विश्व का पहला कृत्रिम जीन,डा. हरगोविंद खुराना ने बनाया था,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

विज्ञान की दुनिया में भारत का नाम रौशन करने वाले डा. हरगोविंद खुराना अपने गांव के एकमात्र पढ़े-लिखे परिवार से थे। वह उन चुनिंदा विज्ञानियों में शामिल हैं, जिन्होंने बायोटेक्नोलाजी की बुनियाद रखने में अहम भूमिका निभाई। 1968 में उन्हें चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला। डीएनए के रहस्यों को सामने लाने वाले डा. खुराना को कृत्रिम जीन के निर्माण का श्रेय भी जाता है।

हरगोविंद खुराना का जन्म 9 जनवरी, 1922 को अविभाजित भारत के रायपुर गांव (पंजाब, अब पूर्वी पाकिस्तान) में हुआ था। वे अपने गांव के एकमात्र पढ़े-लिखे परिवार से आते थे। उनके पिता गणपत राय खुराना ब्रिटिश प्रशासन में एक क्लर्क हुआ करते थे। पांच भाई-बहनों में खुराना सबसे छोटे थे। आर्थिक रूप से कमजोर होने के बाद भी उन्होंने बच्चों की पढ़ाई को जारी रखा।

जब खुराना 12 साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया। ऐसी परिस्थिति में उनके बड़े भाई ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय डीएवी हाईस्कूल में ही हुई। इसके बाद उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से वर्ष 1945 में एमएससी की डिग्री प्राप्त की। इसी दौरान उन्हें भारत सरकार की छात्रवृत्ति मिली। इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए।

इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर राजर जे. एस. बियर की देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरेट की उपाधि हासिल की। इसके बाद उन्हें एक बार फिर वे ज्यूरिख (स्विट्जरलैंड) के फेडरल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी में प्रोफेसर वी. प्रेलाग के साथ शोध कार्यों में लग गए।

वहां से वे वर्ष 1951 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय चले गए, जहां उन्होंने अलेक्जेंडर टाड के साथ न्यूक्लिक एसिड पर शोध करना शुरू कर दिया था। स्विट्जरलैंड के स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी में पढ़ाने के दौरान उनकी मुलाकात एस्तेर एलिजाबेथ सिब्लर से हुई, जिनसे उन्होंने 1952 में शादी कर ली।

आनुवंशिकी पर शोध : वर्ष 1952 में खुराना ब्रिटिश कोलंबिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में कार्य करने के लिए कनाडा चले गए, वहां विश्वविद्यालय के सहयोग से उनका कार्य सही मायने में आकार लेने लगा था। वहां उन्हें वह कार्य करने की आजादी मिली, जिसे वे करना चाहते थे। उन्होंने फास्फेट एस्टर और न्यूक्लिक एसिड में अनुसंधान कार्यक्रम शुरू किए। मगर 1960 में वे एंजाइम अनुसंधान के लिए विस्कांसिन यूनिवर्सिटी, अमेरिका चले गए और फिर वहीं बस गए। उन्हें वहां की नागरिकता भी मिल गई थी। यहां उन्होंने जीन की डिकोडिंग और प्रोटीन संश्लेषण पर उल्लेखनीय कार्य किए।

बनाया विश्व का पहला कृत्रिम जीन: वर्ष 1972 में डा. खुराना ने विश्व के पहले कृत्रिम जीन का निर्माण किया। उनके योगदान ने जेनेटिक इंजीनियरिंग और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। खुराना के कार्य को आज भी आनुवंशिकी के क्षेत्र में अनुसंधान के आधार के रूप में देखा जाता है। नोबेल पुरस्कार के अलावा भी उन्हें बहुत से सम्मान मिले, जिनमें डैनी हैनमेन अवार्ड, लासकर फेडरेशन पुरस्कार, लूसिया ग्रास हारविट्ज पुरस्कार आदि शामिल हैं। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

डा. खुराना ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर डीएनए अणु की संरचना को स्पष्ट किया था और यह भी बताया था कि डीएनए प्रोटीन का संश्लेषण किस प्रकार करता है। उन्होंने पता लगाया कि डीएनए में मौजूद न्यूक्लियोटाइड्स की स्थिति से तय होता है कि कौन से अमिनो एसिड का निर्माण होगा।

ये अमिनो एसिड प्रोटीन बनाते हैं, जो कोशिकाओं की कार्यशैली से जुड़ी सूचनाओं को आगे ले जाने का कार्य करते हैं। इन अम्लों में ही आनुवंशिकता का मूल रहस्य छिपा हुआ है। उनके शोध कार्य ने ही जीन इंजीनियरिंग यानी कि बायोटेक्नोलाजी की नींव रखी और इसके लिए उन्हें 1968 में नोबेल पुरस्कार मिला। इसके बाद उन्हें विश्व प्रसिद्ध संस्थान मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी में भी कार्य करने का अवसर मिला।

1970 में वे एमआइटी में जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर नियुक्त किए गए थे, जहां उन्होंने 2007 में अपनी सेवानिवृत्ति तक कार्य किया। वहीं पर 9 नवंबर, 2011 को उनका निधन हो गया। उन्होंने अपने अनूठे शोध कार्यो से दुनिया में भारत का मान बढ़ाया।

 

 

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