योग पर गंभीर चिंतन का अभाव है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
कोरोना महामारी की विभीषिका ने एक पुरानी कहावत के महत्व को फिर से चरितार्थ कर दिया. बड़े-बुजुर्ग अक्सर कहा करते थे कि स्वास्थ्य ही संपदा है. मगर इस अति महत्वपूर्ण वास्तविकता को भौतिक संपदा के पीछे भागने के चक्कर में लोगों ने नकार दिया था या यह मान लेते थे कि स्वास्थ्य से ज्यादा जरूरी भौतिक संपदा है और संपदा से स्वास्थ्य को पुनः हासिल किया जा सकता है. मगर इस संक्रमण में यह भ्रम पूरी तरह खंडित हो गया.
दरअसल भ्रम का कारण थी स्वास्थ्य की आधुनिक अवधारणा, जिसे पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान ने प्रचलित किया था. इसके अनुसार स्वास्थ्य को मानसिक और शारीरिक खंडों में बांटा जा सकता है और दोनों भिन्न हैं. इस आधार पर चिकित्सा की पद्धतियां भी निर्धारित की गयीं, जो मुख्यतः रोग के प्रकार और उसके लक्षण के निदान से संबद्ध थी. इस तरह उपचार के भी अलग-अलग ढंग बने. रोग की रोकथाम, इलाज, प्रकोप घटाना, रोगी की कमियों को दूर कर उसका पुनर्वास, आहार व पोषण इस अवधारणा के अलग-अलग लक्ष्य बने. किंतु स्वास्थ्य की अवधारणा इससे कहीं अलग है क्योंकि मानव शरीर एक पूर्ण प्रणाली है, इसलिए उसकी समग्रता को समझना जरूरी है.
समग्र स्वास्थ्य यानी उस पूरी प्रणाली का स्वस्थ होना. योग वह विज्ञान है, जिसके द्वारा उस समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति की जा सकती है. विश्व स्वास्थ्य केंद्र ने भी समग्र स्वास्थ्य की बात की है और उसका संविधान यह मानता है कि स्वास्थ्य एक पूर्णता की स्थिति है, जो व्यक्ति के दैहिक, मानसिक एवं सामाजिक सेहत की संपूर्ण स्थिति पर निर्भर है, न कि किसी रोग के होने या नहीं होने पर. प्राचीन परंपरागत ज्ञान में स्वास्थ्य की अवधारणा इसी समग्रता पर केंद्रित है और जो पूरब के चिकित्सा का दर्शन है, जैसे हमारे आयुर्वेद या अन्य देसी पद्धतियां. समग्र स्वास्थ्य में दैहिक के वाह्य और आंतरिक पक्षों तथा मानसिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के समावेश और सामंजस्य पर बल दिया जाता है.
योग की अवधारणा इसी पर आधारित है और उसका उद्देश्य भी यही है. यह अलग बात है कि आज योग को केवल शारीरिक स्वास्थ्य का एक उपाय माना जाने लगा है. यह अमेरिका में प्रचलित योग की शैली पर आधारित है, जहां इसे व्यायाम ही माना जाता है. शारीरिक सौष्ठव एक छोटा-सा हिस्सा हो सकता है यौगिक विज्ञान के उद्देश्य का. योग तो मन शरीर और आत्मा का संतुलन बनाये रखने की पद्धति का नाम है.
योग पर चर्चा तो बहुत हो रही है, मगर गंभीर चिंतन का अभाव है. समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा समझे बिना यह किया भी नहीं जा सकता. समग्र स्वास्थ्य का मतलब है मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तत्वों में संतुलन. जैसे-जैसे चिकित्सा विज्ञान में मानसिक और शारीरिक कारकों के समन्वय या उसके अभाव का स्वास्थ्य पर होनेवाले प्रभाव की जानकारी बढ़ रही है, वैसे वैसे रोग में मन के प्रभाव की महत्ता भी बढ़ रही है.
चिकित्सा विज्ञान में बीमारी होने, या ठीक करने में मन की भूमिका को अब महत्वपूर्ण माना जा रहा है यानी मनो-दैहिक कारणों की प्राथमिकता बढ़ती जा रही है. कोरोना काल में इन्हीं कारकों के चलते बड़ी तबाही मची. तनाव, अवसाद, और दुश्चिंता जैसे मनोविकार लोगों के मन-मस्तिष्क पर हावी होते गये तथा उसके परिणामस्वरूप संक्रमण जानलेवा होता गया. मन और आत्मा का संतुलन ही समग्र स्वास्थ्य की स्थिति है और योग इसके समन्वय का मार्ग है.
मानव मस्तिष्क के चार स्तर हैं, जिनमें से तीन- अचेतन, अर्धचेतन और चेतन- तो मनुष्य में मौजूद रहते हैं और चौथा- परा चेतन- विकसित किया जा सकता है. अचेतन व अर्धचेतन का चेतन पर गहरा प्रभाव पड़ता है और मानव सोच प्रभावित होती है. अधिकतर बीमारियों की जड़ में अचेतन और अर्धचेतन चेतन से उपजी दुश्चिंता है. यह दुश्चिंता मन के द्वारा नकारात्मक सोच और सोच के द्वारा आंतरिक प्रणाली को प्रभावित करती है और रक्त में नकारात्मक हार्मोंस का प्रवाह बढ़ाती है.
यदि नकारात्मकता अधिक समय तक रहती है, तो फिर शरीर की आंतरिक प्रणाली रोग को जन्म देती है. यही नहीं, इस नकारात्मकता के प्रभाव के चलते शरीर की रोगप्रतिरोधी क्षमता भी कमजोर पड़ती है और संक्रमण से लड़ने की शक्ति क्षीण होती है.
योग अचेतन और अर्ध चेतन मन को नियंत्रित कर नकारात्मक भावनाओं की उपज को रोकने का माध्यम है तथा अपने चेतन मन को सही दिशा में ले जाने में मनुष्य की मदद करता है. योग के प्रभाव से नकारात्मक हार्मोंस का प्रवाह रुकता है और सकारात्मक हार्मोंस का प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य को सुदृढ़ और रोगमुक्त रखने में कारगर होता है.
योग के आसन और प्राणायाम की विधि से मनुष्य अपने चेतन को निर्देशित कर सही भावनाओं का सृजन कर सकता है और अपने रोगरोधक क्षमता को मजबूत बना सकता है, जो अंततः समग्र स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है. मानव शरीर अपनी शारीरिक प्रणाली को स्वस्थ रखने में सक्षम है और रोग से स्वयं लड़ सकता है बिना हस्तक्षेप के. योग द्वारा इस शक्ति को बढ़ाया जा सकता है. लेकिन योग सिर्फ इतना ही नहीं है. योग परा चेतना की प्राप्ति का भी मार्ग है और इसी परा चेतना से मनुष्य आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति कर सकता है. योग का अंतिम उद्देश्य उसी परा चेतना की प्राप्ति है.
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