PFI पर कसा शिकंजा, क्या हैं इस प्रतिबंध के मायने ?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
केंद्र सरकार ने पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (Popular Front of India, PFI) एवं उससे संबद्ध कई अन्य संगठनों पर पांच साल का प्रतिबंध लगा दिया है। PFI पर आतंकी गतिविधियों में लिप्त रहने और ISI जैसे आतंकी संगठनों से ‘संबंध’ होने जैसे गंभीर आरोपों के चलते सरकार ने उक्त कदम उठाए हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार ने अचानक यह फैसला लिया है। केंद्रीय जांच एजेंसियां पीएफआइ की कथित देश विरोधी गतिविधियों को लेकर सरकार को बार-बार आगाह कर रही थीं।
ऐसे कसा शिकंजा
दरअसल, केंद्र सरकार को बार बार इस बात का खुफिया इनपुट मिल रहा था कि पीएफआइ के कुछ सदस्य गंभीर देश विरोधी गतिविधियों में शामिल हैं। इसके बाद सरकार ने PFI पर शिकंजा कसने के मसले पर मंथन किया। आखिरकार 22 सितंबर को केंद्रीय जांच एजेंसियों ने 15 राज्यों में एकसाथ पीएफआइ के खिलाफ छापेमारी अभियान चलाया। सूत्रों का कहना है कि इस आपरेशन में केंद्रीय एजेंसियों को पीएफआइ के खिलाफ ठोस सुबूत हाथ लगे थे। केंद्रीय एजेंसियों की शुरुआत जांच रिपोर्ट के बाद पीएफआइ के खिलाफ ठोस कार्रवाई का दबाव बढ़ने लगा था।
अमित शाह खुद कर रहे थे निगरानी
सूत्र बताते हैं कि केंद्रीय एजेंसियों की ओर से चलाए गए देशव्यापी ऑपरेशन की निगरानी एनआइए, ईडी और आइबी के निदेशकों ने खुद की। सभी उच्चाधिकारी कंट्रोल रूप में बैठकर खुद आपरेशन की निगरानी करते रहे। इतना ही नहीं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस मसले पर उच्च स्तरीय बैठक करके पूरे आपरेशन की समीक्षा की। बताया जाता है कि पूरी कार्रवाई में एनआइए के 300 अधिकारी शामिल थे। इस ऑपरेशन को एनआइए की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई माना जा रहा है।
देश के सारे उच्चाधिकारियों की थी आपरेशन पर नजरें
सूत्रों का कहना है कि इस ऑपरेशन के दौरान NIA के कंट्रोल रूम से महानिदेशक दिनकर गुप्ता जबकि ईडी के कंट्रोल रूम से निदेशक संजय मिश्र और आइबी के कंट्रोल रूम से निदेशक तपन डेका पल-पल की जानकारी लेते रहे। बाद में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल आइबी के कंट्रोल रूम से इस ऑपरेशन की मॉनीटरिंग में जुड़ गए। केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला भी कार्रवाई पर नजर बनाए हुए थे। एजेंसियों को पूरे ऑपरेशन के दौरान PFI के खिलाफ हैरान करने वाले साक्ष्य मिले। इन्हीं साक्ष्यों ने ताबूत में कील का काम किया।
प्रतिबंध के मायने
आतंकवाद और आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ भारत का मुख्य कानून यूएपीए केंद्र सरकार को ‘गैरकानूनी संघ’ या ‘आतंकी संगठन’ घोषित करने की अनुमति देता है। इसे बोलचाल की भाषा में संगठनों पर ‘प्रतिबंध’ के रूप में वर्णित किया जाता है। किसी संगठन को आतंकी संगठन घोषित करने का मतलब है कि इसके सदस्यों को अपराधी ठहराया जा सकता है। यही नहीं संगठन की अवैध संपत्तियों को जब्त किया जा सकता है।
वैश्विक एक्शन के अनुरूप है कार्रवाई
सरकार की ओर से की गई मौजूदा कार्रवाई वैश्विक एक्शन के अनुरूप है। वर्ष 1997 के बाद से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के कई प्रस्तावों में आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के तहत उनकी संपत्तियों एवं अन्य आर्थिक संसाधनों को फ्रीज करने का प्राविधान है। यही नहीं कार्रवाई के तहत आतंकियों के प्रवेश या उनकी यात्रा पर रोक लगाई जा सकती है।
क्या बदल जाएगा..?
यूएपीए की धारा-35 के तहत केंद्र सरकार उस संगठन पर प्रतिबंध लगा सकती है जो आतंकवाद में शामिल है। आतंकी घटनाओं में लिप्त समूह को आतंकी संगठन माना जाता है। आतंकी घटनाओं में आतंकवाद को बढ़ावा देना और लोगों को आतंकवाद के लिए तैयार करना शामिल है। आतंकी संगठन घोषित किए जाने के बाद समूह की फंडिंग पर रोक लग जाती है। यूएपीए की धारा-38 के तहत आतंकी गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति को दस साल तक की कैद हो सकती है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, ये छापेमारी टेरर फंडिंग, ट्रेनिंग कैंप का आयोजन और लोगों को चरमपंथी बनाने में पीएफआई का हाथ होने के चलते की गई है।
एनआईए (NIA), प्रवर्तन निदेशालय (ED) और राज्यों की पुलिस ने 22 सितंबर और 27 सितंबर को पीएफआई पर ताबड़तोड़ छापेमारी की थी। पहले राउंड की छापेमारी में 106 पीएफआई से जुड़े लोग गिरफ्तार हुए थे। दूसरे राउंड की छापेमारी में 239 पीएफआई से जुड़े लोग गिरफ्तार/हिरासत में लिए गए। जांच एजेंसियों को पीएफआई के खिलाफ पर्याप्त सबूत मिले। इसके बाद जांच एजेंसियों ने गृह मंत्रालय से कार्रवाई की मांग की थी। जांच एजेंसियों की सिफारिश पर गृह मंत्रालय ने पीएफआई पर बैन लगाने का फैसला किया। इसके साथ ही आधा दर्जन से अधिक बड़े मामलों में पीएफआई की संलिप्तता सामने आयी है।
पीएफआई की स्थापना कब हुई?
पीएफआई को 2007 में दक्षिण भारत में तीन मुस्लिम संगठनों, केरल का नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट इन केरल, कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी और तमिलनाडु में मनिथा नीति पासराई के विलय के जरिए स्थापित किया गया। दरअसल, केरल के कोझिकोड़ में नवंबर 2006 में एक बैठक का आयोजन हुआ, जहां पर तीनों संगठनों को एक साथ लाने का फैसला किया गया। पीएफआई के गठन की औपचारिक घोषणा 16 फरवरी, 2007 को एम्पॉवर इंडिया कॉन्फ्रेंस के दौरान बेंगलुरू में एक रैली में की गई थी।
पीएफआई का काम क्या है?
पीएफआई ने खुद को एक ऐसे संगठन के रूप में पेश किया है जो अल्पसंख्यकों, दलितों और हाशिए पर पड़े समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ता है। इसने कर्नाटक में कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस की कथित जनविरोधी नीतियों को लेकर अक्सर ही इन पार्टियों को निशाना बनाया है। बता दें कि मुख्यधारा की ये पार्टियां चुनावों के समय एक दूसरे पर मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए पीएफआई के साथ मिलने का आरोप लगाती हैं। पीएफआई ने खुद कभी चुनाव नहीं लड़ा है। पीएफआई मुसलमानों के बीच सामाजिक और इस्लामी धार्मिक कार्यों को करता रहा है। पीएफआई अपने सदस्यों का रिकॉर्ड नहीं रखता है और यही वजह है कि इस संगठन से जुड़े लोगों को गिरफ्तार करने के बाद भी कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए अपराधों को रोकना कठिन हो जाता है।
पीएफआई से निकला SDPI क्या है?
2009 में, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) नाम का एक राजनीतिक संगठन मुस्लिम, दलितों और अन्य हाशिए पर पड़े समुदायों के राजनीतिक मुद्दों को उठाने के उद्देश्य से पीएफआई से बाहर होकर एक नए संगठन के रूप में सामने आया। SDPI का कहना है कि उसका मकसद मुसलमानों, दलितों, पिछड़े वर्गों और आदिवासियों सहित सभी नागरिकों की उन्नति और समान विकास है। इसके अलावा, सभी नागरिकों के बीच उचित रूप से सत्ता साझा करना भी उसका इरादा है। यहां गौर करने वाली बात ये है कि पीएफआई एसडीपीआई की राजनीतिक गतिविधियों के लिए जमीनी कार्यकर्ताओं को मुहैया कराने का काम भी करता है।
इन मामलों में सामने आया था PFI का नाम
- 2017 (लव जिहाद का आरोप): 2017 में विवादास्पद हादिया केस को ध्यान में रखते हुए एनआईए ने दावा किया कि पीएफआई ने इस्लाम में धर्मांतरण करवाने का काम किया. हालांकि, 2018 में जांच एजेंसी ने इस बात को माना कि धर्मांतरण के लिए जोर-जबरदस्ती नहीं हुई थी।
- 2019 (श्रीलंका में ईस्टर बम धमाके): एनआईए ने मई 2019 में पीएफआई के कई कार्यालयों पर छापेमारी की। जांच एजेंसी का मानना था कि ईस्टर बम धमाकों के मास्टरमाइंड के लिंक पीएफआई से जुड़े हैं। इस बम धमाके में 250 से ज्यादा लोगों की जान गई।
- 2019 (मंगलुरु हिंसा): मंगलुरु पुलिस ने दावा किया कि दिसंबर में सीएए-एनआरसी प्रदर्शनों के दौरान पीएफआई और एसडीपीआई के सदस्यों ने हिंसा भड़काई, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। कुल मिलाकर पीएफआई और एसडीपीआई के 21 से ज्यादा सदस्यों को गिरफ्तार किया गया।
- 2020 (दिल्ली दंगा): दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने आरोप लगाया कि पीएफआई ने दंगाइयों को आर्थिक और लॉजिस्टिक की मदद पहुंचायी। पुलिस ने दावा किया कि जेएनयू स्कालर उमर खालिद लगातार पीएफआई सदस्यों के साथ टच में था।
- 2020 (हाथरस दुष्कर्म मामला): हाथरस में कथित सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के बाद यूपी पुलिस ने पीएफआई के खिलाफ देशद्रोह, धार्मिक घृणा को बढ़ावा देने और अन्य मामलों में कम से कम 19 केस दर्ज किए। पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को PFI से कथित संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया गया।
- 2020 (केरल सोना तस्करी मामला): एनआईए अधिकारियों ने जुलाई 2020 में पीएफआई और एक सोने की तस्करी रैकेट के बीच संबंधों की जांच की। एनआईए सूत्रों ने कहा कि सोने का इस्तेमाल पीएफआई द्वारा राष्ट्र विरोधी आतंकवादी गतिविधियों की फंडिंग के लिए किया जा सकता है।
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