अपनी मातृभाषा पर गर्व न करने वाले लोग भारत में बड़ी संख्या में है.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
पिछले दिनों 40 से अधिक केंद्रीय मंत्रियों ने पद और गोपनीयता की शपथ ली। अनेक अवसरों पर यह चर्चा होती थी कि किस मंत्री ने किस भाषा में शपथ ली? इस बार इस प्रकार की चर्चा में एक नया आयाम जुड़ा। नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया के कुछ पुराने ट्वीट निकालकर उनका मजाक उड़ाया गया। कहा गया कि उनकी अंग्रेजी ठीक नहीं। बाद में एक पत्रकार सम्मेलन में उनसे इस विषय पर सवाल भी पूछा गया। यह अफसोस की बात है कि देश में एक ऐसा वर्ग है, जो केवल आलोचना के सहारे ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। इसमें दूसरे पक्ष के प्रति किसी शालीनता की अपेक्षा निर्थक ही मानी जानी चाहिए। यह वर्ग अपने मन-मानस में अंग्रेजी के ज्ञान को ही श्रेष्ठता का पर्याय मान बैठा है।
यह समूह उस ग्रंथि से बाहर नहीं निकल सका है, जिसे अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से इस देश के पढ़े लिखे लोगों में सफलता के साथ स्थापित कर दिया था। इन्हें अंग्रेजों ने सिखा दिया था कि जो कुछ श्रेष्ठ और स्वीकार्य है तथा प्रगतिशीलता का द्योतक है, वह केवल पश्चिम की संस्कृति और सभ्यता में निहित है। आज किसी भी सरकारी संस्थान में जाकर देखा जा सकता है कि अंग्रेजी न जानने वाले को उसके अंग्रेजी जानने वाले सहयोगी यह विश्वास दिलाते रहते हैं कि वे उससे श्रेष्ठ हैं। ऐसे लोग केंद्रीय मंत्री की भाषाई कमी को आधार बनाकर उनका उपहास करना चाहते थे, परंतु बदलती परिस्थितियों में स्वयं ही उपहास के पात्र बन गए।
भारत एकमात्र ऐसा देश होगा, जिसमें तमाम समृद्ध भाषाएं हैं, फिर भी अपनी ही मातृभाषा पर गर्व न करने वाले लोग आज भी बड़ी संख्या में हैं। आजादी के बाद भी भाषा को लेकर जो विकट स्थिति बाद की पीढ़ियों ने ङोली, उसने शिक्षा में समान अवसरों के वायदे को धुंधला कर दिया। समाज का एक वर्ग अंग्रेजी की अनिवार्यता के विरोध में खड़ा होता रहा, मगर व्यवस्था की निरंतरता ने उस सबको हिकारत की निगाह से ही देखा। यदि राममनोहर लोहिया जैसे लोग न होते तो शायद आज भी बिना अंग्रेजी पढ़े कक्षा दस उत्तीर्ण करना संभव न हुआ होता।
मैंने जब विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तो स्पष्ट कर दिया गया था कि माध्यम तो अंग्रेजी ही होगा। मेरे जैसे कितने ही छात्रों को इस कारण कठिनाइयां हुईं, मगर कुछ स्नेही प्राध्यापक इस स्थिति को जानते थे और ऐसे विद्याíथयों की सहायता करते थे। इलाहाबाद विवि में भौतिकी विभाग में विभागाध्यक्ष प्रो. राजेंद्र सिंह और प्रवक्ता डा.मुरली मनोहर जोशी स्नातकोत्तर कक्षाओं में भौतिकी के जटिलतम विषय भी हिंदी में समझाने के लिए विशेष रूप से सराहे जाते थे।
आजादी के पहले तीन दशकों में स्कूल आने वाले अधिकांश छात्र उस पहली पीढ़ी के थे जिनके घर कोई पढ़ा-लिखा नहीं था। ऐसे विद्यार्थियों का कक्षा में उपहास उनके सहपाठियों द्वारा तो होता ही था, अनेक अवसरों पर कुछ अध्यापक भी झुंझलाकर यह कह देते थे कि तुम कुछ नहीं कर सकते। मेरे कई सहपाठी स्कूल छोड़ गए। देश में कितने बच्चों ने आजादी के बाद अंग्रेजी पढ़ने की बाध्यता के कारण स्कूल छोड़ा होगा।
जो कुछ किसी तरह बने रहे, उनमें से अधिकांश का दसवीं की बोर्ड परीक्षा के बाद का जीवन भर का परिचय नौवीं पास मात्र रह गया। आज बोर्ड परीक्षा देने वाले बच्चे यह जानकार चकित होंगे कि 1950-60 के दशक में बोर्ड परीक्षा परिणाम मात्र 38-40 प्रतिशत रहते थे। बाकी सब फेल का बोझ लेकर जीते थे। ऐसा तब हो रहा था जब मातृभाषा के महत्व को गांधी जी और उनके सहयोगी परतंत्र देश में भी लगातार समझाते थे।
वर्ष 1978 में यूनेस्को के आमंत्रण पर मैं एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में थाईलैंड गया। मुङो अपना शोधपत्र प्रस्तुत करना था। मैंने उसे लिखने के बाद अंग्रेजी के प्राध्यापकों को दिखाया, क्योंकि मुङो अपनी अंग्रेजी पर विश्वास नहीं था। औपचारिक उद्घाटन के पहले आयोजकों ने कहा कि प्रारंभिक वक्ता किसी कारण नहीं पहुंच रहे हैं, अत: मुङो उस स्थान पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत करना है। मैंने किसी तरह अपने को तैयार कर रिक्त स्थान को भरा। उसी दिन रात्रिभोज के उपरांत लाओस तथा कंबोडिया के प्रतिनिधि मेरे पास आकर बोले, आपकी अंग्रेजी बहुत अच्छी है।
कल हमें अपने प्रस्तुतीकरण देने हैं। क्या आप मदद करेंगे? हम तीनों प्रात: तीन बजे तक गहन चर्चा करते रहे। उनके प्रस्तुतीकरण में घोर आत्मविश्वास झलका और मुङो वहां बैठे-बैठे कुछ ऐसा मिला जो वापस आकर मैंने भोपाल के क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान के हर विद्यार्थी को बताया। मैंने कहा, ‘यदि अंग्रेजी के उच्चारण और व्याकरण में त्रुटि हो तो चिंता करना छोड़ दो। मातृभाषा में व्याकरण और उच्चारण शुद्ध होने चाहिए, लेकिन अंग्रेजी में इन दोनों पक्षों को अपनी बौद्धिक या मानसिक अक्षमता से कभी नहीं जोड़ा जाना चाहिए। याद रखिए कि मैं आज भी अंग्रेजी लिखने में गलती करता हूं, मगर हतोत्साहित नहीं होता-ठीक उसी तरह जैसे लाओस और कंबोडिया के प्रतिभागी नहीं हुए थे।’
आज जब मैं पूरे परिदृश्य पर निगाह डालता हूं तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि स्वतंत्रता के बाद भी नीति निर्धारण और उसका क्रियान्वयन उन्हीं लोगों के हाथों में बना रहा, जो ब्रिटिश सत्तासीनों की आज्ञानुसार कार्य करने के अभ्यस्त थे। जो चाहते थे कि उनके आगे आने वाली पीढ़ियां भी अपनी विशिष्टता का लाभ उठाती रहें। जो तभी संभव था जब सरकारी कामकाज और नौकरी में अंग्रेजी को ही महत्व मिलता रहे।
इस सोच में बदलाव आया है, मगर अभी भी पलड़ा अंग्रेजी की तरफ ही झुका रहता है। नई शिक्षा नीति इस स्थिति से उबरने का अवसर उपस्थित कराती है। क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी विषयों की शिक्षा देने की तैयारी हो रही है। मनसुख मांडविया जी से अनुरोध है कि वह अपने विचार अंग्रेजी में भी लिखते रहें। विचारों की गहराई महत्वपूर्ण है, अन्य सभी कुछ उसके समक्ष गौण है।
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