संपर्क-भाषा के तौर पर हिंदी का विरोध करने वाले अपने ही भाषा-भाषियों के शत्रु है,कैसे?

संपर्क-भाषा के तौर पर हिंदी का विरोध करने वाले अपने ही भाषा-भाषियों के शत्रु है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संसदीय राजभाषा समिति की बैठक में गृहमंत्री अमित शाह ने यह कह दिया कि भारत की संपर्क-भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी होनी चाहिए। फिर क्या था? बर्र का छत्ता बिखर पड़ा। तमिलनाडु, केरल और विपक्ष के कई अहिंदीभाषी नेता अमित शाह पर बरस पड़े। अमित शाह ने अहिंदीभाषियों पर न तो हिंदी थोपने की बात कही, न ही अन्य भारतीय भाषाओं पर किसी प्रकार का लांछन लगाया था।

लेकिन उन्होंने वह बात कह दी, जिसे कहने का साहस भारत के बड़े-बड़े नेता नहीं कर सकते। सब यही रट लगाते हैं कि ‘हिंदी लाओ, हिंदी लाओ’। महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया- ये ऐसे तीन महापुरुष हुए हैं, जो कहते थे कि ‘अंग्रेजी हटाओ’। हटाओ का अर्थ मिटाओ बिल्कुल नहीं है। जो लोग अंग्रेजी को मिटाने की बात करते हैं, उन्हें विदेशी भाषाओं के महत्व का कुछ पता ही नहीं है।

हमें अंग्रेजी के साथ-साथ पांच-सात ऐसी विदेशी भाषाओं में निपुणता होनी चाहिए, जिनसे हमारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय विषयों का अनुसंधान बढ़ता ही चला जाए। जो भी स्वेच्छा से विदेशी भाषाएं पढ़ना चाहें, जरूर पढ़ें। लेकिन यह तभी हो सकता है जबकि हम भारतीय लोग अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त हो जाएं।

सिर्फ एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी) की गुलामी के परिणाम किसी भी राष्ट्र की एकता, समृद्धि और शक्ति के लिए बहुत घातक होते हैं। भारत के कानून अंग्रेजी में बनते हैं, अदालतों के फैसले अंग्रेजी में होते हैं, बच्चों की पढ़ाई में अंग्रेजी अनिवार्य है, उच्च शोध अंग्रेजी में होता है, सरकार की नीतियां नौकरशाह अंग्रेजी में बनाते हैं, अंग्रेजी जाने बिना आप सरकार में या बाहर कोई ऊंची या सामान्य नौकरी भी नहीं पा सकते।

जो मेरे विदेशी मित्र भारत आते हैं तो वे भारत के घर-द्वार, बाजार और सरकार में अंग्रेजी का दबदबा देखकर दंग रह जाते हैं। अंग्रेजी की इस गुलामी के कई कारण हैं। दुनिया के लगभग 50 देशों में अंग्रेजों का राज रहा है। ब्रिटिश राष्ट्रकुल के इन देशों में आज भी उनका भद्रलोक अंग्रेजी के जरिए दबदबा बनाए हुए हैं। यदि इन देशों में उनकी अपनी भाषाओं का इस्तेमाल सर्वत्र शुरू हो जाए तो यह भद्रलोक प्रभाहीन हो जाएगा।

इस मुट्ठीभर भद्रलोक के लिए अंग्रेजी जादुई शिकंजा है, जो देश के गरीब, ग्रामीण, पिछड़े, वंचित, दलित लोगों को उच्च शिक्षा, सेवा, पद, आय और जीवन से वंचित करके रख देता है। अंग्रेजों के जमाने से जमे इस शिकंजे को तोड़ने का काम किसी सरकार ने नहीं किया है। जो लोग भारत में अंग्रेजी के दबदबे को चलते रहने देना चाहते हैं, उनका एक तर्क यह भी है कि अंग्रेजी विश्वभाषा है।

अंग्रेजी को हटाकर क्या हम भारत को सारी दुनिया से काट देना चाहते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। यदि अंग्रेजी एक मात्र विश्वभाषा है, तो संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषाओं की संख्या 6 क्यों है? सच्चाई तो यह है कि अंग्रेजी दुनिया के सिर्फ साढ़े चार देशों की भाषा है। अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और तीन-चौथाई कनाडा! अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा में भी आपको ऐसे लाखों लोग मिल जाएंगे, जिनकी भाषा अंग्रेजी नहीं।

दुनिया में सबसे अधिक बोली और समझे जाने वाली यदि कोई भाषा है तो वह हिंदी है। चीनी सिर्फ चीन में बोली जाती है जबकि हिंदी दक्षिण एशिया के आठ देशों के अलावा दुनिया के लगभग आधा दर्जन देशों में बोली जाती है। हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी का व्याकरण और शब्दकोश भी बहुत कमजोर है। हिंदी संस्कृत की पुत्री है। संस्कृत की एक धातु से हजारों शब्द गढ़े जा सकते हैं।

तीन हजार से ज्यादा तो धातुएं ही हैं। इसके अलावा दर्जनों भाषाओं और सैकड़ों बोलियों के शब्दों से मिलकर हिंदी का कोष अंग्रेजी से कई गुना बड़ा है। लेकिन हिंदी को अहिंदीभाषियों पर थोपना भी गलत है। यदि अमित शाह यह भी कह देते कि सभी हिंदीभाषी अन्य भारतीय भाषाएं भी सीखें और उनके प्रति आदर-भाव रखें तो विरोधियों की हवा खिसक जाती।

दुनिया के जितने भी शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र हैं, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिसमें किसी विदेशी भाषा का वैसा वर्चस्व है, जैसा कि भारत में अंग्रेजी का है। मेरे अंग्रेज मित्र इस पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि भारत की ‘स्वामीभक्ति’ अनुपम है।

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