गाँव में बहुत कम रहा पर गाँव मेरे भीतर हमेशा रहा – मनोज भावुक
श्रीनारद मीडिया, प्रसेनजीत चौरसिया, सीवान (बिहार):
यह सिवान, रघुनाथपुर थाना का कौसड़ स्टेशन है मगर आज भी यहां से न कोई ट्रेन गुजरती है, न बस। आज भी यह गाँव है। मेरा गाँव। हालांकि सुना है कि सरयू ( घाघरा ) के किनारे गाँव के दक्षिण में जो बांध है वह 20 फीट चौड़ी पक्की सड़क में तब्दील हो रही है। इससे विकास की कुछ और गुंजाइश बनेगी। बिजली बत्ती तो है। पानी भी खरीदकर कुछ लोग पीने लगे हैं। कुछ लोगों के घर में एसी भी लगा है लेकिन बहुत सारे लोग अभी भी बगइचा में बेना डोलाते नज़र आ रहे हैं। बहुत सारे लोगों की माली हालत ऐसी है कि मुझे अपना शेर याद आता है…
कहीं शहर ना बने गाँव अपनो ए भावुक
अंजोर देख के मड़ई बहुत डेराइल बा …
गाँव में मेरा रहना बहुत कम हुआ है लेकिन गाँव मेरे भीतर हमेशा रहा है। 1993 में मैने अपने गाँव की बायोग्राफी लिखी-‘’ कौसड का दर्पण ’’। उसका सारांश पोस्टर के रूप में तब होली के आस पास कई गाँवों की दीवालों पर चिपका था। मेरे गाँव में 29 जातियां हैं। गाँव की बॉयोग्राफी को मैंने पद्य में भी लिखा था। उसमें जातियों का जिक्र कुछ यूं था-
अहीर, गोंड़, नोनिया, बनिया, डोम, दुसाध, चमार
भर, भांट, कमकर, कुर्मी, बरई और लोहार
ततवा, तेली, तीयर, बीन, नट, कोइरी, कोंहार
महापात्र, मुस्लिम, मल्लाह, धोबी और सोनार
नाउ, पंडित, लाला, ठाकुर …
29 जातियों का ये झुंड
सीधा-शरीफ, हुंडा तो हुंड
कौसड़ के दर्पण में निहार
मन बोल रहा है बार -बार
हे कौसड़ तुमको नमस्कार।
लंबी कविता है जिसमें कौसड के लोगों के जनजीवन के विभिन्न बिंदुओं को छूने का प्रयास किया गया है।
1993 में मैंने जो जनगणना की थी, वह मेरा खुद का शौकिया प्रोजेक्ट था। गाँव को जानना था ठीक से। 3 महीने तक लगा रहा। गर्मी का महीना था। कई बार सिवान भी गया। गाँव से संबंधित कागजात के लिए।
मुझसे 20 साल पहले यह काम मेरे हीं गाँव के एक वैज्ञानिक फूलदेव सहाय ने किया था। उनकी आत्मकथा में एक अध्याय मेरा गाँव कौसड भी है। हालाँकि उस किताब की या जनगणना की मुझे कोई जानकारी नहीं थी। जब मैंने अपना काम शुरू किया और लोगों से मिलना-जुलना शुरू किया तो हमारे गाँव के गणेश सिंह ने न सिर्फ उस किताब की जानकारी दी बल्कि वह किताब भी उन्होंने उपलब्ध कराई। गणेश जी भी उस जनगणना में फूलदेव सहाय के सहयोगी थे।
गाँव की चौहद्दी की बात करें तो पूरब में गभिराड़, पश्चिम में बड़ुआ, उत्तर में पंजवार और दक्षिण में घाघरा नदी है। पंजवार हीं मुख्य सड़क है जो सिवान या छपरा, पटना से कनेक्ट करती है। पंजवार से डेढ़-दो किलोमीटर अंदर है गाँव के लोगों का रेसिडेंशियल एरिया। पंजवार रोड से लेकर रेसिडेंशियल एरिया तक खेत है। इन्हीं खेतों के बीच एक खाड़ी भी है जो दक्षिण में घाघरा नदी से कनेक्ट हो जाती है। खाड़ी का निर्माण खेतों की सिंचाई के लिए किया गया है। इन खेतों के कुछ भूभाग को चंवरा कहा जाता है। खाड़ी उस पार ( पूरब दिशा में ) के खेतों को डीह पर का खेत कहा जाता है और दक्षिण में घाघरा नदी के किनारे वाले खेतों को दियर / दियारा कहा जाता है। गेहूं, धान, अरहर, जौ, बाजरा, मक्का, सब्जियां और दियर में गन्ना की खेती होती है। मक्का या मकई के बाल को अगोरने के लिए मचान पर रात में सोने या दिन भर गपियाने के बचपन के कई संस्मरण जेहन में हैं। हल और हेंगा की कहानियां भी हैं जिन्हें आज ट्रैक्टर ने रिप्लेस कर दिया है। गायों और भैंसों के लिए सांड़ और भैंसा को कर छो कर छो कर के तलाशने के रोचक किस्से भी हैं और बचपन के जिज्ञासु मन में इस बाबत उठने वाले तमाम सवालों के जबाब अपनी बालमण्डली में खोजने और विचित्र जबाबों के ठहाकों से गुलजार यादें भी हैं जो शहर और मेट्रो के बच्चों के लिए दुर्लभ हैं।
तब खाना बनाने के लिए लगभग सभी घरों में मिट्टी का एक मुंहा और दो मुंहा चूल्हा हीं होता था जिसमें ईंधन के रूप में रहेठा या चइली लवना के रूप में प्रयोग किया जाता था। अब तो मोदी जी ने घर-घर गैस का चूल्हा पहुंचा दिया। झाड़ा फिरने/ मैदान होने/ हगने या शौच के लिए अब शायद हीं कोई घर से दो किलोमीटर दूर खेतों में जाता हो। घर-घर शौचालय है। अब किसी मां, बहन, भाभी को शौच के लिए पेट दबाकर अंधेरा होने का इंतज़ार नहीं करना पड़ता है।
मेरे भी गाँव में कई अंग्रेजी मीडियम स्कूल खुल गए हैं। तब पंजवार से कौसड आने वाली सड़क के अंतिम छोर, टी पॉइंट पर एक सरकारी प्राइमरी स्कूल था, जो आज भी है। बस बिल्डिंग थोड़ा बड़ा और नंबर ऑफ रूम्स बढ़ गए हैं। मुझे मालूम नहीं कि अब के मास्टर जी हमारे समय के पंडीजी की तरह रोज पेड़ के नीचे समूह में खड़ा करके पनरह का पनरह, पनरह दूनी तीस, तिया पैतालीस, चऊके साठ करते हैं कि नहीं। वह गाँव का हीं गिनती पहाड़ा का बेस था कि मैं रेनुकूट, सोनभद्र ( तब मीरजापुर) उत्तर प्रदेश में चौथी कक्षा में एडमिशन लिया तब से हाई स्कूल तक गणित में 100 परसेंट अंक मिलते रहे।
गाँव में चिक्का, कबड्डी, गुल्ली- डंडा का खेल अब ना के बराबर रह गया है। ( बल्कि वह दुर्लभ खेल गाँव से पार्लियामेंट में सिफ्ट हो गया है। ) बच्चों में मोबाइल गेम यहां भी हावी है।
गाँवों में अब डायन ना के बराबर पाई जाती हैं। पहले बात बात पर डायन अस्तित्व में आती थी। किसी को बुखार हुआ नहीं कि घर के लोग उचरना शुरू करते थे, डायन कइले होई। फिर डॉक्टर से ज्यादा ओझा का महत्त्व था और दवा से ज्यादा करियवा डांरा का। हर बच्चे के कमर में एक काला धागा होता था। किसी के यहां चोरी होने पर पुलिस के पास लोग बाद में जाते थे पहले गाँव के खुशी भगत के पास पहुंचते थे। खुशी भगत का बांध के किनारे देव स्थान था। वहीं वह भाखते थे और बता देते थे कि किसका पाड़ा कौन चोरा कर ले गया है। केकरा हाड़े कब हरदी लागी। सब सवालों के जबाब थे खुशी भगत। उन पर परी आती थीं। वह बीड़ी पीते थे। परी के आते हीं बीड़ी फेंक देते थे और समाधान बताने लगते थे। अब खुशी भगत नहीं रहे।
गाँव भी पहले वाला नहीं रहा। मुझे याद है तब जाड़े के दिन में दियारा जाने पर लोग पूछ पूछ के ऊँख का रस पिलाते थे। महिया खिलाते थे। अब एक दूसरे को पूछने और मिलने जुलने की रवायत कम हो गई है। बरगद का पेड़ भी अब पहले जैसी छांव नहीं देता। इंफ्रास्ट्रक्चर तो बढ़ रहा है पर दिलों का कंनेक्शन कमजोर हो रहा है। गाँव तो गाँव पड़ोसी गाँव भी ईर्ष्यालु और आत्ममुग्ध हो गया है। आपके काम को मान नहीं देगा। इससे उसके अस्तित्व को खतरा है। वह हज़ार, दोहज़ार, छह हजार किलोमीटर दूर कोई आका खोज लेगा। उसको पूजेगा और आपके बड़े काम को नकार देगा।
गाँव जहां भारत की आत्मा बसती है वहां की जड़ों में सियासी घुन लग गए हैं। जनकवि कैलाश गौतम की एक कविता बड़ी लोकप्रिय है, ” गाँव गया था, गाँव से भागा” … स्थिति उससे बदतर होती जा रही है।
क्रिएटिविटी के लिए जरूरी है कि गाँव और चौहद्दी के गांवों में सौहार्द्र, सहयोग और एक-दूसरे को आगे बढ़ाने की प्रवृति जागृत हो। सहयोग हीं गाँव की मूल आत्मा थी और इसी के बल पर बड़े से बड़े अनुष्ठान होते थे। इसी सहयोग और सौहार्द को पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। सबके आंगन में सूरज स्थापित हो, ऐसी कोशिश हो।
दूसरी जरुरी बात गांवों के प्रति नज़रिया बदले। गांवों में महत्त्वपूर्ण काम करने वाले भी कुछ लोगों की नज़र में बुरबक या लड़बक होते हैं और शहर में गोबर पाथने वाले भी होशियार। यह घटिया सोच बदलनी चाहिए। वैसे भी अब गांवों की ओर हीं लौटना होगा। शहर की आबोहवा जहरीली हो गई है। हम मुखनली और श्वासनली दोनों से जहर ले रहे हैं। इसलिए जीवन को बचाना है तो गांवों की ओर लौटना हीं होगा पर जीवन में जीवन रहे इसके लिए प्रेम और सौहार्द्र को भी स्थापित करना होगा।
काश, मेरा यह शेर झूठा साबित हो जाय –
लोर पोंछत बा केहू कहां
गाँव अपनों शहर हो गइल
परिचय – लेखक भोजपुरी कवि व फिल्म समीक्षक हैं। बतौर इंजीनियर अफ्रीका-यूरोप में नौकरी करने के बाद ज़ी टीवी, टाइम्स नाउ, हिन्दुस्थान समाचार समेत कई संस्थानों में कंसलटेंट।
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