हिंदी कवि मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता का यह शीर्षक है-‘मुझे फूल मत मारो’!
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हिंदी कवि मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता का यह शीर्षक है-‘मुझे फूल मत मारो’! यह कविता मुझे आज पूरी तरह याद नहीं। कविता पढ़े और उसे याद किए दशक तो जरूर बीते होंगे।वह तब की बात है जब हमारे टीचर किसी विशेष पाठ या किसी रचना को कंठस्थ कर लेने को कहते थे और हमें ऐसा करना पड़ता था। उन्हीं दिनों हमने जाना था कि फूल तोड़ना अच्छी बात नहीं है। लेकिन बचपन के समय हम बहुत कुछ नहीं भी करते थे,खास तौर पर जहां हमारे शिक्षक नहीं होते थे।यह अलग बात है कि उनके कहे वाक्य हम इसलिए भी याद रखते थे कि क्या पता वे हमारे पेपर में आ जायेंगे..
फूल तोड़ने की आदतें लोगों के स्वभाव में भी उतनी ही पुरानी हैं जितनी स्कूल के दिनों टीचर द्वारा दिए किसी पाठ को याद करने दौरान हमें होती थी। मुझे यह देखकर बड़ी हैरानी होती है कि लोग फूल आखिर क्यों तोड़ते हैं ? एक हरी-भरी डाल पर खिलते-झूमते, हवा में लहराते और सुगंधि बिखेरते फूलों को इतनी निर्ममतापूर्वक तोड़कर लोगों को आखिर क्या मिल जाता है ? तोड़कर उसे भगवान को अर्पित करने में उनकी कितनी बड़ी साधना कामयाब हो जाती है ? उनके भगवान कितने खुश होते हैं ? वो स्वयं कितने सफल बनते हैं अपने जीवन में ? क्या ईश्वर ने कहीं कहा है कि उनके लिए पुष्प तोड़े जाएं ? यह तो पोथी-पत्तरा में लिखा गया है कि फूल तोड़कर उसे ईश्वर को समर्पित किया जाये और वह पोथी भी तो हमने ही लिखी है ? यह सिलसिला सदियों से चलता आया है सदियों तक चलता रहेगा।यह कर्मकांडीय विधि है !
एक तरह से देखा जाए तो क्या फूल ही ईश्वर नहीं है।वह किसी से बिना कुछ कहे खिल जाता है.. ऐसा निर्दोष नि: शब्द स्वागत शायद आदमी भी ईश्वर का नहीं करता।अब्बल तो वह पूजा पर जाने के समय पता नहीं अशुद्ध उच्चारण के साथ क्या-क्या भनभनाता है और सोचता है कि वह जो कुछ कर रहा है,कोई दूसरा नहीं कर सकता। पूजा-पाठ के समय कोई मंत्रोच्चारण करते, कोई पाठ करते,अशुद्ध और गलत उच्चारण करके वह कौन-सा मोक्ष प्राप्त करता है यह उसे जरूर सोचना चाहिए।यह भी सोचना चाहिए कि जो काम वह करता है उसे ऐसा करने के लिए ईश्वर ने कभी नहीं कहा !
क्या फूल ख़ुद ही ईश्वर नहीं होता ? ईश्वर तो अदृश्य है, दिखता नहीं और उसे सच मानते हम उसके प्रति समर्पित हैं, बंद आंखों से उसकी पूजा अर्चना करते हैं और उसे फूलों से लाद देते हैं और समझते हैं कि ईश्वर खुश हो गया और हमने एक बड़ा काम कर लिया !
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही होता है ? इसपर हम कभी नहीं सोचते।हम दिन-रात जो काम करते हैं उसे करने से क्या किसी दूसरे को कोई परेशानी हो रही है इसपर हम कभी नहीं सोचते लेकिन खुद के बनाए रुढ़िवादी रास्ते पर चलकर फख्र महसूस करते हैं और सोचते हैं कि हम जो भी करते हैं वह ठीक है।बस यहीं से एक ऐसा सिलसिला शुरू हो जाता है जो संस्कार में गहरे पैठ जाताहै और हम कभी भी कुछ ‘नया’ नहीं कर पाते। हमारे संस्कार, हमारे तौर तरीकों को कभी उसके हम नयेपन के साथ नहीं देखते क्योंकि उसके लिए हमें खुद में एक बदलाव लाना होगा जिसमें सत्य बोलना सबसे पहले आयेगा और वह शायद एक बहुत बड़े समुदाय में नहीं है।
हमारा समाज कभी एक नया समाज नहीं बनता। लेकिन हंसी आती है कि हर समय हमारे कानों में हर उस चीज को नया कहा जाता है जो अपने होने में कभी नयी दिखी ही नहीं। हमारे यहां यह हो ही नहीं सकता जब हम किसी चीज़ को एकदम नया कहें क्योंकि उसके लिए हमें उन तमाम रुढ़िवादी विचारों से उबरना होगा जो हमारे आसपास नकारात्मक ऊर्जा भरते रहते हैं।
यह दीगर बात है कि ऐसा साहस बहुत कम देखने को मिलता है। यहां तक कि परिवार में आये एक शिशु को भी हम नया नहीं मानते जिसके इस संसार में आये बस कुछ ही सेकंड हुए हैं। उसे देखते ही हम उसके शक्ल सूरत को परिवार के दूसरे सदस्यों की शक्ल सूरत के साथ जोड़ते रहते हैं और सबकुछ पुरानी राह से गुजरना शुरू हो जाता है।
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