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नदिया के पार फ़िल्म की कहानी केशवप्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित थी - श्रीनारद मीडिया

नदिया के पार फ़िल्म की कहानी केशवप्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित थी

नदिया के पार फ़िल्म की कहानी केशवप्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित थी

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कहानी का अंत इतना सुखद नहीं है जितना कि फिल्म नदिया के पार में दिखाया गया है। ओमकार (इन्द्र ठाकुर) का विवाह वैद्य की बड़ी पुत्री रूपा (मिताली) के साथ विवाह हो जाता है और वो एक खुशी जीवन की शुरूआत करते हैं। रूपा एक बच्चे को जन्म देती है। रूपा की गर्भवती होने के दिनों उसकी छोटी बहन गुंजा (साधना सिंह) उसके साथ रहने के लिए आती है। इसी समय उसे ओमकार के छोटे भाई चन्दन (सचिन) से प्यार हो जाता है।

नदिया के पार फ़िल्म की कहानी मशहूर लेखक और उपन्यासकार केशवप्रसाद मिश्र जी के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित थी, जिसमे पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो गाँवो के जन-जीवन और उसकी संस्कृति के साथ साथ उसकी संवेदना को भी बड़ी ही आत्मीयता के साथ चित्रित किया गया है। हालांकि केशव प्रसाद मिश्र द्वारा रचित उपन्यास “कोहबर की शर्त” कुल चार खंडों में प्रकाशित हुआ था लेकिन इस उपन्यास के शुरुआत के दो खंड की ही कहानी को फिल्मी रूप देकर फिल्म “नदिया के पार” में दर्शाया गया।

राजकमल प्रकाशन द्वारा वर्ष 1965 में प्रकाशित इस उपन्यास की कहानी का अंत इतना सुखद नहीं है जितना कि फिल्म नदिया के पार में दिखाया गया है।
फ़िल्म के अंत में जहाँ नायक चंदन और नायिका गुंजा का मिलन दिखाया गया है, वहीं मूल उपन्यास में ऐसा नहीं है उसमें गुंजा का विवाह चंदन के बड़े भाई ओमकार से ही होता है और गुँजा चंदन की भाभी के रूप में उसके घर आती है। समय गुज़रता है पहले काका की मृत्यु होती है और कुछ दिनों बाद गाँव में फैली महामारी से ओमकार की भी मृत्यु हो जाती है।

गुँजा के पिता यानि वैद्य जी गुँजा को अपने साथ लेकर चले जाते हैं लेकिन कुछ ही दिनों में गुँजा वापस लौट आती है और अपने पुराने प्रेम की याद दिला कर चंदन से विवाह का प्रस्ताव रखती है जिसे चंदन ठुकरा देता है। चंदन द्वारा ठुकराये जाने पर पहले से टूटी गुँजा भीतर ही भीतर और टूटने लगती है और एक दिन उसकी भी मृत्यु हो जाती है। बेहद ही दर्दनाक अंत के साथ ख़त्म हुई इस कहानी में परिवर्तन के लिये बाकायदा ताराचंद जी ने लेखक केशव प्रसाद जी से इजाज़त माँगी थी।

हालांकि इस उपन्यास पर फिल्म बनाने के लिये केशव जी ने ताराचंद जी को पहले यह कहकर मना कर दिया कि “किसी रचनाकार के लिये उसकी रचना उसके बच्चे की तरह होती है। आप मेरी कहानी को अपने हिसाब से काट छाँट कर बनायेंगे, फिर उस कहानी की आत्मीयता को भी हर कोई बिना समझे फिल्म नहीं बना सकता।” ऐसे में ताराचंद जी ने उन्हें आश्वासन दिया कि बिना उनकी इजाज़त के कहानी में कोई बदलाव नहीं होगा।

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