यूं शुरु हुई संगीत घरानों की परम्परा.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

  • भारतीय संगीत की जड़ें कितनी प्राचीन हैं, इसकी थाह हमें मिलती है सामवेद से।
  • संगीत सदा से हमारे देश की पहचान रहा है और घराना परम्परा का इसमें बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दृष्टिगोचर होता है।

संगीत रसिकों के लिए ‘घराना’ शब्द नया नहीं है। यदि किसी भी गायक, वादक के नाम के साथ किसी समृद्ध घराने का नाम जुड़ा हुआ हो तो उसका सम्मान ख़ुद-ब-ख़ुद बढ़ जाता है।

लेकिन यह घराना है क्या और यह किस तरह से अस्तित्व में आया, यह कम लोग जानते हैं। घराने का सम्बंध संगीत के स्कूल या कलाकारों के समूह से होता है। मान सकते हैं कि संगीत के आरम्भ में एक गुरु द्वारा अपने शिष्यों को संगीत सिखाया गया और फिर यह निरंतर एक परंपरा बन गई। यानी गुरु से शिष्य, फिर शिष्य से उनके शिष्य, उनके शिष्य और अनेकानेक पीढ़ियों तक। इस तरह से पीढ़ियों तक संगीत की उन्नति हुई। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि हर व्यक्ति के गायन और वादन पर उसके स्वभाव का, उसकी शिक्षा का, उसकी परिस्थिति का और उसके देशकाल तथा परिवार आदि का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है। यही वह बड़ा कारण है कि मनुष्य की एक अलग ही गायन और वादन शैली का निर्माण होता है।

गायन या वादन ऐसी चीज़ नहीं है, जिसमें एक दिन, एक माह या एक साल में पारंगत हुआ जा सकता है। बल्कि इसमें वर्षों का संघर्ष होता है और जब गायक-वादक की धीरे-धीरे उम्र बीतती जाती है, उसके साथ ही उसका संगीत भी अनुभवी और उम्रदराज़ होने लगता है। बाद में ऐसी विशिष्ट शैली को उनके शिष्यों द्वारा अपना लिया जाता है। फिर वे उनके शिष्यों को भी उसी विशिष्ट शैली में शिक्षा देते हैं। फिर धीरे-धीरे यह एक शृंखला बन जाती है। इसी को घराने की संज्ञा दी गई है।

एक से घराना नहीं बनता
ऐसा नहीं है कि किसी घराने में परिपक्वता कुछेक साल में आ जाती है। बल्कि एक घराना स्थापित होने में कई पीढ़ियां लग जाती हैं। घरानों में मर्यादा का ख़ास ख़्याल रखा जाता है। और जो घराने पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं, उन्हीं में मर्यादा रहती है। यह सम्भव नहीं है कि किसी एक विशेष गायक की व्यक्तिगत प्रतिभा से घराना कायम हो जाए। यदि पीढ़ियों तक घराने के गायक उस शैली का अनुकरण न करें तो घराने में दोष उत्पन्न होने लगते हैं।

घराने का अनुशासन
घराने में अनुशासन का बड़ा महत्त्व होता है और यदि अनुशासन भंग हो तो जीवन भर के लिए किसी संगीत साधक को इससे दूर होना पड़ सकता है। पहले के समय में घरानों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे अपनी विशिष्ट गायकी को दूसरे घराने के प्रभाव से बचाकर रखते थे। गायक भूल से भी अपने घराने की गायकी को छोड़कर किसी दूसरे घराने की गायकी नहीं गाते थे। न ही वे किसी दूसरे घराने के गुरु से संगीत की शिक्षा लेते थे। साथ ही यह भी नियम था कि एक गायक सिर्फ़ एक ही गुरु से शिक्षा ग्रहण कर सकता है। एक गायक अलग-अलग गुरुओं से शिक्षा न ले, इसे रोकने के लिए संगीत के कार्यक्रम का आयोजन किया जाता था।

गंडा बंधन
यह एक विशेष प्रकार की गुरु-शिष्य से सम्बंधित रस्म हुआ करती थी। इसके तहत एक छोटा-सा संगीत सम्मेलन आयोजित करके, सारे संगीतज्ञों के सामने, गुरु अपने होने वाले शिष्य की बांह पर एक ताबीज़ या धागा बांध देते थे, जिसे गंडा बांधना कहते थे। इसके बदले में शिष्य अपने गुरु को दक्षिणा व वस्त्रादि भेंट करता था। शिष्य के हाथ में गंडा तभी बांधा जाता है, जब वह पूरी तरह से गुरु के सारे गुणों से अवगत हो जाता है। साथ ही वह अपने स्वर एवं शब्द उच्चारण द्वारा गायकी को शिष्य के गले में उतारने का प्रयास करता है। जब शिष्य शिक्षा प्राप्त कर लेता है तो गुरु रीति अनुसार अपने घराने का गंडा उसके हाथों में बांध देते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि अब शिष्य एक ही गुरु से संगीत शिक्षा ग्रहण करे। इसके लिए एक आयोजन किया जाता था, जिसमें संगीतकार और समाज के प्रतिष्ठित लोग शामिल होते थे। इसके बाद यदि कोई शिष्य गुरु बदलने का प्रयत्न करता तो उसे कोई भी अपना शिष्य नहीं बनाता था।

घराना निर्माण की प्रक्रिया
घराने में कई तरह के क़ायदे होते हैं, रीति-रिवाज़ शामिल होते हैं। कोई भी घराना तब ही घराना माना जा सकता है, जब उसमें कम से कम तीन पीढ़ियों तक संगीत की धारा का प्रवाह हो। साथ ही प्रत्येक घराने का एक अलग कलात्मक अनुशासन होता है। भिन्न-भिन्न घरानों में विशेष गायन-शैलियां, विशेष राग तथा उनकी विशेष बंदिशें अलग-अलग होती हैं। कुछ घरानों ने ध्रुपद-धमार गायन शैली को अपनी विशेषता बनाया, कुछ ख़्याल शैली को अपनाते हैं, कुछ ठुमरी शैली को, कुछ ख़्याल, धमार, ठुमरी तीनों शैली को अपनाते हैं। घराने की गायकी से पता चलता है कि उसकी गायकी की कलात्मक उत्तमता क्या है। हर घराने की गायकी की प्रतिष्ठा पर ही उस घराने का मान-सम्मान निर्भर करता है।
ये घराने हमारे संगीत को सुरक्षित रखने वाले प्राचीन स्तम्भ हैं, जो आज भी निरंतर उसे संरक्षित और संवर्धित कर रहे हैं। देशी राज्य और रजवाड़े संगीत के पोषक और संरक्षक रहे हैं। इस विषय में कुछ राज्यों और रियासतों ने अधिक ख्याति पाई है, जैसे पटियाला, बड़ौदा, इंदौर, जयपुर, ग्वालियर, मैसूर, रामपुर, लखनऊ, बनारस आदि।

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