साहित्यकार की श्रेष्ठता इसमें है कि वह हजम न किया जा सके-शंभुनाथ

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आजकल गैर -जरूरी आरोप -प्रत्यारोप के बीच संवाद की जगह काफी सिकुड़ गई है, बल्कि असहमत को शत्रु के रूप में देखा जाता है। विभीषण राम का भक्त था और रावण से असहमत था, लेकिन लंका में ऐलानिया रहता था। विदुर कौरवों के साथ रहते हुए भी उनके गलत विचारों से खुलकर असहमत होते थे और उनका आदर था। धृतराष्ट्र का बेटा युयुत्सु अपने भाइयों से अलग मत रखते हुए पांडव पक्ष से लड़ा। यह प्राचीन महाकाव्यों की बात हुई। बुद्ध ने धर्म प्रवर्तन से पहले अपने समय के कई दार्शनिकों से संवाद किया। यह इतिहास की बात है।

लोकभाषाओं वाले भक्त कवि भी अपने समय की धार्मिक व्यवस्था से कई मुद्दों पर असहमत थे। वे भेदभाव और बाह्याडंबर के विरोधी थे। वे खुलकर बोले और सुने गए। 19वीं सदी के नवजागरणकालीन व्यक्तित्व सामाजिक कुप्रथाओं के अलावा उपनिवेशवाद से भी लड़े।

वे खुलकर बहस करते थे, तर्क करते थे और कई बार विरोधियों से भी जाकर मिलते थे, संवाद करते थे। वे एकालापी न थे, इकहरे लोग न थे। आजादी की लड़ाई के दिनों में गांधी रामास्वामी नायकर से जाकर मिले थे और उनको साथ लेने तथा धर्म के मुद्दे पर उन्होंने देर तक बात की थी, भले सहमति नहीं हुई।

जिस देश में असहमति और प्रतिवाद की ऐसी दीर्घ परंपरा है, वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी असहमति के प्रति आदर और संवाद का अभाव चिंताजनक है।

भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के केंद्र में रस है, आनंद है। इसमें एक रोचक मामला यह है कि ग्रंथ के आखिरी हिस्से में ऋषि -मुनि नाटक के कलाकारों को शाप देते हैं कि उन्होंने नाटक खेलकर उनके पाखंडों को उजागर किया है, उनपर व्यंग्य किया है, अतः जाओ तुम्हें सवर्ण समाज से बाहर किया जाता है। इसलिए नाट्यशास्त्र को पंचम वेद की प्रतिष्ठा मिली, यह शूद्रों का वेद है।

कलाकार या लेखकों की श्रेष्ठता इसमें है कि वह हजम न किया जा सके, भले बहिष्कृत कर दिया जाए। आखिर रामायण और महाभारत भी तो बहिष्कृत किए गए लोगों की कथाएं हैं, चाहे वे राम हों या पांडव। कथा जब भी होगी, बहिष्कृतों की होगी!

भविष्य उनका नहीं है जो वर्तमान को तरह -तरह से लूट रहे है, सत्ता और ग्लैमर के पीछे दौड़ रहे हैं। भविष्य उनका है जो वर्तमान में अपने को लुटा रहे हैं!

 

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