लिए निरंतर प्रयास करना राज्य के लिए आवश्यक है। ऐसा उपदेश राजा दशरथ संभावित राजा राम को देते हैं कि मंत्री, सेनापति आदि समस्त अधिकारियों तथा प्रजाजनों को सदा प्रसन्न रखना। रामायण में नीति और विनय, दंड और अनुग्रह को राजधर्म बताया गया है। साथ ही राजा के स्वेच्छाचारित्व का निषेध कर उसे परिसीमित भी किया गया है।

महाभारत के शांति पर्व में भीष्म युधिष्ठिर को लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना का ही उपदेश देते हैं, जिसके अंतर्गत प्रजा के हित की रक्षा करना, धर्म का अनुसरण करना प्रमुख बिंदु हैं। राजा को सभासदों, प्रकृतिजनों एवं प्रजाजनों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। महाभारत में सभासदों की योग्यताओं का उल्लेख भी इस बात का परिचायक है कि लोक-कल्याण के लिए लोक-भावना के अनुसार नीति-नियमों का संचालन हो। महाभारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था का उल्लेख गणों की व्यवस्था के अंतर्गत हुआ है।

महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि अनेक सदस्यों द्वारा मिलकर गण बनाया जाता है। गण का अभिप्राय राजनीतिक वर्ग से है। इसके अंतर्गत सभी सदस्य जाति एवं कुल के आधार पर समान होते हैं। इनमें उद्योग, बुद्धि एवं लोभ से भेद उत्पन्न नहीं किया जा सकता।

इसके द्वारा राजकीय मंतव्य निश्चित करना, एकत्र होकर सभा अथवा अधिवेशन में मंतव्यों पर विचार करना, न्याय विभाग की व्यवस्था पर ध्यान रखना, लोक कार्य का संचालन, विद्या के विषय में चर्चा करना आदि कार्य किए जाते हैं। इस प्रकार शासन कार्य के लिए गण एक भिन्न संस्था होती है। अपने कर्तव्यपालन करने वाले राजपुरुषों के उचित सम्मान करने से गण सदैव विवर्द्धित होते रहते हैं। गण का एक मुखिया होता है, जिसे प्रधान के नाम से जाना जाता है।

रामायण और महाभारत में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र अथवा लोकसंग्रह अथवा लोककल्याणकारी राज्य की समृद्ध व्यवस्था रही है, जिसका प्रभाव उपर्युक्त ग्रंथों के उपजीवक अभिज्ञानशाकुंतलम् एवं रघुवंशम् आदि ग्रंथों में भी स्पष्टता से दिखता है।

इन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में भारत को यदि “लोकतंत्र की जननी” कहा जाता है तो इसे अतिशयोक्ति नहीं मानना चाहिए। रामायण और महाभारत के साथ ही वेद, उपनिषद् तथा बाद के काल में बौद्ध, जैन दर्शन में ऐसी परंपरा का उल्लेख है। दुर्भाग्य यह है कि हमारे ही देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपने अतीत को प्रमाण देने के बावजूद झुठलाते हैं और प्रशंसा की प्रत्याशा में विदेश की ओर ताकते हैं। हम अपने अतीत पर दृष्टिक्षेप करें तो पाएंगे कि लोकतंत्र हमारी वह धरोहर है जिस पर हमें अभिमान होना चाहिए।

 

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