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इस बार विधानसभा नहीं पहुंच सका एक भी निर्दलीय प्रत्याशी, 1021 लड़े-सभी हारे. - श्रीनारद मीडिया

इस बार विधानसभा नहीं पहुंच सका एक भी निर्दलीय प्रत्याशी, 1021 लड़े-सभी हारे.

इस बार विधानसभा नहीं पहुंच सका एक भी निर्दलीय प्रत्याशी, 1021 लड़े-सभी हारे.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

उत्तर प्रदेश की 18वीं विधानसभा इसके लिए भी याद की जाएगी कि एक भी निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका। जो जनप्रतिनिधि पिछले चुनावों में निर्दलीय के रूप में मैदान में उतरते रहे हैं, उन्होंने भी दलों का सहारा लिया। हालांकि उनमें से दो चेहरे चुनाव जीतने में सफल रहे हैं, जबकि तीसरे को दल भी विधान सभा पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सका। निर्दलीय इधर कई चुनावों से हाशिए पर रहे हैं, क्योंकि जनता पूर्ण बहुमत की सरकारें लगातार बना रही है।

देश की आजादी से अब तक हुए विधानसभा चुनावों में बड़ी संख्या में निर्दलीयों ने अपनी किस्मत आजमाई है, लेकिन कभी भी निर्दलीयों की सफलता का सैकड़ा नहीं बन सका। 2017 के चुनाव में निर्दलीयों के चुनाव जीतने की संख्या मात्र तीन रह गई थी। प्रतापगढ़ जिले की कुंडा से रघुराज प्रताप सिंह, इसी जिले की बाबागंज से विनोद कुमार व महराजगंज जिले की नौतनवा से अमनमणि त्रिपाठी ही जीते थे। माना जा रहा था कि निर्दलीयों का ये सबसे खराब प्रदर्शन है।

कुंडा से निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह इस बार जनसत्ता दल लोकतांत्रिक पार्टी बनाकर मैदान में उतरे, खुद चुनाव जीतने के साथ ही बाबागंज सुरक्षित सीट से विनोद कुमार को भी सफलता मिली। वहीं, नौतनवा सीट से अमनमणि त्रिपाठी बसपा के टिकट पर उतरे और उन्हें पराजित होना पड़ा।

इसके अलावा प्रदेश की कई सीटों पर निर्दलीयों ने शानदार प्रदर्शन किया लेकिन वे चुनाव जीतने में सफल नहीं हो सके। महराजगंज सदर सीट पर निर्दलीय निर्मेश मंगल 59168 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे। प्रदेश में निर्दलीय एक बड़ी ताकत रहे हैं। उनके समर्थन से सत्ता बनती और बिगड़ जाती थी, क्योंकि सरकारों को बहुमत के लिए इनका सहारा लेना पड़ता था।

इस बार राजनीतिक पार्टियों से टिकट न मिलने पर निर्दलीय के रूप में चुनाव मैदान में उतरने वालों की तादाद घटकर 1021 रह गई, ज्ञात हो कि पिछले चुनाव में 1462 ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा था। परिणाम आया तो निर्दलीय प्रत्याशी सन्न रह गए, क्योंकि एक को भी जीत हासिल नहीं हुई।

2002 के विधान सभा चुनाव में जहां 16 निर्दलीय जीते थे, वहीं 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार आने के साथ ही निर्दलीयों का आंकड़ा घटकर नौ पर पहुंच गया था, 2012 में भी सपा की सरकार बनी तब छह निर्दलीय ही जीत सके थे और 2017 में इनकी संख्या तीन रह गई। इसके पहले 1991 व 1993 में भी कांटे का चुनाव होने पर निर्दलीय क्रमश: सात व आठ ही जीत सके थे। इसके पहले सिर्फ 1974 में ही चार निर्दलीय जीते थे, बाकी चुनावों में उनकी संख्या दहाई में ही रही है।

कुल प्रत्याशियों की संख्या भी सबसे कम : इस चुनाव में उतरने वाले प्रत्याशियों की संख्या पिछले दो दशक के चुनाव की तुलना में सबसे कम 4442 रही। पिछले चुनाव में जहां 4853 प्रत्याशी थे, वहीं वर्ष 2012 में 6839 और उससे पहले 2007 के चुनाव में 6086 तथा वर्ष 2002 के चुनावी दंगल में 5533 उम्मीदवार थे। इस बार भाजपा व सपा जैसी बड़ी पार्टियां छोटे दलों से गठबंधन कर चुनाव लड़ रही हैं तो बसपा व कांग्रेस अकेले ही सभी 403 सीटों पर लगभग सभी सीटों पर चुनाव लड़ी थी।

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