हिंदी लेखन में आना चाहिए संपूर्ण राष्ट्र का चिंतन-प्रो चंदन चौबे.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हिंदी को भारत के जन-जन को जोड़ने वाली भाषा बताते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रो. चंदन चौबे ने कहा कि हिंदी कटक से कच्छ तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक की भाषा-बोलियों को साथ लेकर चलने वाली है। यह अन्य भाषाओं और बोलियों से शब्द, बोलियां और भाव ग्रहण करती है। यह समय के साथ उन्नत हो रही है और यही इसकी प्रकृति है। हिंदी लोकतंत्र, शासन, संविधान व सबल राष्ट्र की भाषा है, इसलिए हिंदी लेखन में संपूर्ण राष्ट्र का चिंतन आना चाहिए।

‘स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी ने जगाया स्वाभिमान” विषय पर आयोजित सत्र में प्रो. चंदन चौबे के साथ लेखक एवं स्तंभकार डा. अवनिजेश अवस्थी भी मौजूद थे। परिचर्चा की सूत्रधार दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक डा. सुनीता थीं। प्रो. चंदन ने कहा कि हिंदी आत्ममुग्धता नहीं, आत्मचेतना की भाषा है, इसलिए टिकी हुई है। अन्यथा पराधीनता के काल में सत्ता द्वारा फारसी व अरबी जैसी भाषाएं थोपने का प्रयास हुआ, लेकिन वे टिकी नहीं, क्योंकि वे जन भाषाएं नहीं थीं।

उन्होंने हिंदी और देश की अन्य भाषाओं में भेद रखने वालों को सचेत करते हुए कहा कि स्वाधीनता के आंदोलन में सभी भाषाओं का योगदान था। साहित्यिक चेतना में अखिल भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्र की बात बराबर रही। भाषा अलग हो सकती है,लेकिन भाव बोध एक था, इसलिए किसी को कमतर आंकने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह देखने की जरूरत है कि दूसरी मातृ भाषा और भूमि से आने वाले महात्मा गांधी, सरदार पटेल व सी. राजगोपालाचारी जैसे लोगों ने हिंदी को आगे लाने पर जोर दिया। वे जब हिंदी की बात करते थे तो यह उनके लिए भावनात्मक मुद्दा नहीं था, सवाल सबल राष्ट्र और उसकी एक भाषा का था।

उन्होंने कहा कि हिंदी ने विषमवादी स्वरों को भी उतना ही स्थान दिया, जितना समस्वरों को दिया। इसे रामायण और महाभारत से समझना होगा। इसी तरह राम मनोहर लोहिया व दीन दयाल उपाध्याय से भी इसे समझना होगा, इसलिए इसके भविष्य को लेकर रोने-धोने की आवश्यकता नहीं है।

डा. अवनिजेश अवस्थी ने वर्ष 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन को पहला आंदोलन बताने वाले इतिहासकारों पर करारा प्रहार करते हुए कहा कि देश को 800 सालों का गुलाम बताया जाता है, लेकिन जब स्वाधीनता आंदोलन की बात आती है तो 1857 का जिक्र किया जाता है। सवाल यह है कि क्या इसके पहले यहां के लोग मौन थे।

वर्ष 1193 का तराइन युद्ध, उसके बाद गुरु तेग बहादुर व गुरु गोबिंद सिंह जैसे बलिदान के मामले हों या कूका आंदोलन, 800 सालों की अवधि में लगातार स्वाधीनता की आवाज उठी और आंदोलन चलता रहा। इसमें निरंतरता थी। इस क्रम में भक्ति आंदोलन को भी देखा जाना चाहिए, जिसने समाज में नई चेतना पैदा की। सवाल है कि भक्ति थी तो आंदोलन शब्द कैसे जुड़ा, भक्ति आंदोलन स्वाधीनता से ओतप्रोत था।

उन्होंने कहा कि राजनीतिक रूप से देश भले ही गुलाम था, लेकिन धार्मिक व सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में अपने तेज को उसने कभी क्षीण नहीं होने दिया। उन्होंने इतिहास को मनगढ़ंत तरीके से प्रस्तुत करने का आरोप लगाते हुए कहा कि सम्राट अशोक के बारे में कहते हैं कि अपने भाइयों को मारकर वह गद्दी पर बैठा। असल में यह औरंगजेब को बचाने की कोशिश में गढ़ा गया तर्क था, जो अपने तीन भाइयों को मारकर गद्दी पर बैठा था।

उन्होंने कहा कि हिंदी बहुसंख्यकों की भाषा है, इसलिए ज्यादातर प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से आए हैं। अधिकतर हिंदी भाषी ही प्रधानमंत्री बने हैं। एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो उन्हें दिक्कत हुई। यह संविधान नहीं कहता कि जो हिंदी बोलता है, वही सिंहासन पर बैठे, बल्कि यह देश की जनता और राजनीति कहती है। डा. सुनीता ने कहा कि स्वाधीनता संग्राम में हिंदी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। स्वाधीनता के आंदोलन में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं और कविताओं ने बड़ा योगदान दिया। इसने लोगों में जोश जगाने का काम किया और आंदोलन को मजबूती प्रदान की।

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