अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक शब्द ने दिया है बंटवारे का दर्द- आरिफ मोहम्मद खां.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत लोकतांत्रिक देश है। इसका पंथनिरपेक्ष संविधान देश के सभी लोगों को समान भाव से देखता है। ऐसे में देश को दो खांचों में बांटने वाले शब्दों अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की वर्तमान प्रासंगिकता पर सवाल उठने लगे हैं। इन शब्दों के आधार पर लोगों की पहचान की परिपाटी को बंद किए जाने का विमर्श पूरे देश में तेज हो चुका है।
भारत जैसे पंथनिरपेक्ष संविधान वाले लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक शब्द का इस्तेमाल कितना उचित है?
—यह सही है कि हमारे संविधान में अल्पसंख्यक शब्द प्रयोग किया गया है लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण है कि उसका संदर्भ विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाये रखने के अधिकार से संबंधित है। अगर इसी के साथ आप अनुच्छेद 30 को पढ़ें तो धर्म और भाषा के आधार पर किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा उनके प्रशासन का अधिकार प्राप्त होगा। लेकिन लगभग यही अधिकार अनुच्छेद 26 में भारतीय नागरिकों के किसी भी अनुभाग को प्राप्त है।
अनुच्छेद 29 तथा 30 संविधान के भाग 3 अर्थात मूल अधिकारों का हिस्सा हैं लेकिन इसके लिए नागरिकों के किसी भी ऐसे अनुभाग को जो स्वयं को धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक मानता है, उसको अपने साधनों का प्रयोग कर संस्था स्थापित करनी होगी। संविधान तो केवल इतना ही सुनिश्चित करता है कि इन संस्थाओं को सहायता देने में शासन इस आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा कि वह संस्था किसी धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यक के प्रबंध में है। लेकिन अल्पसंख्यक कौन है इस बारे में संविधान मौन है, जिसका कारण यह हो सकता है कि संविधान सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समता तथा संरक्षण सुनिश्चित करता है और धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद का पूर्णतया निषेध करता है।
इस संवैधानिक पृष्ठभूमि के साथ अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की शब्दावली केवल उस काल की याद दिलाती है जब शासक वर्ग भारत को एक राष्ट्र नहीं बल्कि विभिन्न पंथिक तथा सामाजिक इकाइयों का समूह मानता था जिसके नतीजे में पृथक चुनाव प्रणाली की व्यवस्था अपनाई गई जिसकी परिणति 1947 में भारत के विभाजन के रूप में हमारे सामने आई।
एक राजनीतिक पृथक चुनाव प्रणाली तथा दूसरे सामाजिक अस्पृश्यता। हमारी संविधान सभा का मानना था कि इन दो बीमारियों के कारण भारत अंदर से कमजोर हुआ और परिणामस्वरूप ग़ुलाम बना और विभाजन का घाव ङोलना पड़ा। अगर हम इतिहास से कोई सबक लेना चाहते हैं तो हमें भाषा के बारे में भी यह ध्यान रखना पड़ेगा कि हम वह भाषा बोलें जिससे एकता का भाव बढ़े। वह भाषा जिससे सांप्रदायिकता बढ़ती है, वह हानिकारक है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पृथक अपने आप को अल्पसंख्यक मान लेने का मतलब है कि बावजूद संवैधानिक बराबरी के मैं अपने आप को कम करके देखूं। इससे हीन भाव भी उत्पन्न होता है जो हमारे एकात्म राष्ट्रीय भाव को कमजोर करता है। इसलिए मैं निजी तौर पर इस शब्दावली के प्रयोग को सर्वथा अनुचित मानता हूं।
जब संविधान में सबको समान बताया गया है तो सामाजिक भेदभाव करने वाले इस शब्द के क्या मायने हैं?
—भारतीय जीवन शैली हमारी सांस्कृतिक विरासत है और हमारे संविधान के प्रावधानों में परिलक्षित होती है। आप पूरे विश्व की संस्कृतियों पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि हर संस्कृति मूलवंश, भाषा या मध्यकालीन युग आते आते धार्मिक आस्था से परिभाषित होती थी तथा किसी भी सांस्कृतिक क्षेत्र में वही लोग रहते थे। आज जो दुनिया हम देख रहे हैं जहां विविधता के लिए स्वीकार्यता बनी है उसकी आयु 150-200 वर्ष भी मुश्किल से है।
दूसरी ओर भारत में कई हजार साल पहले हमारे ऋषियों ने जो मान्यताएं या परंपराएं बनाईं उनमें विविधता को न केवल एक नैसर्गिक नियम के तौर पर स्वीकार किया गया बल्कि उसके लिए समान भाव पैदा किया गया तथा उसको समाज की संपन्नता के स्नोत के रूप में भी देखा गया। हमारी सांस्कृतिक यात्र ‘एवं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ के उद्घोष के साथ आरंभ हुई। हमारे यहां आज भी हम यह देख सकते हैं कि एक ही परिवार के सदस्य अलग देवी या देवों के माध्यम से ईश आराधना करते हैं। अब से दो हजार साल से भी पहले जब यहूदी ईसाई या इस्लाम के मानने वाले यहां पहुंचे नहीं थे, उस समय भारत के ऋषियों ने कहा-
भारतेषु स्त्रियां पुरुषों नानावर्णा प्रकृतिते
नानादेव खर्चने युक्ता नानाकर्माणि कुर्वते
अर्थात् भारतीय स्त्रियां और पुरुष अलग अलग मूलवंश से संबंध रखते हैं। अलग अलग देवों की आराधना करते हैं तथा उनके रस्म और रिवाज अलग-अलग हैं। भारत ने सदैव ही विविधता की वास्तविकता तथा मानवता की एकात्म अखंडता को स्वीकार किया है। इसीलिए हमारे वैदिक ऋषियों ने चार महाकाव्य दिए हैं जो भारतीय संस्कृति का आधारभूत हैं। यही वह महाकाव्य हैं जिन्हें आदि शंकराचार्य ने अपने द्वारा स्थापित चारों मठों को दिए हैं।
‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्म परम चेतना है, यह ऋग्वेद का कथन है।
यजुर्वेद का सार है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं।
सामवेद का कथन है ‘तत्वमसि’ अर्थात् वह तुम हो।
अथर्ववेद का सारतत्व कहता है ‘अयं आत्म ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है।
यहां यह बात साफ हो जाती है कि हमारे ऋषियों ने हमारी संस्कृति को परिभाषित करने का आधार केवल आत्मा को बनाया है जो इतना समावेशी है कि जानवर और पेड़-पौधों को भी बाहर नहीं छोड़ता है। संभवत: भारतीय संस्कृति की यही समावेशी प्रकृति है जिसने इसे दुनिया की प्राचीनतम जीवंत संस्कृति बना कर रखा है। इस संस्कृति में आस्थाओं की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियों को छोड़िए, आस्तिक और नास्तिक के बीच भी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। यह संस्कृति पुरातन है किंतु कभी वृद्ध नहीं होती है और सनातन के साथ काल धर्म का पालन करते हुए अपनी नवीनता को भी बनाकर रखती है।
क्या कुछ राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए तुष्टिकरण नीति के तहत इस शब्द का अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं?
—मेरे लिए राजनीतिक दलों की कार्यशैली पर टिप्पणी करना उस पद की मर्यादा के अनुकूल नहीं होगा जिसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर है।
क्या भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत हमें इस शब्द के इस्तेमाल की इजाजत देती है?
—आधुनिक यूरोप ने हमें मानव प्रतिष्ठा की कल्पना दी है जिसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव अधिकारों का चार्टर जारी किया गया। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत ने दुनिया को मानव की दिव्यता की कल्पना दी है जो मानव प्रतिष्ठा की तुलना में कहीं ज्यादा व्यापक है। भारतीय संस्कृति ने दिव्यता का मानवीकरण और मानव का दिव्यकरण किया है। स्वामी विवेकानंद ने अपने एक पत्र में लिखा है कि मेरा मिशन बहुत साफ है, मैं पूरी मानवता को यह बताना चाहता हूं कि हर व्यक्ति दिव्य है और यह दिव्यता उनके कर्मो में परिलक्षित होनी चाहिए।
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